Monday, February 1, 2010

इस अकेलेपन में भी मैं खिलखिलाना चाहती हूँ।


कौन है जो जिंदगी तनहा बिताना चाहता है,
जिदगी को चुन लिया तनहाइयों नें किंतु मेरी,
अब मुझे जैसी मिली, वैसी बिताना चाहती हूँ,

इस अकेलेपन में भी मैं खिलखिलाना चाहती हूँ।

छूट जाने के लिये ही मीत जब सारे मिले हैं,
दिल जलाने के लिये ही दीप जब सारे जले हैं,
क्यों न फिर जलते हुए इस दिल की लौ रोशन करूँ मैं,
और उस लौ से किसी के दिल के तम को अब हरूँ मैं।

इस तरह जलते हुए मैं जगमगाना चाहती हूँ।

इस अकेलेपन में भी मैं खिलखिलाना चाहती हूँ।

मैं किसी की प्रार्थना में हूँ न हूँ शामिल भले ही,
पर मेरी हर प्रार्थना, शुभकामना सबको मिले ही।
हो न हो मेरे लिये आँखें किसी की नम यहां पर,
पर सभी के पीर पर नम हो मेरी आँखें पिघल कर।
मैं सभी के अश्क ले कर मुस्कुराना चाहती हूँ।

इस अकेलेपन में भी मैं खिलखिलाना चाहती हूँ।

उस विधाता ने किसी इक ध्येय से सबको गढ़ा है
और अपना ध्येय मैने भाल पर ये ही पढ़ा है।
पैर के काँटे न रोकें होंठ की खिलखिल हँसी को,
फूल का मतलब बताना,लक्ष्य मेरा हर किसी को
इसलिये ही हर चुभन में गुनगुनाना चाहती हूँ

इस अकेलेपन में भी मैं खिलखिलाना चाहती हूँ।

नोटः रविकांत जी और शार्दूला दी को धन्यवाद के साथ जिन्होने पढ़ने लायक बनाया इसे। और चित्र साभार गूगल जिसका शीर्षक था Might Be Laughing :)

40 comments:

Anonymous said...

alone aur lonely dono alag alag hotey haen

kavita hamesha ki tarah sunder haen

pyaar kae saath rachna

Mithilesh dubey said...

बेहद सुन्दर लगी आपकी ये रचना ।

Sweta said...

bahut hi aachi hai.

अजय कुमार said...

’इस अकेलेपन में भी मैं खिलखिलाना चाहती हूँ।’

खूबसूरत इजहार

Anonymous said...

khil-khilana itna aasan nahi hai....
lekin fir bhi aap dosaron ke gam miatakar hansna chahati hain....
ye kam mushkil hai fir bhi karna aap jaiso ko padega....kyunki dusaro ke liye bhala kyun kyu dukh sahe.
sundar rachna....dil ko chu gai.
bahut-bahut shubhkaamanaayein!!!

वाणी गीत said...

जलते हुए दिल की लौ से दूसरे दिलों को रोशन करना अच्छा ख़याल है ....
दूसरों के ग़म मिटते हुए अपना अकेलपन भूलते हुए खिलखिलाना इतना आसान ना सही ...नामुमकिन तो नहीं है ...अब देखिये ...हम भी आपकी इस मुहीम में आपके साथ चलना चाहते हैं ...तो नहीं रहा ना अकेलापन ....!!

कुश said...

ये एकाकीपण स्थायी है या विरह के बाद मिलन की कोई संभावना है.. ?

daanish said...

उस विधाता ने किसी इक ध्येय से सबको गढ़ा है
और अपना ध्येय मैने भाल पर ये ही पढ़ा है।
पैर के काँटे न रोकें होंठ की खिलखिल हँसी को,
फूल का मतलब बताना,लक्ष्य मेरा हर किसी को
इसलिये ही हर चुभन में गुनगुनाना चाहती हूँ

mn ke gehre bhaavoN ko
ujaagar karti huee
nayaab rachnaa....
shabd-shabd sankalp ki bhaavnaoN se
smriddh prateet ho rahaa hai
kabhi kaheen kahaawat suni thi kisi ke muhN se... "jo hai usi mei aanand lene ki koshish karo"
jb suni thi, to chubhti-si thi.. aaj aapki ye sdbhaav bhari kavita padh kar wo kahaavat achhee lagne lagi hai,,,,
aabhaar svikaareiN .

