Tuesday, June 16, 2009

किसी से नही, एक तुमसे......


किसी से नही,
एक तुमसे निभाने की खातिर,
जली मैं युगों से युगों तक

किसी को नही हर किसी शख्स में है
किया याद तुमको निशा से सुबह तक

तुम्ही आदि में हो, तुम्ही अंत मे हो,
तुम्ही मंजिलों में तुम्ही पंथ में हो,
नही दीखते तुम कहीं भी तो क्या है?
खुली आँख में तुम तुम्ही बंद मे हो।
किसी को नही एक तुम को,
सुमिरने की खातिर जगी मैं युगों से युगों तक

कहाँ पर मिले थे, कहाँ फिर मिलोगे ?
नही याद कुछ भी, नही कुछ पता है।
मेरी यात्रा पर कहाँ खत्म होगी,
मेरी आत्मा को फक़त ये पता है।
किसी से नही एक तुम से ही मिलने की,
खातिर चली मैं युगों से युगों तक

मेरी आत्मा की करुण चीख सुन कर,
कभी तो द्रवित होते होगे वहाँ पर।
वहीं से खड़े देखते ही रहोगे
या दोगे सहारा कभी मुझको आकर
किसी की नह एक तेरी प्रतीक्षा में
आँखें लगी हैं, युगों से युगों तक


Thursday, June 11, 2009

हृदय गवाक्ष की दूसरी वर्षगाँठ और आप सब को शुक्रिया




जी हाँ आज ही है वो दिन जो २ साल पहले इस अद्भुत ब्लॉग विश्व में लाया। जब आई थी तो नही पता था कि जिंदगी का सब से बड़ा फितूर, जुनून बन जायेगा ये काम। वो दुनिया जो मुझे सब से अधिक सुकून देती है। वो जगह जहाँ मुझे खुद जैसे कई सनकी मिल जाते हैं। जहाँ मेरा कहना दूसरे समझते हैं और दूसरों का कहना मैं।

शुक्रिया शुक्रिया शुक्रिया..! मनीष जी आपका हर बार शुक्रिया, जब जब महसूस की इस जगत में आने की खुशी तब तब आपको धन्यवाद दिया। ये खुशकिस्मती थी मेरी कि आर्कुट जैसी विवादित जगह जो व्यक्ति मुझे सब से पहले मिला, उसे मित्रता का विस्तार और सीमाएं दोनो ही बहुत अच्छी तह से मालूम थे। मेरा ब्लॉग बन गया और पहली पोस्ट पड़ गई, तब तक नही पता था मुझे कि ये ब्लागजगत आपरेशन होता कैसे है ? शुरुआत में उन्होने ही किया बहुत कुछ।

मनीष जी ने बहुत अच्छी तरह समझाया था कि शुरुआत में शून्य टिप्पणियाँ पाने से निराश मत होना और मैं इसके लिये पूरी तरह तैयार थी। मगर यहाँ ऐसी खुशकिस्मती थी कि मेरी पोस्ट पर पहली टिप्पणी माननीय महावीर प्रसाद जी की आई। मेरे लिये एक ही टिप्पणी १० टिप्पणी के बराबार थी। खैर जैसा मैं लिख रही थी उस हिसाब से या तो मेरी उम्मीदे बहुत ज्यादा नही थीं या फिर लोग मेरे लड़खड़ाने पर सधने के लिये तालियाँ अधिक बजा रहा थे। मगर मैं संतुष्ट थी। शुरुआत मे ही मैथिली जी, जैसे लोगो का उत्साह वर्द्धक साथ देख कर लिखते जाने की चाह बनी रही।

मन के चोर को हमेशा से ये भी लगता था कि कहीं मेरी कमजोरियाँ जान कर लोग यूँ ही सहानुभूति में वाह वाह न करने लगें इसी गरज से शुरुआत में बहुत दिनो तक अपनी फोटो भी नही लगायी थी। क्योंकि अपनी सत्यता ना ही मैं छुपाना चाह रही थी और न ही जताना। मगर खुशी हुई कि लोगो ने मुझको बाद में मेरी कलम को पहले जाना। जैसा कि मैं चाहती थी। मैं उसी को पहचान बनाना चाहती थी अपनी। फोटो तो तब लगायी जब मनीष जी से मुलाकात हुई और उन्होने मेरे विषय में लिखा। तब तक तो बहुत लोग मिल चुके थे।

