Monday, December 27, 2010

गया साल.. एक नज़र और आने वाले की शुभकामना....!


देख रही हूँ कि ब्लॉग लेखन के मेरे आँकड़ें कम से कमतर होते जा रहे हैं। २००७ से कम २००८ में, २००८ से कम २००९ में और २००९ से कम २०१० में...! मात्र २३ पोस्ट.. इस पोस्ट को मिला कर।

सोच रही हूँ कि गिरिजेश जी का आईडिया मुझे पहले क्यों नही आया और मैने क्यों नही रखा अपने चिट्ठे का नाम "एक आलसी का चिट्ठा।"

वर्ष भी कुछ अजीब सा ही रहा...! पारिवारिक रूप से बेहद खराब....! साहित्यिक उपलब्धियों की दृष्टि से काफी अच्छा...! याद आ रहा है २००१ की डायरी का अंतिम पन्ना, जिस वर्ष नौकरी मिली थी और संदीप छूटा था " कुछ सपने सच हो गये, कुछ सच सपने हो गये।"

यह साल भी कमोबेश वैसा ही था। मंच पर कविता करना, पत्रिकाओं में छपना, संपादको की प्रशंसा के पत्र पाना, पाठकों की कॉल पर बातों मे अति विनम्र होने के बावजूद कहीं खुशी से कुप्पा होते जाना, कथाक्रम में गुरू जी के साथ उन सब लेखको से रूबरू होना और जो हीरो लगते थे। (धन्यवाद गुरू जी), डॉ० विजय बहादुर जी का स्नेह भरा हस्तलिखित पत्र और चित्रा मुद्गल जी की नेह भरी बात में बार बार अहसास दिलाना कि तुम स्त्री हो और स्त्री अगर असल मिट्टी की बनी है तो सूक्ष्म दृष्टि इनबिल्ट होती है....! वो चीजें हैं जो तब तक याद रहेंगी, जब तक स्मरण शक्ति रहेगी।

मगर फरवरी में माँ का अचानक सोडियम कम हो जाना और लगना कि जाने अब क्या होगा ? मार्च से भईया की बीमारी शुरू होना, अप्रैल अंत तक वैंटिलेटर और मई की पहली तारीख को कूच...! अभी दिमाग उससे उबरा भी नही था कि जून में छोटी दीदी को कैंसर थर्ड स्टेज डायग्नोज़...! उधर अभी उनका रैडियशन खतम ही हुआ, रिपोर्ट कुछ आये इससे पहले सितंबर में माँ को कॉर्डिक अटैक....!! इन सब में बार बार डॉ० अनुराग को फोन किया Thanks Dr. saab for your mental support.

किसी पंडित ने कहा था कि लग्नेश शनि सप्तम खाने में सूर्य के साथ बैठ कर जिंदगी में सुख दुःख एक साथ लायेगा...! दुःख यूँ आये कि सुख के कारण रोना हल्का पड़ जाये तो ठीक..मगर सुख यूँ आये कि दुःख के कारण ठीक से हँस भी ना पायें तो ठीक नही खुदा...! सुनो ! अब से वैसा करना जैसा मैने कहा, दुःखों के पीछे सुख देना आँसू की तादाद कम करने को... बाकी कुछ नही। समझे..!!

एक गज़ल जो पिछली साल नये वर्ष की तरही पर गुरू जी के ब्लॉग पर लग चुकी है़ और कुछ बोल्ड पंक्तियों को पढ़ें तो लगेगा कि सारे साल की गतिविधियों के पूर्वाभास के साथ लिखी गई है

किसे कब हँसाये, किसे कब रुलाये,
ना जाने नया साल क्या गुल खिलाये।

समय चक्र की गति भला कौन जाने,
किसे दे बिछोड़ा, किसे ये मिलाये।

वो आते ही क्यों हैं भला जिंदगी में,
जो जायें तो भूले नही हैं भुलाये

नही काठ की, माँस की पुतलियाँ हम,
वो जब जी हँसाये, वो जब जी रुलाये।

रहम वीणापाणि का इतना हुआ है,
के हम भी अदीबों के संग बैठ पाए

मेरी ज़िद थी माँ से माँ की खुदा से,
जो अंबर का चंदा ज़मी पे नहाये।

कि ये साल होगा अलग साल से हर,
यही इक दिलासा हमें है जिलाये।

जो आँखौं के आगे नमूदार हो तुम,
तो खाबों को उनमें कोई क्यों बुलाये।

गली वो ही मंजिल समझ लेंगे हम तो,
जो जानम से हमको हमारे मिलाये।

वो अफसर थे सरकारी पिकनिक पे उस दिन,
गरीबों को मैडम से कंबल दिलाये।

लिहाफों, ज़ुराबों में ठिठुरे इधर हम,
उधर कोई छप्पर की लकड़ी जलाये।

इस वर्ष की अंतिम पोस्ट...! नव वर्ष खूब सारा उत्साह, उपलब्धियाँ, मानसिक शांति और प्रेम ले कर आये सबके जीवने में, इस शुभकामना के साथ, मिलते हैं एक नवीन दशक में।

Wednesday, December 8, 2010

तुझे सब है पता.... है ना माँ !


माँ ना जाने कब से नाराज़ होती थी ? याद नही ...!

इसलिये नही याद कि तब बहुत सारे कवच थे, बाबूजी, दोनो दीदियाँ और मेरी सबसे बड़ी भाभी। इन सब के बीच गर्मियों में दोपहर १२. ३० और सर्दियों मे शाम के लगभग ३.३० बजे मिलने वाली माँ का गुस्सा याद नही...!

बहुत छोटे पर जब अपनी बात पूरी ना होने पर अपने ही बाल उखाड़ने का झूठा नाटक करती थी तब अक्सर सबके हँस देने के बाद एक दिन माँ का डण्डा ले कर बैठना कि अब अगर सारे बाल नही उखाड़ लोगी, तो मार खाओगी....! वो याद है अब तक।

और तो बस ज्यादा याद नही। याद तब से है जब मैं और माँ दोनो ही बदलाव के दौर से गुजरे। ९० में, जब मेरी टीन एज यूँ ही मुझमें बहुत सारे परिवर्तन कर रही थी, उसी समय दीदी की शादी के साथ मेरे पहले प्रेम का विछोह और बाबूजी के जाने से मेरे अचानक कवच रहित हो जाने के साथ ही माँ भी बहुत बड़े परिवर्तन से गुजर रही थी।

उनका सबसे बड़ा संबल...! उनका जीवन साथी...! अचानक बिना कुछ कहे सुने अपनी अबूझ यात्रा पर जाने को ऐसे तैयार हुआ कि लाख सिर पटकने, लाख वास्ते देने, लाख यादें दिलाने पर भी रुका नही।

मैने अपने माँ बाबूजी जैसा जोड़ा अब तक नही देखा। सुना है जब माँ का रिश्ता लेकर नानाजी अपने सिंगापुर के दोस्त के घर अच्छी पढ़ाई कर रहे (उस समय और उस क्षेत्र के अनुसार) उनके बेटे के लिये गये थे, तो ये सोच कर रिश्ता लौटा दिया गया था कि लड़की नौकरी में है और लड़का पढ़ रहा है अभी। और तब बाबूजी ने अपनी भौजाई, मेरी बड़ी माँ से कहा कि वो जो आये हैं, उन्हे हाँ कह दो, उनकी लड़की जवार में सबसे पढ़ी लिखी है, और बगिया तक गये नानाजी को रोक लिया गया था।

मेरी होशदारी में अम्मा जाने कौन कौन से उलाहने देतीं और बाबूजी के सिर पे जूँ तक रेंगती नही दिखती। अम्मा कहती रहती "इसने ये कहा, उसने वो कहा और आप कुछ नही बोले।" बाबूजी चुपचाप सुनते सुनते अचानक कहते " किरन ! खाने की क्या पोज़ीशन है?" या फिर " साढ़े सात बज गया,टी०वी० चलाओ न्यूज़ आ रही होगी।" और माँ कहती " किसी को अपनी बात कहनी हो, तो जाये दीवाल से कह ले, पेड़,पल्लव से कहले लेकिन इन से ना कहे।" बाबूजी को तब भी फरक नही पड़ता।

और जब बाबूजी नाराज़ होते तो अम्मा की मनावन। उनकी नाराज़गी का सिंबल था, तमतमाये चेहरे के साथ शर्ट की बाँह डालना, यानी बाबूजी गुस्से में घर छोड़ के जा रहे हैं (मन मेरा भी यही होता है गुस्से में) बस अम्मा का पीछे लग जाना। "अरे अब बस। ठीक है। सुनिये तो।"

दोनो की अपनी अपनी कमाई और महीने के हिसाब की दोनो की अलग डायरी। बाबूजी की डायरी में लिखा होता १० पैसा गुड्डन को और अम्मा की डायरी में २५ पैसे की मूँगफली। दोनो के आय और व्यय दोनो के सामने क्लीयर। और कभी कभी किसी हिसाब के फँस जाने पर हम इंतज़ार करते कि कब याद आयेगा इन्हे वो २ रुपये कहाँ खर्च हुए और कब हम लोगो को खाने की हरी झंडी मिलेगी।

दो पीढ़े लगते थे। अम्मा बाबूजी अगल बगल फिर भईया लोग और अक्सर मैं बाबूजी की थाली में।