निर्मला कपिला said...

पैर के काँटे न रोकें होंठ की खिलखिल हँसी को,
फूल का मतलब बताना,लक्ष्य मेरा हर किसी को
इसलिये ही हर चुभन में गुनगुनाना चाहती हूँ

इस अकेलेपन में भी मैं खिलखिलाना चाहती हूँ।
कंचन जी इस से अच्छा ध्येय जीवन मे और क्या हो सकता है कि कोई किसी को एक मुस्कान दे सके। भगवान आपको हमेशा हंसता हंसाता रखे और आप खुशियाँ बिखेरती रहें । बहुत अच्छी रचना है।आशीर्वाद

रंजना said...

KYA KAHUN...ABHI TO ITNI ABHIBHOOT HUN,KI ABHIVYAKTI KO KOI SHABD PAKAD NAHI PAA RAHI..THODI STHIR HOKAR AATI HUN FIR SE..

गौतम राजऋषि said...

सचमुच सुंदर बन पड़ा है गीत।
"मैं किसी की प्रार्थना में हूँ न हूँ शामिल भले ही,
पर मेरी हर प्रार्थना, शुभकामना सबको मिले ही।
हो न हो मेरे लिये आँखें किसी की नम यहां पर,
पर सभी के पीर पर नम हो मेरी आँखें पिघल कर।
मैं सभी के अश्क ले कर मुस्कुराना चाहती हूँ।"

ग्लोबल हो गया ये गीत इस अंतरे की बदौलत।

वैसे "टेशन" अखर रहा है...पूरे गीत के सुंदर लिबास में एक अजीब से बाहर निकले धागे की तरह। कोई और शब्द नहीं आ सकता क्या यहाँ?

डॉ .अनुराग said...

घोर कंचन इश्टाइल का गीत......लगा किसी खास मूड में लिखा है .....मुझे तुम मुस्कराती ज्यादा भाति हो .....ये भी सच है मूड हमेशा एक सा नहीं रहता ....तुम्हे नहीं जानता तो कहता ..सेंटिया गयी है लड़की .....पर तुम तो हमेशा सेंटीयाई रहती हो ....खून में जो है ....

वैसे मुझे लगता है टेशन वार्ड का इस्तेमाल जान बूझ के किया गया है .शायद आप इस पे टोर्च फेके ...

Manish Kumar said...

दिल की भावनाओं से सना एक प्रवाहपूर्ण गीत !

कंचन सिंह चौहान said...

@ अज्ञात इतनी अच्छी तरह से उत्साह बढ़ाने वाला भी अज्ञात ???

@श्वेता अभी नया सफर जिन्होने जिंदगी का शुरू उनके लिये ये कविता प्रतिबंधित है, इसलिये तुम्हारी प्रशंसा स्वीकृत नही हुई।
@वाणी जी आपके कमेंट के पीछे जा कर एक अच्छी कविता से परिचय हुआ..! यूँ आप सबों का साथ ही तो खिलखिलाने पर विवश करता है
@कुश मैने विरह की बात कहाँ की है जी ??
@वीर जी आप पर आरोप लगाया जा सकता है कि आपकी अनुजा को बगल वाले डॉ० साब ज्यादा समझ रहे हैं :)

@सही कहा डॉ० साब इस टेशन को इन्ही मात्राओं के साथ मंजिल में तब्दील किया जा सकता था, मगर मुझे अपनी मंजिल के साथ लोगो का अपने अपने स्टेशन पर उतर जाना ही लिखना था।

अब साथ ही यह भी बताती चलूँ कि ये कविता किसी आदर्शवादी सोच को प्रदर्शित करने के लिये नही लिखी गई बल्कि मन में दबी कई दिनो की भावनाओं का संयोजन था। शार्दूला दी और रंजना दी जैसी बड़ी बहनों के लगातार प्रश्नो का उत्तर और सन् २००२ के लगभग किये गये किसी संकल्प की बात थी। डॉ० साब की पिछली पोस्ट पर आये पहले कमेंट से ज़रा डरी हुई हूँ तो अधिक आत्मविवेचन नही करूँगी

रंजना said...