मैथिली जी की टिप्पणियाँ, सारथी जी का चिट्ठाजगत के लिये मेरी कविता का ब्लॉग की शैशवावस्था मे ही चुनाव शायद पानी देता रहा।

समीर जी, जिनकी टिप्पणी हर जगह मिल जाती थी, उनको मेरे ब्लॉग तक आने में ३ महीने लगे और ज़ाहिर है मन बहुत खुश हुआ। हाँ लेकिन ये भी सच है कि जिनके विचारों का इन्तज़ार था, उन्हे कभी किसी तरह मेल या टिप्पणी या अन्य आकर्षण द्वारा आमंत्रित नही किया। आने के बाद ज़रूर बताया कि आपकी प्रतीक्षा बहुत दिनो से थी।

उन्ही लोगो में एक हैं राकेश खण्डेलवाल जी। जिनकी प्रतीक्षा पूरे ८ माह तक करनी पड़ी। उनकी कविताओं का रिदम अधिकतर जुबान पर चढ़ जाता था। मगर अकसर सोचती कि क्या मेरी कोई भी कविता ऐसी नही है जो राकेश जी को पसंद आती हो। उस विषय में तो मैं विस्तार से लिख ही चुकी हूँ पोस्ट में।

यूनुस जी तो खैर सभी के लिये हाजिर रहते हैं। जब भी किसी गीत की आवश्यकता पड़ी, वो हाजिर और फिर गायब।

इसी बीच ब्लॉग बनने के तीन माह के भीतर ही गुरू जी की क्लासेज़ शुरू हो गईं, जो मेरे लिये गज़ल को समझने के लिये तो लाभकारी रही ही, साथ ही साथ वहाँ से बहुत से लोग जुड़े। मीनाक्षी दी वही मिलीं मुझे।

पता नही कब इतने लोगो से जुड़ती चली गई। डॉ‍ साहब, पारुल और मीत जी जाने कब आये और उनकी हर रचना मन को छुई।



पारुल का लिखा सब कुछ लगता जैसे अपने मन का। मिली तो सखी बन गई। ये तो बाद में पता चला कि पहले भी कुश जैसे कई लोग उन्हे इस नाम से पुकार चुके हैं। सोचती हूँ कि अब संघमित्रा कहा करूँ उन्हे :)

डॉ० अनुराग को जब जाना तो एक बहुत पारदर्शी शख्स को पाया। व्यस्तता के दौरों में जब जब उन्हे लगा कि आज इस भावुक लड़की को भावनाओं ने शायद ज्यादा परेशान किया हो, तब तब मैने अपने मोबाईल पर उनका नंबर डिसप्ले होते पाया। शुक्रिया अनुराग जी..!


राकेश को तो खैर इस से बाहर ही रखूँगी, क्योंकि वो ब्लॉग से नही मिला, बल्कि मैने ही उसे ब्लॉग जगत से मिलवाया.....! पर ये बताना चाहूँगी कि आभासी जगत से मिला ये रिश्ता भी अद्भुत ही है मेरे लिये।



समीर जी के कानपुर आने पर जब उनसे मिलने गई, अनूप जी के घर तो पता चला हम तो यूँ ही इन आदि चिट्ठाकार से डर रहे हैं, वो तो बहुत ही जल्दी दूसरों से घुलमिल जाने वाले लोगों में हैं। दोबारा जब वो लखनऊ आये तो दीदी के घर फिर मुलाकात हुई उनसे। लोग यूँ ही डरते हैं उनकी खिंचाई से। मैने ध्यान दिया कि उनकी खिंचाई का शिकार अधिकतर उनके समवयस्क मित्र ही होते हैं, हम जैसे कनिष्ठ चिट्ठाकारों को वे केवल उत्साहित करते हैं और अपनी बातों को सलीके से कहने का जो तरीका उनके पास है वो मुझे बहुत पसंद आता है।