और वो पीढ़े ७ फरवरी, ९० को अंतिम बार साथ लगे। अम्मा ने उस जगह पर दोबारा आज बीस साल हो गये खाना नही खाया।

तो बदलाव मुझमें और माँ दोनो में साथ साथ आया। हम दोनो के साथी छूटे थे। माँ को जिम्मेदारियाँ निभानी थी और मुझे जिंदगी। शाम से वो छत पर चली जातीं या दरवाजे पर, जिधर से बाबूजी आते उधर देखती रहतीं।

कभी कभी मुझ पर बहुत ज्यादा गुस्सा हो जातीं। मुझे लगता कि ये ठीक नही है। उन्होने समझा ही नही कि मैं क्या कहना चाहती थी। वो बिना समझे नाराज़ हो गई। इतना ज्यादा...?? मैं रोती..! कॉपी के बीच के पन्ने पर बाबूजी से, भगवान से बाते करती .... आज भी उन पर आँसुओं से बिगड़े हुए एक आध अक्षर मिल जायेंगे।

मगर तब मैं और माँ दोनो अकेले थे। दोनो को एक दूसरे का सीधा सामना करना था। बीच में कोई नही।

माँ मुझे बिलकुल बिगड़ने देना नही चाहती थी। ईश्वर ने इतनी बेकार जिंदगी खुद ही दी थी उनकी बेटी को (उनके अनुसार) उस पर स्वभाव भी बिगड़ गया तो ...?? जुबान में लोच बिलकुल भी नही...! कोई इसका साथ कैसे देगा ? पहले तो इतना मीठा बोलती थी कि राह चलते आदमी को मोह लेती और अब इतनी कड़वी जुबान हो गई है।

उनके और मेरे बीच का मुख्य मुद्दा यही था। मैं कहती मैने सही बात कही। और वो कहती यही बात कहने का तरीका अलग होना चाहिये था। वो कहती "ऊषा,किरन कभी इस तरह नहीं बोलतीं।" मैं कहती "मैं ऊषा किरन नहीं हूँ ।"

मुझे अजीब सी चिढ़ होती। छोटी छोटी बातें..! समझती हीं नहीं। अरे पंखा पाँच से अचानक तीन पर कर देने का क्या मतलब है ? कितना बिजली का बिल बच जायेगा ? जब मुझे नही लग रही सर्दी तो क्यों पहनूँ स्वेटर ? फुल स्वेटर..? इतना मोटा सा ? काटता है वो मुझे ? और हाफ स्वेटर पहनने का क्या मतलब हैं अंदर आखिर ? वो पहनो ना पहनो ?? एक ही बात है। " थोड़ी देर खुली हवा में रहो।" अरे नही है मेरा मन खुली हवा में रहने का। मुझे कोर्स पूरा करना है। अचानक लाईट बंद कमरे की। "जब पढ़ नही रही तो लाइट न जलाओ, दिन में इतना उजाला बहुत है।" हद है....। भाभी और मेरी आपस में अडरस्टैण्डिंग है तो, वो तो कुछ नही कहतीं। फिर भी बीच पढ़ाई में "तुम सब्जी काट लिया करो और चावल बीन लिया करो, किसी को ये ना लगे कि तुम बैठी रहती हो।" अरे इतने लोगो में जरूरी है क्या कि मैं हाथ लगाऊँ ?

छोटी छोटी बाते...! और हमेशा नसीहतों का कटोरा। मुझे समझती हीं नही वो।

लेकिन बड़ी बड़ी बातें...! उनमें लगता कि वो बहुत समझदार हैं। मैं अपनी डायरी में क्या लिखती हूँ, उन्होने नही पूछा। मेरी किताबों की तलाशी नही ली। मेरे नाम से आने वाले लेटर, उन्होने कभी नही खोले और सीधे मेरे पास पहुँचाये। मैने खुद जो भी बताया हो कि फलाँ ने ये लिखा है, उन्होने सब सुन लिया। मेरे लिये आने वाले फोन पर डायरेक्ट मुझे बुला कर कभी वहाँ नही रुकीं। घर में रिश्ते-नातों, जानने वालों मे कौन सिर्फ मेरे लिये आता है, उन्हे बहुत अच्छी तरह से पता था। उन्होने उन्होने बहुत समझदारी से मुझ पर होल्ड बना कर मुझे फ्री छोड़ रखा था। मुझे तब भी ये पता था। और अब भी ये लगता है कि अपनी सोच विकसित कर सकने में उनका ये साथ बहुत मायने रखता है। मैं जब अपनी उन सहेलियों, जिनकी माँ और उनमे २०- २५ साल का अंतर था के बीच की समझ में ये आभाव देखती तो ईश्वर को धन्यवाद देती कि ४२ साल के अंतर ने भी जनरेशन गैप की वो समस्या नही डाली मुझमें और उनमें।

वो जब मुझे डाँटती थी, तो मुझे बहुत गुस्सा आता, चिढ़ होती। लेकिन वो जब मुझसे नाराज़ होतीं, तो मैं सबसे ज्यादा परेशान होती थी जिंदगी में। क्योंकि वो तब बोलना छोड़ देती थीं।

मुझे याद है कि सबसे ज्यादा वो मुझसे ७ दिन तक नही बोली थीं। कोई ट्रिक नही चली थी। ना पुच्ची, ना गले में हाथ.. कुछ नही, छूने भी नही दे रहीं थी वो...! तब बहुत बहुत रो कर मनाया था उन्हे, वो भी तब जब मेरे भाग्य से मुझे बुखार आ गया था। इस बात ने मुझे कुछ प्वॉईंट दे दिये थे।

अभी उस दिन फिर मैने फोन पर बहुत गलत तरीके से बात करी थी उनसे। "क्या अम्मा! आप हर बात मौसी से बता देती हैं।" ये बात कही थी लेकिन सच में बहुत हार्सली कही थी. मुझे पता था कि वो गुस्सा हो ही जायेंगी। फिर भी..!

मै बहुत चिड़चिड़ी हो गई हूँ आजकल। इसीलिये कोशिश करती हूँ कि कम से कम फोन उठाऊँ। इसका सारा दोष मैं अपनी बीमारी को, थोड़ा सा आफिस के माहौल को, कुछ भागदौड़ वाली जिंदगी को देती हूँ, मगर खुद को कभी नही। आदमी किसी भी बुरे काम के लिए खुद को कब दोषी मानता है ?

फोन रखने के बाद पता चल गया था कि अब अम्मा नही बोलेंगी मुझसे। दीदी और भाभी से जायज़ा लिया, तो पता चला कि मैं सही हूँ। मुझे वो सात दिन याद आ गये। मगर तब तो माँ साथ में थी। अब तो कभी कभी ४-५ दिन बात भी नही होती। चलो, १० को पहुँचूँगी कानपुर तो मना लूँगी सोच कर छोड़ दिया। वैसे भी वो फोन पकड़ेंगी ही नही, मेरा जानकर।

मगर रात में नींद खुली तो याद आया "अम्मा गुस्सा हैं।" फिर नींद नही आई।

शनिवार , रविवार वो गजब व्यस्तता...! मगर बार बार याद आया कि अम्मा गुस्सा हैं। खुद को समझाया बस आज रविवार है और शुक्रवार को तो पहुँच कर मना ही लूँगी। सोमवार अमित की शादी..! २ बजे लौटना ही हुआ। रास्ते में फिर भाभी से पूछा " अम्मा गुस्सा है ना ?" और उनको ये बताते हुए खुद को फिर समझाया कि "१० को आएंगे तो वही मना लेंगे, अम्मा फोन तो पकड़ेंगी नही मेरा।" भाभी मुसकुरा दीं।

मंगल आफिस में सुबह से इतनी भी फुरसत नही मिली कि पूछ सकूँ कि भाभी कितने बजे निकली कानपुर के लिये। सात बजे तो घर ही पहुँची। मुँह धो कर ब्लोवर चला कर सामने बैठी और भाभी को फोन लगाया। अम्मा की आवाज़ पीछे से आ रही थी। मेरा फोन जानकर हट गई होंगी। मन और बेचैन हुआ माँ की आवाज़ सुनकर। एक ट्राई मारते हैं। भाभी से कहा फोन अम्मा को दो..! फोन अम्मा ने नही पकड़ा गया। " कह दो कह फिर से मिला लेंगे क्या फायदा।" मैने धमकी दी। हिमांशी ने फोन उनके कान में लगा दिया। पीछे से आवाज़ आई " बुआ आप बोलिये हम फोन कान मे लगाये हैं।"

"मम्मा..मम्मूऽऽ..! नाराज़ हैं आप हमसे ? मॉम...! हम तो ऐसे ही हैं। हमेशा से दुष्ट रहे हैं। गलती हो गई। आप कि ही तो बेटी हैं। देखिये ना हमें अच्छा नही लग रहा। हम नही बोल पाते मीठा।"

" तुम सोती क्यों नही हो रात में? ऊषा कह रही थीं। अपना स्वास्थ्य खुद नही देखोगी तो कौन देखेगा? हमसे कहती हो मेरे विषय में न सोचो, तुम क्या सोचती हो ? दुनिया में बहुत से लोगो के साथ बहुत कुछ होता है, हम बस अफसोस करते हैं। मगर अपने बच्चो के साथ जो होता है, उससे हम दुखी होते हैं। ये कष्ट साँस के साथ जाता है।"



पता नही ये उम्र थी या बच्चों का प्रेम...! जो अब उन्हे ठीक से नाराज़ भी नही होने देती। वो अपने सारे बच्चों के स्वभाव के साथ एड्जस्ट करने की कोशिश कर रही है शायद ...!