छूट जाने के लिये ही मीत जब सारे मिले हैं,
दिल जलाने के लिये ही दीप जब सारे जले हैं,
क्यों न फिर जलते हुए इस दिल की लौ रोशन करूँ मैं,
और उस लौ से किसी के दिल के तम को अब हरूँ मैं।


इस तरह जलते हुए मैं जगमगाना चाहती हूँ।

इस अकेलेपन में भी मैं खिलखिलाना चाहती हूँ।

Pata hai,laakh riston ka bheed ho aas paas ,par apne soch vichar aur vyaktitv ke saath vyakti ekakee hi hua karta hai hamesha...lekin badi baat yah hai ki is prakaar ka sankalp sablog nahi le paate.
Tumhara sankalp aur man ki yah akanksha shat pratisht poorn ho,yahi dua hai..

neera said...

आमीन! समक्ष हो जो लिखा उसे निभाने में....

Himanshu Pandey said...

गीत बहुत ही सुन्दर बन पड़ा है । पूरी कविता को पढ़ने पर लगा कि कुछ और सुन्दर लिख सकती थीं आप यह पंक्ति - "और उस लौ से किसी के दिल के तम को अब हरूँ मैं।" - ’के’, ’के’ और ’को’ की आवृत्ति ने मुझसे यह कहलवाया, और फिर बाद में ’अब’ के प्रयोग ने भी !

गौतम जी की बात से इत्तिफ़ाक है कि ’टेशन’ अखर रहा है ! सायास प्रयोग किया है तब तो और भी अखर रहा है । अनायास प्रयुक्त हुआ है तो जाने दीजिये - अनायास जो निकले सच्चा है ।

के सी said...

कंचन जी, बेहद सुंदर गीत है मुझे अपने कॉलेज के दिन याद आ गए जब इस तरह के गीत खोजा करता था. इन गीतों को सहेजने के लिए कितनी ही बार कई डायरी बनाई वे हर बार आठ दस पन्नों के बाद रुक जाया करती थी. आज आपके इस गीत के साथ मुझे किशोर कल्पनाकांत याद आ गए. उनसे आपका परिचन न होना स्वाभाविक है किन्तु वे राजस्थानी भाषा के शीर्ष गीतकारों में मेरी पसंद के कवि थे. कभी लिखूंगा उनके बारे में तब आप देखना कि आपका गीत भी किसी वरिष्ठ और चहेते कवि के समतुल्य ही है.

पारुल "पुखराज" said...

ख़ूब सुन्दर भाव/पंक्तियाँ /पूरा गीत

अजित गुप्ता का कोना said...

बहुत खूब। अकेलेपन में खिलखिलाती रहें, हम सब आपके साथ हैं।

पंकज सुबीर said...

बहुत अच्‍छा गीत गढ़ा है किन्‍तु इसमें एक शब्‍द टेशन खटक रहा है । ये परिमल काव्‍य का शब्‍द नहीं है । तुम्‍हारा ये गीत परमिल काव्‍य है और परिमल काव्‍य में कोई भी कठोर शब्‍द या खटकने वाला शब्‍द नहीं लिया जाता । इस शब्‍द को किसी उचित पर्यायवाची से प्रतिस्‍थापित कर दो ताकि इस सुंदर गीत का सौंदर्य दोबाला हो सके ।

गौतम राजऋषि said...

डा० साब की तो सब की नब्ज़ों पर पकड़ रहती है बहना...किंतु देख लो दो और धुरंधरों ने मेरा समर्थन किया है।

कंचन सिंह चौहान said...

गुरु जी की आज्ञा और बहुमत के आधार पर टेशन वाला बंद बदल दिया गया है। ये बंद शार्दूला दी द्वारा सुझाया गया है

@ वीर जी तीसरे धुरंधर का नाम भी बता दूँ ..खुश हो जाइये, शार्दूला दी ने सबसे पहले इसके लिये टोका था।

Ankit said...

बहुत अच्छा गीत है, पहला और दूसरा बंद तो खासकर,
गीत पढ़कर ऐसा लग रहा है, आप ख़ुद ही इसे सुना रही है
मगर ये "टेशन" शब्द वाला बंद कहाँ बदला है, मुझे नहीं दिखाई दिया.......................अरे अभी तुरंत ही बदला है, अभी दोबारा रिफ्रेश किया तो दिखा. अब ठीक है, अब कुछ नहीं खटक रहा.

पंकज सुबीर said...