किसी तरही मुशायरे में पहली बार जब गौतम राजरिषी जी को पढ़ा, तो कुछ खिंचाव सा महसूस किया, तुरंत अपनी ब्लाग लिस्ट में स्थान दिया उन्हे। फिर २६/११ की घटना के दौरान महसूस किया कि वे सिर्फ मेजर ही नही एक सच्चे देशभक्त भी हैं। रासो कालीन काव्य और घर में वीरता की गाथाएं सुनकर बड़ी तमन्ना थी कि घर का कोई भाई/बेटा हो जिसे तिलक लगा कर युद्ध में भेजूँ। मगर जब गौतम जी की काश्मीर में पोस्टिंग की बात सुनी तो ना जाने क्यों कुछ दहशत सी हुई और लगा कि या तो मैं अब सपनो की दुनिया से बाहर आ चुकी हूँ या सपने और हकीकत में बहुत फर्क़ होता है। ये सब बातें जब एक मेल में मेजर साहब को लिखीं तो उस दिन ब्लॉगजगत ने एक सच्चे वीर को मेरा वीर बनाया। शुक्रिया ब्लॉग विश्व..!


किशोर जी से परिचय शीघ्र ही हुआ मगर उनकी लेखन क्षमता के कारण विशेष स्थान बना उनका।

और अब तो पूरा काफिला है। रिश्तों से भरा पूरा परिवार। पंकज जी, महावीर जी, खण्डेलवाल जी, मोद्गिल जी जैसे गुरुवर.....! गौतम जी जैसे अग्रज। राकेश, पुनीत, अर्श जैसे अनुज। लावण्या दी, मीनाक्षी दी, घुघूती दी, जैसी बड़ी बहने। अनुराग जी, मनीष जी और कुश जैसे सच्चे मित्र। पारुल सी सखी। अनूप जी, समीर जी, सुशील छौक्कर जी, नीरज जी, रविकांत जी, रवीन्द्र रंजन जी, अजित जी, किशोर जी जैसे और बहुत बहुत बहुत से शुभचिंतक। मैं अभिभूत हूँ।

धीमी गति के बावजूद जो साथ सबका मिला उसका क्या कहूँ। सोचा था कि १०० वीं पोस्ट और दूसरा जनमदिन एक साथ मनाऊँगी लेकिन कहाँ..?? मेरी कलम (की बोर्ड) कभी मेरे अनुसार चली हो तब ना। इसका जब मन होता है तब चलती है। लेकिन जब भी चली आप तब ही आ गये उत्साह बढ़ाने। आप सब का शुक्रिया..! और अनुरोध यूँ ही साथ निभाते रहियेगा।

आज फिर से कहती हूँ कि जो कुछ लिखा सिर्फ अपने मन के कहने से लिखा। आपको पसंद आया या यूँ ही उत्साह बढ़ाया, सब आपका बड़प्पन था। कभी भी विवादित लिखने की गरज से विवादित नही लिखा लेकिन अफसोस कि जब नर नारी समन्वय और गाँधी जी जैसे विषयों पर थोड़ा विवादित लिखना पड़ा जनता ने हिट किया। समझ में आया कि हर फिल्म रिलीज के पहले बैन्ड क्यों होती है।
और हाँ भाव आने के मुश्किल से ४ मिनट के अंदर लिखी गई इस कविता को जैसा रिस्पांस मिला वो मेरे लिये आश्चर्यजनक था।

खुशी इस बात की भी हुई लोगो ने इस योग्य समझा कि मेरी आलोचना या विवेचना की जाये। मित्रों को जब कुछ नही पसंद आया तो खुल कर लिखा और मैने उन्हे अपने सच्चे मित्रों में शामिल किया। जब सही आलोचना होती है तब खुशी होती है। मगर जब बिना पढ़े ही कोई विचार दिया जाता है (फिर चाहे तारीफ हो या निंदा) तो कष्ट होता है।

अपना एक विचार और देना चाहूँगी कि ब्लॉग जगत में समस्या टिप्पणियाँ देने की नही उचित टिप्पणियाँ देने की हो गई है। आप से गुजारिश है कि जब भी आये अपने खुले विचारो के साथ आयें।

हाँ ये भी कहना है कि विरोध का मतलब झगड़ा और गलत भाषा का प्रयोग नही है। हम शब्दों के ही खेल तो कर रहे हैं, इन्हे संयमित रखना हमारे अपने वश में है, जरूरी नही कि अपनी बात लड़ कर ही कही जाये।

तो फिर से आप सब का शुक्रिया शुक्रिया शुक्रिया....!

