Friday, September 12, 2008

ना ले के जाओ, मेरे दोस्त का जनाजा है,


वो गीत जो चलता रहा मेरे मन में मेरे आँसुओं के साथ, वो गीत जो एक दिन यूँ ही पूरे दिन सुनने के बाद ऐसे ही डर गई थी कि कभी किसी के साथ ये सत्य हो जाये तो क्या होगा और पूरी रात क्या दो दिन नही सो पाई थी.... वो गीत जो सिसकियों के साथ जुबान पर आया जाता था उस दिन...! शायद सुना हो तुमने भी...!




ना ले के जाओ, मेरे दोस्त का जनाजा है,

अभी तो गर्म है मिट्ती ये जिस्म ताज़ा है,

उलझ गई है कहीं साँस खोल दो इसकी,

लबों पे आई है जो बात पूरी करने दो,

अभी उमीद भी जिंदा है, ग़म भी ताज़ा है

ना ले के जाओ, मेरे दोस्त का जनाजा है,
अभी तो गर्म है मिट्ती ये जिस्म ताज़ा है,


जगाओ इसको गले लग के अलविदा तो कहूँ,

ये कैसी रुखसती, ये क्या सलीका है,

अभी तो जीने का हर एक ज़ख्म ताजा है

ना ले के जाओ, मेरे दोस्त का जनाजा है,
अभी तो गर्म है मिट्ती ये जिस्म ताज़ा है,

Monday, September 8, 2008

पर सुलगती ये अगन, फिर भी धधक कर जल न पाई।

अपने रिश्तों की चिता पर एक लकड़ी और आई,
पर सुलगती ये अगन, फिर भी धधक कर जल न पाई।

निम्नता लो, उच्चता लो,
इक कोई स्तर बना लो।
और उस स्तर पे थम के,
फिर मुझे अनुरूप ढालो।
रोज का चढ़ना उतरना, अब थकावट पग में आई,
और मंजिल की तरफ, पग भर नही कोई चढ़ाई।

इक नये व्यक्तित्व के संग,
पूँछते हो "कौन हो तुम ?"
"क्यों भला निश्शब्द हो तुम,
क्यों भला यूँ मौन हूँ तुम"
ये विलक्षण रूप लख कर, अल्पता शब्दों में आई।
और तुम फिर पूँछते हो, बात क्या मुझसे छिपाई।।

क्यों न हम इक काम कर लें,
तनिक रुक आराम कर लें।
थक गई हैं भावनाएं,
कह दें कुछ विश्राम कर लें।
और नये कुछ तंतु ले कर फिर करें इनकी बिनाई।
अब नया एक जन्म ढूँढ़ें, बहुत भटकन आह! पाई।

Wednesday, September 3, 2008

प्रतिष्ठित कवि अशोक लव का ब्लॉग


११ अगस्त था हमारे आफिस में हिंदी कार्यशाला का दिन, जिस की प्रतीक्षा आफिस में तो लोगो को बेसब्री से होती है, मगर मेरे लिये बहुत थकावट भरा कार्यक्रम हो जाता है। पूरे दिन की भागदौड़ के बाद जब कार्यशाला खतम हुई तो सोचा कि एक सरसरी निगाह मेल पर डालती हुई चलूँ। चेक करती हूँ तो पाती हूँ कि १४ मई को की गई मेरी पोस्ट सुनो आतंकवादियों पर कोई कमेंट आया है। कमेंट रोमन में था जिसे मैं देवनागरी में लिख रही हूँ

"आपके माध्यम से मुझे अपनी कविता पढ़ने का अवसर मिला, मैं नही जानता था कि नासिरा जी ने अपने उपन्यास में मेरी अधिकार काविता उद्धृत की है। आपका आभारी हूँ। नासिरा जी से मेरे पारिवारिक संबंध रहे हैं। उनके दोनो बच्चे मेरे विद्यार्थी भी रहे हैं। उनका भी धन्यवाद..! जिन पाठकों ने कविता की प्रशंसा की है उनका भी धन्यवाद।
अशोक लव, ०८.०८.०८, ashok_lav1@yahoo.co.in"

आपने जिसकी कविता पसंद की हो वो ही आपकी पोस्ट पर कमेंट कर रहा हो तो आप समझ ही सकते हैं कि क्या अनुभूति होती है उस वक्त। लेकिन मुझे तुरंत घर निकलना था।

दूसरे दिन मैने अशोक जी को मेल से लंबा सा धन्यवाद दिया और खत-ओ-क़िताबत का सिलसिला चल पड़ा।

कविता,लघुकथा,पत्रकारिता एवं शिक्षा जगत से से संबंधित अनेकानेक पुस्तको के प्रकाशन से धन्य अशोक जी को मैने सुझाव दिया कि उन्हे अब ब्लॉग दुनिया को भी आजमाना चाहिये...! और वो मेरि बात मान गये....! अब जानिये अशोक लव के शिखरों से आगे जाने के इरादे खुद अशोक लव के माध्यम से...! मैं होती कौन हूँ सूरज को दिया दिखाने वाली...!