कमेंट बड़ा हो रहा था इसलिये दो खंड में दे रहा हूं ( प्रथम खंड )
पंक्तियों पर और मेहनत करो कुछ और प्रतीक लाओ रेल और पटरी ये प्रतीक घिसे पिटे हैं सिक्‍स्‍टीज़ की फिल्‍मों में कई बार प्रयुक्‍त हो चुके हैं । मेरे विचार में तुमने परिमल काव्‍य की श्रेष्‍ठ पुस्‍तक दादा बच्‍चन की निशा निमंत्रण नहीं पढ़ी है । यदि गीत लिखने हैं तो परिमल काव्‍य को पढ़ना होगा ताकि हमको पता चल सके कि परिमल काव्‍य के शब्‍द कौन से हैं और कौन से नहीं हैं । कंचन जानती हो कविता और श्रोता का एक बहुत ही महत्‍वपूर्ण रिश्‍ता होता है । श्रोता जब कविता सुन रहा होता है तो वह एक प्रकार के रस सम्‍मोहन में होता है । ये रस सम्‍मोहन उसको धीरे धीरे दुनिया से खींच कर एक दूसरी दुनिया में ले जाता है । वो दुनिया जहां पर केवल रस होता है । श्रोता को इसीलिये रसिक भी कहा जाता है । और अचानक जब कोई शब्‍द ऐसा आ जाता है जो उस काव्‍य में खटकता है तो श्रोता का रसभंग होता है, रस सम्‍मोहन टूट जाता है और वो दूसरी दुनिया से एकदम धड़ाम से आकर यहां पर गिरता है । इसके बाद आप चाह कर भी उसे फिर रस सम्‍मोहित नहीं कर सकते । इसीलिये कहा जाता है कि कविता और दाल में कंकड़ कभी नहीं आना चाहिये । दाल को बनाने से पहले और कविता को सुनाने से पहले अच्‍छी तरह से बीन लेना चाहिये कि उसमें कोई कंकड़ तो नहीं है । दाल का कंकड़ खाने वाले का दांत तोड़ देता है और कविता का कंकड़ सुनने वाले का रस तोड़ देता है । और तिस पर भी ये कि परिमल काव्‍य तो होते ही हैं नाज़ुक उसमें तो कंकर की गुंजाइश होती ही नहीं है । काव्‍य एक ऐसा श्रव्‍य साहित्‍य है जो लिखने वाले के लिये नहीं होता बल्कि सुनने वाले के लिये होता है । हमारी कविता हमारी कभी नहीं होती है । वो तो श्रोताओं की हो जाती है । कंचन तुम्‍हारे में एक जिंद है कि मैं तो ऐसा ही लिखूंगीं, इसमें कुछ नहीं बदलना चाहती ये जिद साहित्‍य में नहीं चलती ।

पंकज सुबीर said...