और बच्चे ये जानते हैं की हमारे अलावा उनके पास कोई विकल्प नहीं है...! कल से बहुत बुरा लग रहा है...! अम्मा के नाराज़ हो जाने जितना ही...!

कि वो ठीक से नाराज़ क्यों नहीं हुई...?

Thursday, November 25, 2010

तुम्हे मुबारक़ रश्मि दूधिया चकाचौंध वाली


वो कहता है कि मैं दुनिया के लिये लिखती हूँ, कभी उसके लिये नही। जाने कितनी बार कहा है और मैं फिर भी नही लिखती। क्योंकि मैं अब भी नही समझ पाती कि उसके लिये कैसे लिखा जा सकता है, जिससे आपके २४ घंटे चलते हों। अम्मा अगर ७५ साल की ना हुई होतीं, तो उनके लिये क्या लिखती ? कैसे लिखती ? छोटे भईया के लिये, दीदी के लिये, किसी के लिये तो नही लिखा कुछ।

वो पिछले ७ सालों से मेरे सहारा है और पिछले तीन सालों से मेरा हमसफर।

उसके लिये उसका हमसफर तेजी से ढूँढ़ रही हूँ मैं। कल ही दो फोटो छाँटी हैं।

लो देखो ये गीत...! ये गीत जिसमे ऐश्वर्या तुम्हे इतनी सुन्दर लगी है कि बस इस गीत के लिए तुम पूरी फिल्म दुबारा देख सकते हो। (जैसा की तुमने कहा ) मगर एक बात... फिल्म देखते हुए मेरे रोने पर, मुझे बार बार मजबूत बनने की झिड़की देते हुए... धूप के चश्मे के साथ फिल्म देखूँगा का मजाक करते हुए आँखें छिपाने और इस असीम सौंदर्य से भरे गीत में बराबर रोते रहने के पीछे क्या था ? ऐश्वर्य की चंचलता में छिपा जीवन या हृत्विक की बेचारगी से भरा जीवन..... मायूसी किसने दी ???

जिसने भी दी। मुझे मेरे जितना समझने, मेरे आज को खूबसूरत बनाने का शुक्रिया... हाँ ये शब्द छोटा है, फिर भी, मेरे पास तुम्हे देने को इस औपचारिकता के अतिरिक्त कुछ है भी तो नही.....








ईश्वर करे कि अगले साल आज के दिन तुम युगल रूप से मेरे हमसफर रहो। तुम्हे खोना नही चाहती। तुम्हे बाँधना भी नही चाहती। Thanks God...! He gave me a Day when I can write little bit for You.

Happy Birth day...!!

नोटः पिछले तीन साल से जब से मैने अकेले रहने का निर्णय लिया मेरे दो हमसफर हैं। एक विजित.. मेरी दीदी का बेटा.. और एक ये पिंकू, अवधेश...! अब एक बिटिया भी आ गई है, परिवार में जो मेडिकल की तैयारी कर रही है.... और जिंदगी हँसी खुशी चल रही है। आज पिंकू के जन्मदिन के साथ...!!

Monday, September 27, 2010

नया तो तब हो "गर तुम लौट आओ.....!!"


लोग कहते हैं कि
अब मेरे लिखने में नही रही वो बात जो पहले थी।
कैसे बताऊँ उन्हे,
कि लिखना तो दर्द से होता है।
और मेरा दर्द तो बहुत पुराना हो गया है अब,
इतना ....
कि अब ये दर्द हो गया है साँसों की तरह सहज और अनायास।

चाहे जितनी भी असह्य पीड़ा हो,
आप कितनी देर तक चिल्ला सकते हैं उस पीड़ा से ?
कितनी तरह से कराह सकते हैं ?

अपनी पीड़ा व्यक्त करने के सारे के सारे तरीके तो कर चुकी हूँ इस्तेमाल।
कराहने के लिये प्रयुक्त हर शब्द तो चुकी हूँ उचार।
कितनी कितनी बार......!
कितनी कितनी तरह......!

और अब दर्द पहुँच गया है उस मुकाम पर,
जहाँ कुछ कहने से बेहतर चुप रहना लगता है !
या शायद कहूँ तो क्या ?
कुछ है भी तो नही नया......!!

सुनो....!!


अगर सुन रहे हो,


तो तुम्ही से कह रही हूँ
नया तो तब हो "गर तुम लौट आओ.....!!"



तमन्ना फिर मचल जाये अगर तुम मिलने आ जाओ

Saturday, September 11, 2010

वो छोड़ कर गये थे, इसी मोड़ पर हमें




होठों पर जिह्वा पर छाले,
टेर टेर कर हम तो हारे,
सब लौटे पर वो ना लौटे,
ऐसे छूटे छूटने वाले।

भीड़ भरी लंबी सड़कों पर, दूर तलक नज़रें हैं जातीं,
सब मिलते बस तुम ना मिलते, हूक भरी रह जाती छाती
लाखों लाखों मान मनौव्वल, सुबह शाम निशिदिन हर क्षण पल,
सब माने बस वो ना माने,
ऐसे रूठे रूठने वाले।

सारे सुख पर इक दुख भारी, जीवन की बस ये लाचारी,
सब रिश्ते नाते हैं झूठे, सच्ची है बस लगन तुम्हारी,
सीने सब कुछ है जर्जर, जोड़ रहे यादों के खण्डहर,
अब तक खुद को जोड़ ना पाये,
ऐसे टूटे टूटने वाले।

सूखी सूखी आँखों वाली, हँसती हँसती बातों वाली,
अंदर से कितनी सूखी है, ये बगिया हरियाली वाली,
बाहर की लकदक ना देखो,ऊपर की ये चमक ना देखो,
अंदर खाली वीराना है,
लूट गये सब लूटने वाले।

१३-०८-२००७


७ साल....!!! साथ भी तो इतना ही था....!!!! बल्कि विछोह ३६५ दिन का, साथ के दिनो मे तो साथ भी बस दिनो तक सीमित था.....!!!! हाँ मगर अहसास था, कोई है मेरी ताकत....


............................................................................................................................

यही तीज और गणेश चतुर्थी भी तो थी.......!!


गुनगुना रही हूँ ये गीत



फिल्म - साथी
गीतकार मज़रूह - सुल्तानपुरी
संगीतकार - नौशाद
गायक - मुकेश

Monday, August 23, 2010

मेरे भईया से कहना, बहना याद करे

यूँ कलाइयाँ तो हैं कई,
पर मानव मन,
ढूंढता है वही, जो खो गया कहीं





Monday, August 16, 2010

वो सारी चीजें जो तुमको रुलाएं भेजी हैं।


वो कहता था कि "रोने के बाद आँखें और अच्छी लगने लगती हैं आपकी।"

मैं कहती थी "इसीलिये तो वही काम करते हो जिससे मैं बस रोती ही रहूँ।"

वो बहुत दूर चला गया, मैं हर बार रोने के बाद खुद से ही कहती "तुमने जानबूझ कर ऐसा किया, तुम्हे मैं रोती ही अच्छी लगती थी....!" पता था कि वो यही कहीं है, कि वो सुन कर शरारत के साथ मुस्कुरा रहा होगा....!

मित्रता दिवस पर अमरेंद्र जी के फेसबुक पर गुलज़ार की ये लाइने पढ़ कर दिमाग में हलचल बढ़ गई

तुम्हारी खुश्क-सी आँखे भली नहीं लगती,
वो सारी चीजें जो तुमको रुलाएं भेजी हैं।


पूरी गज़ल भी उन्ही के सौजन्य से लिख देती हूँ। उल्लेखनीय ये भी है कि उन्होने पवन जी की पोस्ट से इसे जाना।

गुलों को सुनना ज़रा तुम, सदायें भेजी हैं।
गुलों के हाथ बहुत सी, दुआएं भेजी हैं।


जो अफताब कभी भी गुरूब नहीं होता,
हमारा दिल है, इसी कि शुआयें भेजी हैं।

तुम्हारी खुश्क-सी आँखे भली नहीं लगती,
वो सारी चीजें जो तुमको रुलाएं भेजी हैं।


सियाह रंग, चमकती हुई किनारी है,
पहन लो अच्छी लगेंगी, घटायें भेजी हैं।

तुम्हारे ख्वाब से हर शब लिपट के सोते हैं,
सज़ाएँ भेज दो, हमने खताएं भेजी हैं।


Monday, August 9, 2010

पलट के लौट भी आओ, ये कोई बात नही-‍एक ड्राफ्ट


हर चीज़ का अपना अलग आनंद है। इस बुखार का भी। खासकर तब जब ये वीक एण्ड में आया हो और बुखार का आनंद लेने के साथ जबर्दस्ती एक छुट्टी ज़ाया होने का दुःख ना साल रहा हो।

हरारत भरी देह....हलका सा सिर में भारी पन... कुछ तेज साँस.. अनुनासिक स्वर... नाड़ियों में धमक बढ़ी हुई... अँधेरे कमरे में अपनी धड़कनें स्वयं सुनना.. कुछ मित्रों से आँखें बंद किये ही बतियाना... कुल मिला कर बहुत दिनो बाद फुरसत... खुद के लिये..!