Monday, June 1, 2009

बिखरी कहानी के बाद


"तो क्या करूँ मैंऽऽऽ...?? क्या करूँ मैं अब्बू..?? किस के सहारे छोड़ दूँ इन दोनो नासमझों को जिनका पेट नही समझ पाता कि ये किस घर की औलाद हैं ? सुबह शाम भूख..भूख..! कहाँ से लाऊँ इन नासमझों के लिये अनाज..! सर्दी लगे तो कहाँ से लपेटूँ इन्हे गरम कपड़ों में.?? कोई तो नही बताता मुझे अब्बू इन को जिंदा रखने का तरीका...! तुम भी तो नही..!" कह कर बिलखने लगी थी साज़िया...!
अब्बू और और आपा के बीच अजीब यूँ ही अचकचाई सी खड़ी थी सकीना...! समझ में आ ही नही रहा था किसे समझाये, क्या समझाये..??
"तो जा...! जा के खा उस काफिर की दी रोटी...! मुसलमान हो कर दीन कि फिकर नही है जिसे। जा खिला उस कमबख्त की रोटी अपने बच्चों को जो तेरे दो दो भाइयों का कातिल है। जिस के जैसे लोगो के कारण आज तेरा शौहर ज़िहादी बना है। जा खिला उसकी फेंकी रोटी इन मासूमों को। मगर उस पैसे एक भी निवाला मुझ तक मत आने देना..समझी..! मेरी औलादों को मारने वालेऽऽऽऽऽऽऽऽ खुदा तेरा हिसाब करेगाऽऽऽऽ..! खुदा करेगा तेरा हिसाऽऽऽऽऽब...!" कहते कहते उस बूढ़े की आवाज तेज से तेज और फिर धीमे से और धीमे होती गई। खाँसी का दौरा फिर आ गया था, उस बूढ़े पर। बिलखती साज़िया ने मिनटों में अपने आँसू पोंछे और अब्बू की पीठ सहलाने लगी

"अब्बू..! माफ कर दो मुझे अब्बू....! गुस्से में इतना चिल्लाया मत करो अब्बू..! ठीक तुम जो कहोगे वैसा करूँगी लेकिन इस तरह बीमार मत करो खुद को..! मैं तो खराब ही निकल गई अब्बू...मगर इस साज़िया की सोचो..! कौन है तुम्हारे अलावा इसका...! अपने को ऐसे बीमार मत किया करो..! ओये साज़िया अलमारी से दवा निकाल के ला..! वो पीली वाली..और जल्दी से कहवा बना.... !" भरी आँखों और रुँधे गले से बोल रही थी साज़िया।

दवा खाने और कहवा पीने के बाद कुछ आराम मिला उसे..! बिस्तर पर अब्बू को लिटा कर, उनका सिर सहलाती रही। और जब आश्वस्त हो गई उनके सोने के प्रति तो जाकर खुद बिस्तर पर औंधे मुँह पड़ कर सिसकने लगी...! ऐसे जिस से सारा बोझ भी निकल जाये और कोई जान भी ना पाये। मगर ये सक़ीना ..मरने भी नही देती उसे। फिर आ गई उसके सिरहाने..!