( द्वितीय खंड )
तुलसी दास ने भले ही लिखा हो कि स्‍वांत: सुखाय रघुनाथ गाथा' लेकिन कोई कवि स्‍वांत: सुखाय नहीं लिखता । हम श्रोताओं के लिये लिखते हैं और श्रोताओं का रसभंग न हो इसका हमें ध्‍यान रखना ही चाहिये । कविता जब सुनी जाती है तो धीरे धीरे वो कान से ह्रदय और फिर आत्‍मा तक जाती है । किन्‍तु ये सफर कविता धीरे धीरे तय करती है । कभी श्रोता को ध्‍यान से देखना । वो आपके गीत का मुखड़ा कान से सुनता है । यदि मुखड़ा अच्‍छा लगता है तो वो पहला अंतरा दिल से सुनता है और यदि पहला अंतरा पसंद आ जाता है तो अगला अंतरा वो आत्‍मा से सुनता है और चौथे अंतरे तक वो आपकी कविता के साथ एकाकार हो चुका होता है । तब वो सम्‍मोहन में होता है तब उसके लिये आप कुछ नहीं होत उसके लिये वो स्‍वयं भी कुछ नहीं होता । कुछ शब्‍द होते हैं जो आत्‍मा की वीणा को ढंकृत करते हुए गुज़र रहे होते हैं । और उस वीणा के स्‍वर में वह हवा से हल्‍के उठते हुए आसमान की सैर कर रहा होता है । उस बीच में कहीं कोई कंकर आता है तो वो उस आसमान से सीधा ज़मीन पर आ गिरता है । कवि वही होता है जो श्रोता के कानों से दिल और दिल से आत्‍मा तक का सफर बिना किसी विघ्‍न बाधा के पूरा कर लेता है । नहीं तो कैफ भोपाली सहब का कहना था कि हमें किसी डाक्‍टर ने पर्चा नहीं लिखा है कि एक कविता सुबह एक दुपहर एक शाम लिखो । इतना पूरा इसलिये लिख रहा हूं कि इतना सुंदर गीत इतना भावप्रवण गीत तुम्‍हारी जिद के कारण खराब हो रहा है क्‍योंकि तुम एक छंद के कारण गीत की हत्‍या कर रही हो । ( और ये तुम अक्‍सर करती हो ) । साहित्‍य में सर्वश्रेष्‍ठ ही होता है यहां श्रेष्‍ठ पर कुछ नहीं होता है । जब आपके शब्‍द लोबान के धुंए की तरह रूह के आस पास होते हैं तो आपकी कविता सार्थक होती है । तुम तो लखनऊ की हो तुम्‍हें तो पता होगा कि इत्र की दुकान पर भूल कर भी कोई दुर्गंध वाली वस्‍तु नहीं रखी जाती है । कहा जाता है कि उससे सुगंध दूषित हो जाती है । वही हाल कविता का भी होता है । कविता में भी भूल कर भी कोई ऐसा
भाव या शब्‍द नहीं होना चाहिये जो हमारी कविता के दूसरे बहुत सुंदर भावों, शब्‍दों तथा छंदों पर प्रभाव डालता हो । क्‍योंकि कविता एक सामूहिक प्रभाव की वस्‍तु है । यहां एक छंद सुंदर होने से कुछ नहीं होता । तुम्‍हारी समस्‍या ये है कि तुम लखनऊ की होने के बाद भी केवड़े, खस, गुलाब, चंदन के इत्रों की शीशी के बीच नाले का पानी भी भर कर रख देती हो और फिर जिद करती हो कि नहीं मैं तो इसको भी साथ में बेचूंगीं जिसको लेना हो तो ले नहीं तो आगे बढ़े । विजय बहादुर जी को कोट कर रहा हूं वे कहते हैं कि कविता में एक भी शब्‍द ग़लत होता है तो कविता भरभरा की गिर जाती है वो खड़ी नहीं रहा पाती । कविता में अतिरिक्‍त तथा ग़लत इन दोनों ही प्रकार के शब्‍दों के लिये गुंजाइश नहीं होती है । आगे से ध्‍यान रखना ।

Pushpendra Singh "Pushp" said...

उत्तम रचना
आभार

कंचन सिंह चौहान said...

पठन, मनन और चिंतन साथ साथ कर रही हूँ। सोच रही हूँ बिनु हरि कृपा मिलहि नहिं संता के आधार पर हरि कृपा तो मुझ पर बहुत है। अन्यथा धृष्ट प्रवृत्ति जानने के बावजूद क्यों इतनी लंबी सीख देते मुझे आप। ये रिश्ता तो कुछ कुछ काकभुशुंडी और उनके गुरु जैसा हो गया है। आपने जो कहा वो शत प्रतिशत सच है, जाने कैसे ये एक प्रवृत्ति है जिसे मैं खुद समझ नही पाती। मैं कभी भी इतनी रिजिड किसी बात को ले कर नही होती जितना अपनी रचना को ले कर हो जाती हूँ। साथ ही यह भी जानती हूँ कि गलत भी हूँ अगर सच पर व्यक्ति दृढ़ हो तो कोई बात भी है, मैं कविता के मामले में गलत पर रुक जाती हूँ।

आगे से ध्यान रखूँगी।

वैसे तो आपकी आज्ञा के अनुसार बंद बदल दिया था, फिर भी अब आप ही बतायें कि यहाँ क्या सही होगा ?

आपकी शिष्या सह
छोटी बहन

गौतम राजऋषि said...

ha ha...i am enjoying it!

Anonymous said...

haan ..kanchan ..is baar mein hi hoon...:-)
aur aap mujhe aise hi achhhi lagti hain gungunati..khilkhilati..muskurati....kavi kavi lagta hai aapse miloon..
naina

Udan Tashtari said...

बेहतरीन रचना!! अच्छा लगा पढ़ कर.

"अर्श" said...