ऐसे में खरास भरी आवाज़ के धीमे स्वर खुद को भले लगते हैं।

लोगो को गलतफहमी है कि संगीत विषय लेने के साथ ही आवाज़ अच्छी होना एक दूसरे का पर्याय हैं। ऐसा शायद कुछ नही..! मैं अपनी लय के उतार चढ़ाव से कतई आश्वस्त नही रहती। इसीलिये कभी भी अपनी आवाज़ पोस्ट करने की हिम्मत नही की...!

मगर आज जब सब कुछ ड्राफ्ट ही है... बिना मतले... बिना अरूज़... बिना तकीतई के मीटर पर चढ़ी ये गज़ल जो अभी बस ड्राफ्ट ही है... ये भी नही निश्चित कि शेर में लमहे डालूँ या शमा... आइनों की दाद या दाद आइनों की..... तो सोचा ये ड्राफ्टेड आवाज़ भी डाल दूँ



हमें हमारे हवाले, जो तुमने छोड़ा है,
पलट के लौट भी आओ, ये कोई बात नही।

वो शम्मा, जिससे हमारी हयात रोशन थी,
उसी से हमको जलाओ, ये कोई बात नही।

खता हमारी बताओ, सज़ा की बात करो,
खमोशियों से सताओ, ये कोई बात नही।

तुम्हारे दम पे, सफर आसमाँ का साधा है,
कि साथ तुम ही ना आओ, ये कोई बात नही।

ज़माने बीत गये, दाद आइनों की मिले,
नज़र ना अब भी उठाओ ये कोई बात नही।

निशान रात के, जैसे हैं खूबसूरत हैं,
इन्हें भी दाग बताओ, ये कोई बात नही।

Sunday, August 1, 2010

सलामत रहे दोस्ताना हमारा


वो मुझसे आठ माह पहले आई थी उस मोहल्ले में और इस दुनियाँ में भी।

हम कब मिले ये हम दोनो को नही पता। माताएं मिलती होंगी तो हम भी मिल लेते होंगे।

मेरे घर में उसे बहुत तेज कहा जाता था। वो खूब चालाक थी और मुझे बहुत चीजों मे ब्लैकमेल कर लेती थी।

मेरी समवयस्क बाहरी दुनिया उसी से चलती थी। वो स्कूल के किस्से सुनाती, तो मैं भी कल्पना में स्कूल चली जाती। वो सहेलियों के किस्से सुनाती तो मैं भी कहती "अम्मा आज मेरी बहुत सारी सहेलियाँ आईं थी। बाहर खड़ी थी। स्कूल को बहुत देर हो गई थी आज।" माँ मेरे झूठ पर कभी पिघल जाती कभी मुस्कुरा देती।

अम्मा के सरकारी स्कूल में कक्षा पाँच के पहले अंग्रेजी नही पढ़ाई जाती थी। तो अंग्रेजी की वही किताब मँगाई जाती, जो उसके स्कूल में चलती। इस तरह मैं अन्य विषय में एक क्लास आगे थी, मगर अंग्रेजी में उसके साथ। क्योंकि अन्य विषय में क्लास पार करने का प्रमाणपत्र तो अम्मा को ही देना था ना। जब भी उन्हे लगता कि योग्यता मिल गई, तभी वे बिना सेशन कंप्लीट हुए ही रिज़ल्ट पकड़ा देतीं।

वो मेरे घर खेलने आती, मैं अपने सारे खिलौने उसे समर्पित कर देती। इसके बाद जब उसका मन ऊब जाता वो चल देती। मेरे मन डूबने लगता। मैं लाखों मान मनौव्वल करती उससे थोड़ी देर और रुक जाने के लिये।

उसकी कोई बात ना मानने पर झट वो खुट्टी कर लेती। मैं उसे मनाती रहती। वो गिल्ली डंडा खेलती, छुआ छुऔव्वल और मैं अपने गेट पर बैठ उसे मैदान में देखती। कभी कभी उसका ग्रुप मेरे घर में आ जाता और मेरे साथ बोल मेरी मछली या अपना साथी खोज लो खेलता। मगर उसमें भी वो हमेशा मुन्नी को अपना साथी बनाती।

मेरा एड्मीशन सीधे कक्षा ४ में हुआ। हमारे लड़ाई झगड़े वैसे ही थे। मैं अपनी दीदी को बहुत चाहती थी। वो मेरा पहला प्यार थीं। वो भी उन्हे बहुत चाहती थी। मुझे चिढ़ होती थी। दीदी मेरे समय में से उसको भी समय दे देतीं थीं। मेरा समय तो कम हो जाता था। मैने डिमॉण्ड कर के इतना सुंदर मिडी टॉप बनवाया था दीदी से और दीदी ने मुझसे पहले उसे पहना दिया। मैं तिलमिला गई थी। रो रो कर आँखें सुजा ली थी।

वो कहती अबकी मैं टोपी वाली फ्रॉक लूँगी, अबकी सीढ़ियों जैसी झालर वाली। मुझे वो सब चाहिये था।

हम दोनो अपने अपने बाबू जी की बात करते।
"मेरे बाबू तो मुझे मैना कहते हैं।"
" मेरे बाबू जी मुझे गुड्डन ही कहते हैं।"
"मेरे बाबू आज चाट खिला कर लाये।"
"मेरे बाबूजी ने डोसा खिलाया।"
"बाबू ने डाँट दिया था, तो मुझे पैसे दिये।"
"बाबूजी तो कभी डाँटते ही नही। कल मैं ही गुस्सा हो गई थी तो पैसे दिये मुझे।"

स्कूल छूट गया मैं इण्टर कॉलेज में आ गई और वो भी वहीं आ गई एक साल बाद।

दीदी की शादी हो गई। दीदी हम दोनो में कॉमन फैक्टर थीं। हम दोनो मिल कर चिट्ठी लिखते।

अचानक बाबूजी चले गये। सब आये वो नही आई। १३ दिन बीत गये...! मैं सोचती कि अब हम दोनो किसकी बात करेंगे। वो अपने बाबू के किस्से सुनायेगी तो मैं कैसे उससे बढ़ कर बताऊँगी। १४वें दिन वो जब आई तो मैने कहा " तुम आई नही" उसने कहा "मेरी हिम्मत नही हुई।"

हम दोनो शायद बड़े हो गये थे। उसने फिर कभी बाबू के किस्से नही सुनाये। वो बस मेरे किस्से सुनती थी। मेरे रोने में साथी बनती। मेरा हाई स्कूल था। दुनिया बदल रही थी। हम दोनो की दुनिया बदल रही थी।

संघर्षों का भी दौर शुरू हो चुका था। अपने अपने पारिवारिक और सामाजिक तनाव थे।

मेरी व्हीलचेयर और उसकी कुर्सी के पावे सटे होते। हम दोनो के सिर बहुत नजदीक होते और सारी सारी बातें खुसर फुसर में हो जातीं।

लोग मिसाल देते दोस्ती की। चाची झट से लोटे भर पानी उबार देतीं हम दोनो के सिर से।

हमारी अपनी अलग अलग सहेलियाँ थीं। मगर बेस्ट फ्रैन्ड हम दोनो थे।

फलाने की शादी के लिये गाने तैयार करना। सूट डिसाइड करना। मैचिंग्स इकट्ठा करना...! और फिर कोई देख के कुछ बोल दे तो आफत ना बोले तो आफत।

बुलौवे में हमारी जोड़ी विख्यात थी। उसकी ढोलक पर मेरा मंजीरा और मेरा गाना। हम दोनो एक दूसरे के बिना गाना नही शुरू करते।

हमारे सारे राज एक दूसरे तक पहुँच कर वहीं खतम हो गये।

वो घर से निकलती तो चप्पल की आवाज़ सुन कर पूछ लिया जाता "कहाँ चल दी, दोपहरी में।"
इस लिये वो चप्पल हाथ में लेती और दौड़ती हुई आ जाती। हाँफते हुए कहती " बहुत तेज तलब लगी थी तुम्हारी। तुम जान लोगी मेरी।"

इण्टर में मेरा आपरेशन होने के कारण मैने एक्ज़ाम ड्रॉप कर दिया। हम दोनो एक क्लास में आ गये।

हम दोनो का स्वाभाव बदल चुका था। मेरी बहुत सहेलियाँ बनती थीं। वो मुझसे खुश थी....! उसे दुनिया की बहुत परवाह थी। मुझे अपने परिवार से जस्टिफाईड होना था बस। वो कम बोलती थी, मीठा बोलती थी। मैं बहुत बोलती थी और ठेठ बोलती थी। तैयार हो कर निलने पर लड़कियों को फैशनी माना जाता था, वो अच्छी लड़की बन कर सिम्पल रहती। मुझे तैयार होना अच्छा लगता था।

मुझे लड़कियाँ बहुत सुंदर लगती थीं। मैं फ्री पीरियड में लगातार उन्हे देखती रहती। बहुत सुंदर लगने पर काम्प्लीमेंट भी देने से नही हिचकती। चाट खाते हुए मैने एक लड़की से कहा "आप बहुत सुंदर लगती हैं।"
उसने मुस्कुरा के धन्यवाद देते हुए कहा " आपकी सहेली भी तो बहुत सुंदर है।"