सिर पर हाथ फेरते हुए बोली " कुछ खा लो आपा"
"तू जा के खा ले, सक़ीना ! मैं जब बाहर निकली थी तो खा के आई थी। भूख नही मुझे।" रुँधी आवाज पर इतना नियंत्रण करते हुए कि सक़ीना ना जान पाये उसका रोना, साज़िया बोली।
" पता है मुझे क्या खाया होगा तुमने। चलो "
" तू जा ना साज़िया.. कसम से कह रही हूँ, मुझे भूख नही।"
" अच्छा चलो भी...! किसकी बात को रोती हो आपा...! अब्बू की..! जानती तो हो उनकी हालत। फिर क्यों बुरा मानती हो उनका। वो भी क्या करे...।"
सकीना की बात पूरी होती इस से पहले ही उसकी बात को लोकते हुए बोल पड़ी साज़िया " और मैं भी क्या करूँ सकीना..! मैं क्या करूँ....! औरत का पहला सहारा होता है भाई, दो दो पाये मैने और दोनो गँवा दिये। दूसरा होता है शौहर, जिस के सहारे वो सारी दुनिया को छोड़ देती है। और मैने..मैने तो कितनी मुह्ब्बत की थी उससे..! कितनी कसमें खाई थी उसने मुझे इस ज़न्नत में एक और ज़न्नत सी दुनिया नवाज़ने की..! और जब गया तो सोचा भी नही कि क्या होगा मेरा, उन निशानियों का जिसे वो प्यार कहता था। ज़िहाद..! ज़िहाद..! दीन के लिये..! अल्लाह के लिये..! हुम्ह्..! जिसने दुनिया बनाई उसके लिये उसी की बनाई दुनिया जलाने का ज़ुनून ये ....!!!! एक बार भी नही सोचा कि मै इन दोनो को ले कर मरूँगी भी तो कैसे...!!! " सिसकती मजबूर साज़िया को गले लगा लिया था सक़ीना ने " मगर वो बिलखती ही जा रही थी कहती ही जा रही थी " अब्बा कहते हैं कि उस काफिर के दिये पैसे का एक निवाल ना दूँ उन्हे...! तो कहाँ से लाऊँ सक़ीना उनके निवाले के लिये सिक्के..! अब्बू खुद के लिये अगर रोटी ढूँढ़ने की हालत में होते तो खुदा कसम ना देती उनको इस काफिर के पैसे की रोटी। मगर उनकी वो दवाई, जिसके कारण वो रात को सो पाते हैं, वो भी तो वहीं से आती है। क्या करूँ मैं..! कौन बहन चाहेगी सक़ीना अपने भाई के कातिल की दी रोटी खाना, मगर अल्लाह ने मेरी किस्मत में यही रोटी लिखी है मैं क्या करूँ।"
"मैं जानती हूँ आपा, खुदा जानता है। तुम यूँ खुद को मत कोसो।"
फिर बहुत देर तक यूँ ही दोनो बहने सुबकती रहीं, दोनो के दामन एक दूसरे के आँसू जज़्ब करते रहे।

सुबह अभी आँख खुली भी ना थी कि सक़ीना ने उसकी आँख से दुपट्टा हटा कर साज़िया को जगाते हुए हड़बड़ाती आवाज़ में कहा " आपा वो.. वो आये हैं।"
" कौन रे।" अलसाई आवाज़ में साज़िया बोली
" वो..वो फौजी" सक़ीना ने अटकते हुए कहा।
"ओह..! अब्बू ने तो नही देखा"
"देखा।"
"उफ्फ्फ्फ् ..! जा ज़रा कह के आ कि ज़रा उस चिनार की आँड़ में खड़ा रहे मैं अभी आती हूँ। ख़ामख्वाह अब्बू का मिजाज़ बिगड़ेगा, उसे देख कर।"
" अच्छा..! वहीं चिनार के पीछे कहवा ले आऊँ तुम दोनो के लिये।" सकीना ने कुछ संकोच से कहा।
" नही रे रहने दे।" कहते हुए साज़िया ने रात भर रोने के कारण सूजी आँखों से सकीना को भर नज़र देखा। १० साल छोटी थी उससे वो खूब समझती थी वो उसके भाव..! उस फौजी का नाम लेने में जो दस बार अटकती है वो उसके पीछे का मतलब भी जानती है वो। लेकिन क्या करे..!! शब्बीर खुद ही तो बता चुका है अपनी माशूका के बारे में, उसका खत जिस दिन आता है, उस दिन अजीब ख़ुमारी होती है, शब्बीर की बातों में। खुदा ने कैसी तक़दीर दी हम दोनो बहनो को एक को दीन का सिपाही पसंद आया दूसरे को मुल्क का। सोचती हुई हल्की मुस्कान के साथ उठी साज़िया।

मुँह धो कर चिनार के पीछे पहुँची और फौजी से बोली "शब्बीर मै ठीक दो घंटे बाद मिलती हूँ तुम से उस नये कैफे में जो दिखाया तुम्हे उस दिन।"
फौजी बिना कुछ बोले आज्ञाकारी शिष्य की तरह जिस दिशा से आया था उसी दिशा में चल दिया।