हलाकि मैं इस गीत के भाव के बारे में बात करने वाला था , मगर जैसे निचे आया कमेंट्स पढ़ा तो लगा अब क्या करूँ, और संकोच में हूँ के क्या कही जाए गुरु जी ने सही कहा है और उनकी बातें सर आँखों पर मगर मुझे लगता है के गौतम भाई को शुरुयाती कमेन्ट में गीत के भाव पर ही बात करी चाहिए थी बशर्ते टेंशन पर टेंशन लेकर... खैर जब ये बात आयी तो सिखने को भी बहुत कुछ मिला... मगर नब्ज उन्हें समझ जानी चाहिए थी.... समझ नहीं पता हूँ कभी कभी आपको ... इस गीत के जन्म के बारे में बिस्तार से जानना चाहता हूँ मगर,,, सबके सामने नहीं ... इन सभी बातों के लिए शब्द नहीं मिल पा रहे हैं क्या लिखूं असमंजस में हूँ... :) :)


अर्श

स्वप्न मञ्जूषा said...

कंचन जी,
कविता हृदयंगम बनी है...जैसा कि सभी कह रहे हैं...थोड़ी सी सेंतियाई हुई है...
लेकिन हम तो वैसे भी सेंटी प्लस मेंटल हैं...हा हा हा हा..
सुन्दर कृति आपकी..
धन्यवाद ..!!

कंचन सिंह चौहान said...

अर्श तुमने सिर्फ दूसरों की बात की अपनी नही..... अपनी राय कभी दूसरो की राय निर्भर नही होनी चाहिये.....! गुरु जी और गौतम भाई की जो राय थी उन्होने बिना किसी की परवाह किये लिखी। तुम्हे भी ऐसा ही करना चाहिये था .....

अदा दी आपके सेटी प्लस मेंटल पर अकेले कमरे में खिलखिला रहे हैं

Akanksha Yadav said...

इस अकेलेपन में भी मैं खिलखिलाना चाहती हूँ।
....ap khilkhilayen aur apni rachnaon se hamen bhi khilkhilane ko majbur kar den...umda prastuti !!

SAMEER said...

didi ye jo aapke guru ji hai na hye mere saab kuch hai mere dost mere bade bhai mere god father. or aap unko aapna bhai manti ho or wo bhi aapko aapni choti si bahan samjhte hai. to aap mere badi sis to ho hi gaye ,me aapke me bhaiya se sunta rahta hu kyoki unke sabse karib me hi hu. kuch bhi baat hoti hai to wo sabse pahle mujhey hi batate hai . or vaise mera regular blog http://sameerpclab2.blogspot.com/ yaha hai wo dusre to bas aise hi hai.vaise mera ghar ka naam sonu hai .orignal name surendra hai or bhaiya ne sameer rakha hai.....

Anonymous said...

@ सोनू उर्फ़ समीर उर्फ़ सुरेन्द्र
अरे भाई कितने नाम हैं कुछ और हों तो वो भी बता दो, इतने नाम रख के क्या करोगे, समीर ही रहने दो वो अच्छा है, क्योंकि समीर- हवा का झोंका

कंचन सिंह चौहान said...

अरे अभी जीवन में नये नये आये मेरे छोटे भाई को ले कर ये कौन से अज्ञात सज्जन मजाका कर रहे हैं ? कहीं ये भभ्भण कवि भौचक्के तो नही कल से ही परेशान कर रखा है इन्होने लोगो को़।

Razi Shahab said...

छूट जाने के लिये ही मीत जब सारे मिले हैं,
दिल जलाने के लिये ही दीप जब सारे जले हैं,
क्यों न फिर जलते हुए इस दिल की लौ रोशन करूँ मैं,
और उस लौ से किसी के दिल के तम को अब हरूँ मैं।
aap to badi achchi shayari karti hain...pahli baar blog par aaya hoon dil kush ho gaya padhkar...thanx for dis khoosrat poetry....

Unknown said...

पंकज सुबीर जी
वो आपके गीत का मुखड़ा कान से सुनता है । यदि मुखड़ा अच्‍छा लगता है तो वो पहला अंतरा दिल ....
इत्र की शीशी‍यों के उदाहरण वाली टिप्पणी भाव विभोर कर गई।
(कंचन दी! संभव हो तो pls forward it to Pankaj ji)