दोनो का पोस्ट ग्रेजुएशन कंप्लीट हुआ।

मेरी कविता उसके पल्ले नही पड़ती। कहानियाँ अच्छी लगती थीं उसे। दैनिक जागरण की कहानियों पर डिसकशन होता। गीत मैं डूब के सुनती। उसका कोई ऐसा मैटर नही था। उसे सलामत रहे दोस्ताना हमारा अच्छा लगता। हम आज भी बचपन की मोहब्बत को दिल से ना जुदा करना सुन कर एक दूसरे को फोन कर लेते हैं। मुझे हवाओं से प्रेम हो जाता था। उसे मुझसे था।

हम दो अलग मुहिम पे थे। मुझे नौकरी चाहिये थी। उसे घर बसाना था।

लोग कहते "बेचारी कंचन बहुत तेज है पढ़ने में।" वो कहती जब तेज है पढ़ने में तो बेचारी क्यों है। वो कहती मुझे तुम्हारे नाम के आगे से बेचारी शब्द हटाना है।

कारगिल युद्ध हुआ। हम दोनो ने अपने पैसे बचाये और चुपके से भेजे। इसी युद्ध के आखिरी दिन दो अच्छी खबरे मिलीं। एक राष्ट्र की विजय और दूसरा किसी के हृदय पर उसकी विजय। लड़के को वो बहुत पसंद आई थी।

मैं अपना जन्मदिन मना कर आपरेशन कराने चली गई। मेरा दूसरा आपरेशन हुआ। बहुत कष्टकारी था। वो फोन करती चिट्ठी देती। हौसला देती। मंदिर में जाती। हर शुक्रवार। वो एक पैर पर एक घंटे खड़े हो कर मेरे लिये ‍प्रार्थना करती। लोग कहते हैं उतनी देर उसके आँसू नही रुकते।

इधर अरेंज्ड मैरिज में लव पनपने लगा था। वुड बी का रोज फोन आता। मेरी कविताएं चिट्ठियों से मँगाई जातीं। गीत के अर्थ समझ में आने लगे थे। ऐसे समय में मैं दूर थी उससे। चिट्ठियाँ हाल ए दिल बयाँ करतीं।

वो मजाक करती " देखो बहुत जल्दी व्यवहार बनाती हो। मेरे मियाँ जी से ना बनाना। राखी पर मिलवाऊँगी तुमसे।" मै कहती "तुम्हे जितनी मेहनत करनी है कर लो बाकि हम दोनो के बीच का फाइनल तो जयमाल वाले दिन होगा।"

मैने अपनी संपत्ति एहसान के साथ ओमी जीजाजी को दे दी। उन्होने कृतज्ञ हो कर ले ली। वो माधुरी अग्निहोत्री से माधुरी त्रिपाठी हो गयी ।

अप्स एन डॉउन अब भी आते हैं। हम दोनो उसी तरह साथ होते हैं। किसी शादी में हम अभी २ साल पहले मिले मैने किसी से कहा " आप खुद जितनी सुंदर हैं, आपकी बेटी और बहू भी उतनी ही सुंदर हैं।" उसने पलट कर मुस्कुराते हुए कहा " आपकी सहेली भी तो बहुत सुंदर हैं।"

रात के ग्यारह बजे अब भी कभी कभी फोन आ जाता है " बहुत तेज तलब लगी थी तुम्हारी। तुम जान लोगी किसी दिन मेरी।"

चाहती थी वो कविता और डायरी का वो पन्ना भी शेयर करूँ जो उसकी शादी तय होने के बदलते मौसम में मैने लिखा था। मगर पोस्ट पढ़ने वालों की मेहनत बढ़ जायेगी।

उसकी कुछ लाईने यूँ थी

सर्दियों की धूप मेरी गर्मियों की शाम है,
वो मेरा सब कुछ है लेकिन आपके अब नाम है।
**********************************
क्या कहूँ बस लत है उसकी,
हाँ मुझे आदत है उसकी

जाते जाते वो कह गई थी "किसी और को शायद कम होगी मुझे तेरी बहुत ज़रूरत है।"

आज सुबह फोन पर मैने उससे कहा ३४ साल तो हो गये हमारी मित्रता के। उसने हँसे के कहा " अपने जीजाजी को ना बाताना। मेरी उम्र ३० के बाद बढ़नी बंद हो गई है.....! "

नोटः सोच रही थी कि शीर्षक "बहुत तेज तलब लगी थी तुम्हारी। तुम जान लोगी किसी दिन मेरी।" मगर अनुराग जी की उस नई पोस्ट के कारण बख्श दिया, जिसने पूरी रात जगाया।

Thursday, July 8, 2010

डॉ० कुमार विश्वास, गुरू जी और कवि सम्मेलन, नवोन्मेष महोत्सव भाग-२


तो २६ तारीख का आरंभ सुबह के पौने चार बजे से होता है। वैसे दिन का अंत भी २६ को ही रात २.०० बजे हुआ था, जब विजित और जीजाजी ने किसी का दरवाजा रात के १ बजे खटखटा के कहा "ज़रा अपना जनरेटर दे दें। बाज़ार में किराये पर मिल नही रहा सहालग के कारण और हमारे यहाँ सांस्कृतिक कार्यक्रमो में हिस्सा लेने आये कई मेहमान हैं।"

तब कहीं हम सब सो सके। अनूप जी और कुश ने ऐलान कर दिया था कि "यूँ भी हम तुम्हे ब्लॉग जगत पर ही नही झेल पाते, वहीं पर बिना पढ़े टिपिया देते हैं तो यहाँ तुम्हे सुनने का टॉर्चर कैसे झेलेंगे।"


खैर सुबह पौने चार बजे वीर जी को बस्ती जाना था। कुश और अनूप जी को छोड़ने और गुरू जी तथा अन्य कवियों को लेने।

और ये दिन था मेरी जिंदगी का एक बहुत विशेष दिन जिस दिन की कल्पना मैं मन में करती तो थी पर किसी से कहती नही थी। और इस दिन की शुरुआत इतने अच्छे और सभी अपनों के बीच होगी मैने सोचा नही था।

गुरू जी, नुसरत दीदी, मोनिका हठीला दी और रमेश यादव जी होटल पहुँचे। मुझे खबरें मिल रहीं थीं। होटल की व्यवस्था अच्छी नही थी उस समय। जबकि ये वहाँ का टॉप होटल था। मैं शर्मिंदा हो रही थी, खासकर नुसरत दी और मोनिका दी के लिये।
दिन में १२ बजे के लगभग अर्श आया और शायद दो बजे के इर्द गिर्द सर्वत ज़माल जी।

सर्वत जी का भी बड़ा योगदान था इस कवि सम्मेलन में। तैयारियाँ तथा फंड इत्यादि के संबंध में उन्होने मुझे बहुत सपोर्ट किया था। मेरे विशेष आग्रह पर ही उन्होने सिद्धार्थनगर आना स्वीकार किया था और अपने व्यस्ततम कार्यक्रम से समय निकाल कर आये भी।
सर्वत जी ने ही मेरे लिये पवन सिंह जी से बात की, जो कि गोरखपुर में एसडीएम हैं। पवन सिंह जी स्वयं तो मसूरी जाने वाले थे परंतु फिर भी सिद्धार्थनगर स्तर पर उनका विशेष सहयोग रहा।

वो पल भी आज ही आया जिसके लिये मैं हमेशा सोचती कि क्या रिऐक्शन होगा मेरा। गुरू जी से मिलना। मैं समझ ही नही पा रही थी कि क्या करूँ। पैर छू लूँ या हाथ पकड़ लूँ या बस चुपचाप खड़ी देखती रहूँ?

गुरू जी और सभी लोग घर पर भोजन करने आये तो मैने भी दर्शन किये।


दिन बहुत सारे तनावों मे गुज़रा। सब मेरे कारण परेशान थे, ये बात अब गुरूर दिलाती है पर उस समय आँसू ला रही थी। कुमार जी के आने की भी खबरों के उतार चढ़ाव मिल रहे थे। रास्त खराब था, लखनऊ से सिद्धार्थनगर तक का।

मगर शाम होते होते सभी समस्याओं का समाधान हुआ। sigh of relief baught a crucial headache with itself. मुझे लग रहा था कि मेरी बीमारी मुझ पर हावी होने वाली है, मगर दोनो दीदियों ने काउंसलिंग कर तुरंत दवा खिलाई और स्थिति सामान्य ओर बढ़ी।

कुमार जी से पहली मुलाकात शाम ७.३० बजे हुई, जब उन्होने कहा "खुश रहिये, हमेशा खुश रहिये। देखिये हम तो बस आप के लिये यहाँ आ गये। पंकज जी ने मुझसे कहा मेरी बहन के लिये सिद्धार्थनगर चलना है, तो मैने कहा आपकी बहन मेरी बहन और आ गया।"

गुरू जी ने कहा "ये बहुत डरी है।" तो वहीं कुमार जी ने आत्मविश्वास के साथ कहा " चिंता मत करिये। आपका प्रोग्राम हिट होगा, पूरी तरह हिट।" और इस आत्मविश्वास से कही बात ने असर दिखाया रात के १२ बजे। कार्यक्रम की भूरि भूरि प्रशंसा हुई।