ठीक दो घंटे बाद दोनो वहीं मिले। सक़ीना ने मुस्कुराते हुए कहा "कैसे हो काफिर ?"
सिगरेट की डिब्बी निकालते हुए रुके हाथ के साथ फौजी ने हड़बड़ा कर पूँछा " काफिर..??"
" हम्म्म्म्..! अब्बा यही तो कहते हैं आपको"
"ओह ...!!!!" फौजी ने जैसे सुकून की साँस लेते हुए कहा " पाँचों वक़्त का नमाज़ी हूँ।" फौजी मुस्कुराया।
" हुह्..! पाँचों वक्त का नमाज़ी। अभी पिछली दफा तो तो मेरे साथ थे जब मस्जिद से आवाज़ आ रही थी नमाज़ की, मगर तब तो आपने ना अदा की थी नमाज़"
फौजी फिर थोड़ा हड़बड़ाया " कब..?? अरे उस दिन..! अरे नमाज़ ही तो थी, मुल्क के लिये ज़रूरी इत्तला इकट्ठा कर रहा था, नमाज़ से कम था ??" कहते हुए फौजी ने विल्स सुलगा ली।
" काफिर तो आप हो ही..! वरना ये सिगरेट..? कभी सच्चा मुसलमान पीता है। और सुबह जब मिली थी तब तो रात की महक भी नही गई थी।"
" ओह्ह्ह् ..! वो...!" फौजी ने अपनी हड़बड़ाहट को झूठी हँसी मे बदलते हुए कहा " वो तो कल जिसका ठिकाना तुमने बताया था ना उस को ठिकाने लगाने की खुशी में थोड़ी सी ज्यादा ओल्ड मॉंक ले ली थी।"
"क्या कहा..! ठिकाने..! इरफान भी..??? या अल्लाह...!"कहते हुए साजिया ने दोनो हाथ उठाये और कुछ बुबुदाती हुई सिर पर पल्ला रख कर बैठ गई। " इरफान तेरे क़त्ल की भी ग़ुनहगार मैं हुई। क़यामत के दिन हिसाब करना मुझसे भाई...! खुदा या क्या तक़दीर पाई हैं मैने भी।" फिर फौजी की तरफ मुखातिब होती हुई बोली "बचपन से जानती थी उसे शब्बीर साब, कभी सोचा भी नही था कि ऐसा निकलेगा। और अगर उस दिन ये ना सुना होता कि ये सब दिल्ली जा कर तबाही मचाने वाले हैं तो शायद उसका पता तो आपको मैं बताती भी ना...! चाहे जितनी मुहरे देते मुझे। मगर सोचा पता नही कितनी बहने मुझ जैसी बिना भाई की ‌और कितनी बीवियाँ बिना शौहर की हो जायेंगी अगर आपको नही बताया।"
फौजी भी कुछ गंभीर सा हो गया था, बात बदलते हुए कहा उसने " हम्म्म् तो आपके अब्बा, क़फिर कहते हैं मुझे।"
"हम्म्म्..! अब्बा को पहचान है लोगो की..! " वो नम आँखों में मुस्कुराई
फौजी भी मुस्कुराया "तुम्हारी बहन बड़ी प्यारी लगती है, सुबह जब आई थी तुम्हारा संदेशा देने तो आँखें सूजी थी, फिर तुम्हारी भी, दोनो बहने मिल के रो रही थी क्या..!" फौजौ ने शरारत से पूँछा।
" इस ज़न्नत की बहनो की तक़दीर में रोने कि सिवाय है ही क्या शब्बीर साब" साजिया ने कुछ भरी आवाज़ में कहते हुए अचानक मुस्कुरा कर कहा " तुम्हे प्यारी लगती है सक़ीना ?"
"हम्म्म्म ..! खुदा जिसे भी प्यारा बनाता है, वो सभी को प्यारे लगते हैं। प्यारी तो मुझे आप भी लगती हो।" फौजी ने फिर शरारत से मुस्कुराते हुए कहा।
" हा हा ...! मैं सकीना की बात कर रही हूँ...!" मुस्कुराते हुए अचानक स्वर गंभीर करते हुए साज़िया ने कहा "सक़ीना से निकाह रचा लो शब्बीर साब! अल्लाह आपको बरकतों से नवाज़ेगा और इंशाल्लाह एक दिन आप इस कैप्टेन से जेनरल बनोगे..."
"मेरी पोस्टिंग आ गयी है, साज़िया और अगले महीने मैं जा रहा हूँ यहाँ से।"- फौजी ने कहा तो उन आँखों में विचित्र-सी उदासी छा गयी।