कार्यक्रम का संचालन गुरू जी के हाथ में था।

शुरूआत मोनिका दीदी की सुरीली सरस्वती वंदना "प्यार दे दुलार दे, माँ तू सद्विचार दे" से हुई।

आगाज़ गुरुकुल टीम जिसे गूगल टीम का नाम मिल चुका था के विमोचन से हुआ।

वीनस जो कि अपने पर्फार्मेंस पर विशेष ध्यान दे रहा है ने अपनी गज़ल
"ना मुकदमा, ना कचहरी उसके मेरे बीच में,
फिर भी खाई एक गहरी, तेरे मेरे बीच में।"
सुना कर युवाओं की तालियाँ बटोरी। उसका एक शेर जो मुझे विशेष पसंद है

"गर चलूँगा तो पहुँच ही जाऊँगा मैं शाम तक
बस खड़ी है एक दुपहरी तेरे मेरे बीच में।

फिर बुलाया गया प्रकाश सिंह अर्श को। जिसका शेर


"हलक़ में अपनी ज़ुबान रखता हूँ,
मैं चुप हूँ कि तेरा मान रखता हूँ।
मेरी बुलंदियों से तू भी रश्क कर,
मैं ठोकर में अपने आसमान रखता हूँ।"

ये वो शेर था जिस पर फिर से युवाओं ने जम कर तालियाँ बजाईं।

अपनी ग़ज़लों से पत्र पत्रिकाओं में, अपनी लगन से गुरू जी के दिल में और अपने स्नेही व्यवहार से गुरुकुल से ब्लॉगजगत तक अपना स्थान बना लेने वाले गौतम राजरिशी (वीर जी) को जब बुलाया गया तो उन्होने

ना समझो बुझ चुकी है आग गर शोला न दिखता है
दबी होती है चिंगारी धुँआ जब तक भी होता है।



के बुलंद शेर से आगाज़ किया और विजित को तथा नवोन्मेष टीम को समर्पित करते हुए शेर कहा

चलो चलते रहो पहचान रुकने से नही बनती,
बहे दरिया तो पानी पत्थरों पर नाम लिखता है।

उन्होने चार गज़ले सुनाई और सारी ही ग़ज़लों की विशेष प्रशंसा हुई।

फिर मेरा नंबर था। मैने जो किया सो किया। मुझे वाक़ई कुछ याद नही। मगर वो बात जिस बात ने सुकूँ दिया वो थी कि बाद में नुसरत जी ने बताया कि "जितनी देर आप मंच पर थीं, आपके भईया भावुक होते रहे।" गौतम भईया ने बताया " तू मंच पर जितनी देर रही दीदी लोग सेंटियाई रहीं।" दीदी ने बताया "तुम्हारा पर्फार्मेंस शुरू होते ही तुम्हारे वीर जी ने मोबाईल आन कर के तुम्हारे बगल में रख दिया था। शायद संजीता को सुना रहे थे तुम्हे।" विश्वास साहब ने कहा "मैने तुम्हारे मिसरे नोट किये हैं, बहुत अच्छा कहा।" और दूसरे दिन गुरू जी ने जो कहा, जो किया वो गूँगे का गुण है, धीरे धीरे स्वाद ले रहीं हूँ मिठास अब तक मुँह में घुली हुई है।


और ये लो वीर जी एक के जवाब में दो दो फोटू ले आई हूँ गुरू जी के स्नेह से निहारते हुए.... जलन अब जा के कुछ शांत हुई ।





अब बारी थी वरिष्ठों की। मोनिका दी... बाद में भी और अब तक प्रशंसा सुन रही हूँ उनकी। उनको जनता की नब्ज़ की अच्छी पकड़ है।

बंद पलकें ना खुलें लब ना हिलें बात ना हो,
इससे अच्छा है, कभी कोई मुलाकात ना हो।



और बेगाना कोई अपना बना कर चला गया।

उनकी स्वरों पर अच्छी पकड़ है। और देखिये ना दोनो ही अखबारों ने उनकी ही फोटो लगायी है।

नुसरत जी.... अहा..क्या सुरीली, क्या नाजुक सी आवाज़ बख़्शी है ऊपर वाले ने उन्हे। बाँसुरी कहूँ या सितार...! उनका अंदाज़ ....

क्यों मेरा दर्द सहते रहते हो,
कुछ पुराना लिया दिया है क्या?

हर कोई देखता है हैरत से,
तुमने सबको बता दिया है क्या

दिल बहुत *मुज़महिल सा है नुसरत,
तुमने कुछ कह कहा दिया है क्या ?

*मुज़महिल- बुझा बुझा

और फिर


सँवर रहा है वज़ूद मेरा, बदल रहा है मिजाज़ मेरा,
है मेरे दिल पर मेरी हुक़ूमत, है मेरी मर्जी पे राज़ मेरा।

महिला जागृति पर उनकी इस नज़्म ने आगे की पंक्ति में बैठी महिलाओं को भाव विभोर कर दिया। सुना है पाक़िस्तान में ये गज़ल बहुत सराही गयी है।

आज़म खाँ की पंक्तियाँ



मुहब्बत की नुमाइश हो रही है,
मगर ज़ेहनों में साज़िश हो रही हैं।
फलक़ तू सतह अपनी बढ़ा ले,
मुझे उड़ने की ख्वाहिश हो रही है।

दर्शकों द्वारा विशेष सराही गईं।

और फिर रमेश जी के मधुर गीत, जिनमें


ये पीला बासंतिया चाँद, संघर्षों का ये दिया चाँद,
चंदा ने कभी रातें पी ली, रातों ने कभी पी लिया चाँद

गीत ने मुझे फुरसतिया जी की याद दिला दी। याद आया कि समीर जी के आने पर उनके घर की मेहफिल में ये गीत उनकी पत्नी द्वारा सुनाया गया था और जहाँ तक मुझे याद है कि उनके विवाह में इस गीत का विशेष योगदान है।

इसके बाद माइक डॉ० कुमार विश्वास ने संभाला और आमंत्रित किया हमारे गुरुवर को। जिन्होने कहा

बड़ी छोटी गुज़ारिश है महोदय।
फक़त रोटी की ख्वाहिश है महोदय

समुंदर, ताल नदियाँ आप रख लो,
हमारे पास बारिश है महोदय।


सुनाई और संचालन के साथ साथ ग़ज़ल में भी अपने सिद्ध हस्त का प्रदर्शन कर दिया।

और अब आये रौनक ए मेहफिल डॉ० कुमार विश्वास। जनता ने असीम उत्साह के साथ उनका स्वागत किया। कुमार जी के लिेये पूर्वाग्रह यूँ भी चलता ही है। कुछ मित्र शायद पहले से ही भरे बैठे थे, राजू श्रीवास्तव की तरह। एक निवेदन से नाराज़ हो गये और मुट्ठी भर लोगों ने लामबंद हो कर बहिष्कार करने की कोशिश की तो जनता ने उन्ही का बहिष्कार कर दिया। जनता एकजुट हो कर खड़ी हो गई और तालियाँ बजा कर कुमार जी से कहा " जो जाता है उसे जाने दें, आप जारी रखें।"

और फिर शुरू हुआ वो जादुई पाठ जो २ घंटे लगातार चलता रहा। कुमार जी ने खड़े होते ही कहा "आज मैं सिर्फ कविताएं सुनाऊँगा।" और ढेरों ढेर कविताएं। ना कुमार जी रुके ना श्रोताओं की तालियाँ।

उस डगर पर मुझे वो छोड़ गया,
कब्र आई है घर नही आया।
वो जो कहता था जान दे दूँगा,
जान दे दी पर नही आया।

रोज़ हम उससे मिन्नते करते
रोज़ वो वायदा भी करता था।
रोज़ हम सबसे यही कहते थे,
उसको आना था पर नही आया।

अब बताईये इस साधारण सी बात पर कौन नही तालियाँ बजायेगा।



खुद से भी मिल ना सको, इतने पास मत होना,
इश्क़ तो करना मगर देवदास मत होना,
देखना, चाहना, माँगना या खो देना,
ये सारे खेल हैं इनमें उदास मत होना।



बस्ती बस्ती घोर उदासी, पर्वत पर्वत खाली पन,
मन हीरा बेमोल बिक गया, घिस घिस रीता तन चंदन,
इस धरती से उस अंबर तक दो ही बात गज़ब की है,
एक तो तेरा भोला पन है, एक मेरा दीवानापन।

सब अपने दिल के राजा हैं, सबकी कोई कहानी है,
भले प्रकाशित हो ना हो पर, सबकी प्रेम कहानी है,
बहुत सरल है पता लगाना, किसने कितना दर्द सहा,
जिसकी जितनी आँख हँसे है, उतनी पीर पुरानी है।
मै भाव सूची उन भावों की, जो बिके सदा ही बिन तोले,
तन्हाई हूँ हर उस खत की, जो पढ़ा गया है बिन बोले
हर आँसू को हर पत्थर तक, पहुँचाने की लाचार हूक,
मैं सहज अर्थ उन शब्दों का जो सुने गये हैं बिन बोले।

जो कभी नही बरसा खुल कर हर उस बादल का पानी,
लवकुश की पीर बिना बाँची, सीता की राम कहानी हूँ।


जिनके सपनो के ताजमहल, बनने के पहले टूट गये,
जिन हाथों में दो हाथ कभी आने के पहले टूट गये,
धरती पर उनके खोने और पाने की अजब कहानी है,
किस्मत की देवी मान गये, पर प्रणय देवता रूठ गये,
मैं मैली चादर वाले उस कबिरा की अमृतवाणी हूँ

कुछ कहते हैं मैं तीखा हूँ, अपने ज़ख्मो को खुद पीकर,
कुछ कहते हैं मैं हँसता हूँ अंदर अंदर आँसू पीकर
कुछ कहते हैं मैं हूँ विरोध से उपजी एक खुद्दार विजय,
कुछ कहते हैं मै रचता हूँ खुद में मर कर खुद में जी कर
लेकिन मैं हर चतुराई की सोची समझी नादानी हूँ।

ये एक बानगी है। और फिर ढेरों ढेर मुक्तक। कुछ गज़लें और वो गीत तिरंगा

शोहरत ना अता करना मौला, दौलत ना अता करना मौला,
बस इतना अता करना चाहे, ज़न्नत ना अता करना मौला
शम्म-ए-वतन की लौ पर जब क़ुर्बान पतंगा हो,

होंठो पर गंगा हो, हाथों में तिरंगा हो।

कह कर जब बैठे तो जनता ने शोर मचा मचा कर फिर से वापस बुला लिया, वो पगली लड़की गीत सुनाने के लिये। जाने कौन कौन सी परिस्थितियों के गान के बाद कथन

तब उस पगली लड़की के बिन जीना दुश्वारी लगता है
और उस पगली लड़की के बिना मरना भी भारी लगता है।

अब भी सब कुछ ज़ुबान पर है।

गौतम राजरिशी जी की पोस्ट पर ढेरों प्रतिक्रियाएं आईं। तटस्थ और निरपेक्ष मूल्यांकन ना करने के आरोप भी। मगर हम क्या करें जो हमने उस दिन देखा सुना, उसे मात्र इसलिये ग़लत ठहरा दें क्योंकि लोग कहते हैं कि ऐसा नही होता। कैसे मान जायें हम कि कुमार विश्वास मात्र दो मुक्तको के वीडियों की प्रसिद्धि का भाग्य खेल मात्र हैं, जब हमने वो दोनो मुक्तक कई कई बार के जनता आग्रह पर सुने। कुमार जी ने वायदा किया था कि वो आज सब नया सुनायेंगे। पर जनता ही नही भूलती भ्रमर और कुमुदिनी को तो कोई क्या करे ?

हम ने भी सुना था बहुत कुछ कुमार जी के बारे में मगर जब दिख ये रहा था कि वो मुझसे स्नेह से पूछ रहे थे "क्या खिलायेगी लड़की आज मुझे ?" अर्श की चुटकी ले रहे थे प्रेम कहानियों पर। गौतम भईया से कह रहे थे " गौतम अगर मैं प्रधानमंत्री बना तो तुम्हारे गुरूजी को वित्तमंत्री बनाऊँगा। पचास रूपये का काम पाँच रुपये में करवा लेते हैं।" इतनी सहजता से सब से वार्ता करने वाले शख़्स को कैसे अहंवादी बता दें ? क्या कह दें कि हमने जो देखा सुना वो सच नही है, इसलिये क्योंकि दूसरों ने कभी ये रूप नही दे़खा।




मैं खुद जानती हूँ कि उस सिद्धार्थनगर के वरिष्ठजनों ने उन्हे कितनी बार बुलाया है और वो नही आये। वो सारे वरिष्ठ जन स्वतंत्र है कुमार जी के खिलाफ खड़े होने को, मगर मैं कैसे खड़ी होऊँ, जबकि मुझ जैसी अदना लड़की के कहने पर वो उतनी दूर चले आये और कैसे चले आये ये भी जानती हूँ मैं।
और फिर वो रात के तीसरे पहर के कुछ पहले से आरंभ हुई और भोर तक चली बैठक...


मैं ही नही पूरा घर सम्मोहित था। दीदी, भईया, भाभी सब बैठे थे दालान में। कुमार जी ने कितनी किताबों से, कितने शायरों, कवियों, लेखकों के कितने शेर, कविताएं उद्धरण सुनाये। कुछ हिसाब नही उसका। उन्होने खुद कहा ये आज की संध्या थी ही साहित्य के नाम। पूरे चाँद की रात और कुमार जी पूरे मूड में।

आलोचक कुमार जी की आलोचना करें या हमारी मुग्ध स्थिति की। हमने जो पाया, उसे हमेशा की तरह बाँट रहे हैं आपसे। मै पिछले तीन महीने से गमों के दौर से गुज़र रही थी, मैने तब भी आप से साझा किया। आज खुश हूँ तो फिर से साझा कर रही हूँ।

सिलसिला ए शुक्रिया

और अब लाखों लाख बार धन्यवाद देने का मन हो रहा है, इस आनंद के पीछे जुड़े लोगों को। माँ शारदा तु्म्हे प्रथम धन्यवाद ! तुमने ही सारे संजोग रचे।


धन्यवाद इस ब्लॉग जगत का, जिसने मिलाया गुरू जी आपसे। धन्यवाद गुरू जी आपका। मुझे शिष्या के साथ बहन बनाया और गुरू की तरह बड़प्पन ना दिखा कर अग्रज की तरह सहारा दिया। मुझे उनसे मिलाया जिन तक मैँ कभी पहुँच ही नही सकती थी। धन्यवाद मेरे गुरु भाईयों को। वीर जी तुम्हें। ४८ घंटे में तुम २ घंटे सोये। वक्त पड़ने पर भारतीय सेना का ये मेजर बहन की प्रतिष्ठा के लिये किस हद तक झुका, वो मुझे आपका ॠणी बना गया। अर्श थोड़ी सी डाँट के बाद धन्यवाद तुम्हे भी। देर से आये मगर जब से जब तक रहे समर्पित रहे। सर्वत जी आपको। नुसरत दी, मोनिका दी, रमेश जी और आज़म जी कार्यक्रम को पारिवारिक समारोह का नाम देने और समस्याओं की उपेक्षा करने हेतु। कुश तुम्हे एक अच्छे मित्र की भूमिका निभाने हेतु और अनूप जी आपको हमें पहले दिन झेलने और दूसरे दिन ना झेलने हेतु। सर्वत जी और पवन जी को विशेष सहयोग देने हेतु

सिद्धार्थनगर के प्रेम को जिसने ये दुस्साहस करने की शक्ति दी।

और फिर अपने ही परिवार के हर एक सदस्य को जिसने हर बेवक़ूफी पर साथ दिया और प्रोत्साहन भी.....


और अंत में माँगूगी आशीर्वाद अपने इस बच्चे विजित के लिये, जिसने अच्छे अंक और अच्छा कालेज पाने के बाद भी एम०बी०ए० की पढ़ाई इस लिये छोड़ दी क्योंकि मेरे दीदी जीजाजी अकेले थे घर पर और मेट्रोपॉलिटन शहर के स्थान पर चुना अपना विकासशील जिला कार्यक्षेत्र बनाने को।

इसके ईमानदार प्रयासों को आपका स्नेह और आशीष चाहिये

Thursday, July 1, 2010

कुश और नाटक भारत की तक़दीर, पढ़िये नवोन्मेष महोत्सव-२०१० भाग-१

जिंदगी का मेरा सब से बड़ा अनुभव जो रहा है वो ये कि मेरे सारे अच्छे और बुरे सपने अचानक सच हो जाते हैं। और दोनो में ही मेरे ज़ुबान पर बस एक वाक्य रहता है कि "अरे ये कैसे हो गया।"
ऐसा ही एक स्वप्न था ये नवोन्मेष महोत्सव

मुझे याद है २५ अगस्त की वो तारीख जिस दिन विजित ने इस संस्था के लिये एक नाम पूछा था और मैने कहा था नवोन्मेष। इस के लिये जब प्रथम कार्यक्षेत्र चुनने की बात हुई तो हम दोनो ने चुना सिद्धार्थनगर, जो कि दिसंबर १९८९ में स्थापित ऐसा जनपद है जिसका शहरीकरण तो तेजी से हो रहा है मगर कला एवं संस्कृति की प्रगति वैसी नही है जैसी हमारे अनुसार होनी चाहिये थी।

कलाकार और कलप्रेमी हर जगह होते है, ये हमें अच्छी तरह पता था। बस ज़रूरत थी उन्हे खोज के एक दूसरे तक पहुँचाने की।

विजित ने निश्चय किया कि वो सुदूर ग्रामीण इलाकों से २० बच्चों को चुन कर उनके अंदर की नाट्य प्रतिभा को बाहर लायेगा। मुझे उसका ये निश्चय अत्यधिक चुनौतीपूर्ण मगर ईमानदार और कला के प्रति समर्पित लगा।

इसी बीच जनवरी की किसी तारीख को मन में आया कि क्यों ना सिद्धार्थनगर में उसी समय एक कवि सम्मेलन का आयोजन भी कर लें। विचार के साथ ही मोबाईल की बटन दब गयी गुरु जी से संपर्क करने को। क्योंकि मुझे सिर्फ विचार करना था उस विचार का निष्पादन गुरु जी के अतिरिक्त कोई कर ही नही सकता था मेरे लिये। गुरुजी ने एक बार भी मुझे हतोत्साहित नही किया और कहा "हाँ कर लो ना।"

और उस विचार के आने और पूर्ण निष्पादन के मध्य कितनी कितनी बाधाएं आईं ये तो मैं और मेरे प्रियजन ही जानते हैं।

सीहोर में आयोजित कविसम्मेलन में जा कर मुझे और विजित को एक ले आउट तैयार कर लेना था। विजित की नाट्य कार्यशाला को ७ मई से शुरु हो जाना था़ मगर इसी बीच बड़े भईया अचानक वेंटीलेटर पर ऐसे गिरे कि फिर उठे नही। ये था वो बुरा स्वप्न जो अचानक सच हो गया था और मेरी ज़ुबान पर वाक्य था "अरे ये कैसे हो गया"

बहुत बड़ा झटका था मेरे और परिवार के लिये। विजित की कार्यशाला ७ की जगह १७ मई को शुरु हुई। मैने कवि सम्मेलन को रद्द कराने का निश्चय कर लिया। उस समय तो कोई कुछ नही बोला मगर फिर परिवार के लोगों और गुरु जी ने समझाया कि सिद्धार्थनगर और अन्य जनपदों में इस कार्यक्रम के पोस्टर लग चुके हैं और ऐसे में कार्यक्रम को रद्द करने का मतलब संस्था की पहली ही छवि खराब करना है।

तैयारियाँ शुरु हो गईं। हमें अपने पहले प्रदर्शन में किसी भी प्रकार की कमी नही छोड़नी थी।
पहला काम था बीस बच्चों कि स्थान देने वाली एक तगड़ी स्क्रिप्ट। लोग कई थे मगर मैं अपने निजी अनुभवों पर काम करना चाहत थी। इसके लिये मुझे जो नाम पर सब से अधिक विश्वसनीय लगा वो था कुश। कुश मेरा वो मित्र है जो बात करते समय जितना बेतकल्लुफ और मजाकिया रहता है। रचनाओं में उतना ही संजीदा रहता है।

विजित ने कुश से बात की औ‌र कुश ने हमें स्क्रिप्ट दी नाटक "भारत की तकदीर" की।

निदेशन का जिम्मा खुद विजित ने अपने मित्र रोहित सिंह के सहनिदेशन में संभाला।


सच है कि मुझे अपने उस २२ साल के भांजे की प्रतिभा पर शक हुआ और मैने किसी मँजे हाथ को बुलाने का आग्रह किया उससे। मगर उसने कहा " मौसी मुझे पर भरोसा रखिये।"


दूसरा और कठिन काम था कविसम्मेलन का। कठिन इसलिये कि इस के लिये हमें अधिक और मँजे लोग चाहिये थे जो कि कवि सम्मेलन को जमा सकें और सिद्धार्थनगर की जनता को असल कवि सम्मेलन का चस्का लगवा सकें। साथ ही ज़रूरत थी निधि की जो एक नवोदित संस्था के लिये सिद्धार्थनगर जनपद के प्रशासन और व्यक्तिगत संस्थानों से निकालना टेढ़ी खीर था जो कि खैर अंत तक बना ही रहा।

गुरुकुल के अपने भाइयों पर तो भरोसा था ही मुझे मगर कुछ नाम ऐसे भी चाहिये थे जो मंच के लिये नये ना हों। खैर उसमें मुझे तो कुछ करना नही था। मैने सारा ज़िम्मा गुरु जी पर छोड़ दिया था। गुरु जी ने मुझे बताया कि उन्होने मोनिका हठीला जी, नुसरत जी और रमेश यादव जी से बात कर ली है बाकि "एक नाम जो तुम कह दो मैं उसे बुला दूँ।" मुझे लगा कि अच्छा समय है वरदान माँगने के लिये और मैने झट से कहा "गुरूजी जिससे कवि सम्मेलन की बात करो वो कुमार विश्वास का नाम सबसे पहले लेता है। क्या वो आ सकेंगे ?"

अब गुरू जी क्या करते उन्होने कहा " आ तो जायेंगे, मगर वो भारत में हैं कहाँ अभी।" कुमार जी उस समय अमेरिका गये हुए थे। और संजोग देखिये कि जब हमें लिस्ट फाइनल करनी हुई उसी दिन कुमार जी का फोन गुरु जी के पास आ गया अपनी वापसी खबर के साथ।


गुरु जी ने किससे क्या कहा मुझे नही पता। बस ये पता है कि सभी मंचीय कवि उस छोटे से जनपद में आने के लिये तैयार थे।

कार्यक्रम के ठीक १२ दिन पहले छोटी दीदी ने भी ऐसा बड़ा झटका दिया कि जिंदगी १ हफ्ते के लिेये तो ठहर ही गई। खैर वहाँ तो स्थिति संभल गई। जिन जिन मित्रों को मैने आशंकाओं से दुःखी किया था उनके लिये सूचना है कि स्थिति खतरे के बाहर है।

तो अब शुरु करती हूँ दास्तान ए नवोन्मेष महोत्सव :-

कथा का आरंभ २५ जून से होता है जिसमें श्रीमान कुश वैष्णव द्वारा लिखे गये नाटक "भारत की तकदीर" का मंचन और जनपद स्तरीय मीडिया सम्मान समारोह का आयोजन होना था।
श्रीमान कुश चूँकि पहली बार उत्तर प्रदेश का भ्रमण करने निकले थे अतः कुछ डरे सहमे से थे इसके लिये उन्होने खुर्राट शहर कानपुर के खुर्राट ब्लॉगर श्रीमान अनूप शुक्ला उर्फ फुरसतिया की शरण ली और प्रदेश की राजधानी से उनका साथ कर सिद्धार्थनगर जनपद की ओर प्रस्थान किया।
सिद्धार्थनगर की जनता को पिछले पंद्रह साल से मैने मौसी कहला कहला कर बहुत त्रस्त किया है। पूरे जनपद को मुझसे बदला लेने के लिये सही दिन मिल गया था। रात्रिकालीन बेला से ही विद्युत् कर्मचारियों ने वो हाथ खींचा कि इन्वर्टर इत्यादि सब के पसीने छूट गये साथ देने में और उन्होने चिढ़ कर हमारे पसीने निकलवाने शुरु कर दिये।

११ बजे श्रीमान कुश और श्रीमान अनूप जी पहुँचे हमारे घर हमने उन्हे पसीने की ठंडक से खूब ठंडा रख कर उनका भव्य स्वागत किया।

गौतम भइया सहरसा से और वीनस इलाहाबाद से पूर्व में ही प्रस्थान कर चुके थे। गौतम भइया की ट्रेन थोड़ी देर से आई वीनस की थोड़ी पहले। इसलिेय दोनो को एकदूसरे का साथ मिल गया और दोनो ही ने सिद्धार्थनगर की धरती पर साथ साथ कदम रखा। १ बजे तक गौतम भइया और वीनस भी सिद्धार्थनगर में थे।
हम सब जब मिले तो भूल गये कि कि घर में कोई और भी है। अनूप जी के अनुसार लाइट "नाइस" टिप्पणी की तरह झलक दिखा कर चली जा रही थी और कुश के अनुसार गौतम भईया और वीनस मॉडरेशन की टिप्पणियों की तरह बड़ी देर में प्रकट हुए।
खैर हम चारों को इकट्ठा देख जाने क्यों लाइट आ गयी और कम से कम इन सब यात्रा से आये बंदों को पसीने के बाद पानी से भी स्नान करने का मौका मिला।
हमने सोचा कि इतनी दूर से आये हैं तो खाना भी खिला दें तो खाना खिलाया।
और कुछ देर अपनी अपनी रचनाएं भी झिलायीं ( चूँकि कल कोई सुनेगा या नही इसका कोई भरोसा नही था।)







अब वक़्त आ गया था नाटक भारत की तक़दीर के मंचन का। हमने गौतम भईया, वीनस और कुश को आडिटेरियम भेज कर अपनी अस्थाई प्लास्टिक सर्जरी की जिससे लोग असली शक्ल समझ ना पाये और पहुँच गये भारत की तक़दीर देखने।


सिद्धार्थनगर का मुख्यालय ही अभी बहुत अधिक विकसित नही हुआ है़, उसमें अविकसित गाँवों से लिये गये २० ग्रामीण बच्चों को पॉलिश कर जो अभिनय क्षमता निकलवाई गई थी, उसकी सभी ने भूरि भूरि प्रशंसा की और प्रशंसनीय थी कुश की स्क्रिप्ट जिसने बीसों बच्चों के साथ न्याय किया। नाटक समाज में फैली भिन्न भिन्न कुरीतियों पर था। जिसे भारत की तकदीर मिटाना चाहती थी। तक़दीर बनी बच्चियों ने बहुत ही उम्दा अभिनय कर के पूरे डेढ़ घंटे आडिटोरियम को तालियों से गुँजाये रखा। तकदीर का कथन " मैं..? मैं भारत की तक़दीर हूँ। मैं बदलना चाहती हूँ।" रोंगटे खड़े कर देता था।






अनूप जी को तो कुश की प्रस्तुति इतनी पसंद आई कि उन्होने एक बार पलक झपकाये बिना पूरा मंचन देखा
तो ये था घटना क्रम २५ जून के नाट्य कार्यक्रम का अगली किश्त में पढ़िये कहानी २६ जून के कवि सम्मेलन की... तब तक के लिये....



क्रमशः