फौजी चला गया..!!! जाते वक़्त सकीना ना जाने किस के लिये स्वेटर बुन रही थी। साज़िया ने जब सकीना को बताया कि फौजी जा रहा है और आज उसने सकीना के निक़ाह के लिये भी उससे बात की थी सकीना का चेहरा लाल हो गया था। स्वेटर बुनने की रफ्तार तेज़ हो गई थी। मगर स्वेटर पूरा होता उससे पहले फौजी चला गया। सकीना ने स्वेटर वैसे ही रख दिया।
लगभग ढाई साल बाद अचानक दरवाजे पर फिर फौजी खड़ा था। सकीना की आवाज़ फिर अटक गई। साज़िया फिर उससे उसी कैफे में मिली और फिर निक़ाह करने का मशविरा दिया। फौजी ने उसी मुस्कान से कहा "आप जानती हो, साज़िया। मैं किसी और से इश्क करता हूँ।"

"...तो क्या हुआ? तुम मर्दों को तो चार बीवियां लागु हैं।"- फौजी ने गौर से देखा साज़िया की आँखों में ढाई साल में उन के नीचे कुछ काले घेरे भले ही आ गये थे लेकिन बीते वर्षों में उन आँखों का सम्मोहन अभी भी कम नहीं हुआ था।
सकीना के स्वेटर के धागे फिर से जुड़ने लगे थे। बुन जाने के बाद साज़िया ने पूँछा था। " किस के लिये बुन रही है रे।"
सकीना कुछ ना बोली, चुपचाप उसे बक्से में बंद कर आई।


फौजी फिर चला गया। सकीना अक्सर रात के अँधेरों में उस बक्से को खोलती और स्वेटर से सिर टिका के ऐसे रोती जैसे किसी के सीने से लग के सारे आँसू निकाल रही हो।
साजिया ना चाहते हुए भी सुन लेती थी उन सिसकियों को। और खुद से फिर कहती या खुदा क्या तक़दीर पाई है। अब्बा इस हरकत पे कितनी लानते भेजते और खाँसी के दौरों को दावत देते। इसी खाँसी के एक दौरे में एक दिन वे अपने बेटों की दुनिया में चले गये।

उस दिन सकीना अचानक से खड़ी हुई साज़िया के पास आ कर " आपा वो बाहर एक नया जोड़ा घूमने आया है।"
साज़िया ने सिर उठा जर सक़ीना की आँखों में बात समझने की गरज़ से झाँका। और सवालिया निगाह उसके चेहरे पर रखी।
"वो जो आये हैं न वो, उस फौजी के साथ हमेशा दिखते थे। वो सिपाही है शायद।"
"हम्म्म्..!" अब समझी थी साज़िया। उस सिपाही से उस फौजी का पता जानना चाह रही थी सकीना। घुटनो पर हाथ रखती हुई साजिया उठी और आवाज़ दी, उस सिपाही को।
" ओ साब..! ओ साब..!" सिपाही ने मुड़ कर देखा तो साज़िया दौड़ती हुई पहुँची उसके पास।
" वो साव, वो कैप्टन साब थे ना जो आपके साथ थे, यहाँ अक्सर...!!
सिपाही कुछ बोलता इससे पहले उसकी पत्नी बोल उठी " कौन वो गौतम साहब, की बात कर रही है क्या ये।"
सिपाही कुछ हड़बड़ाता हुआ बोला " नही नही..!"
" अरे वही तो थे आपके कैप्टन यहाँ और कौन था। आप ही तो बताते हो।"
"सिपाही अपनी नई पत्नी के सामने कुछ भी बताने में असमर्थ।"
सक़ीना पीछे से आ गई थी। साज़िया समझदार थी बहुत दिनो से सम्हाल रही थी ऐसे हालातों को। उसने तुरंत खुद को संयत करते हुए कहा। "हाँ हाँ वो गौतम साब..! बताया तो था उन्होने। आपकी बटालियन फिर यहाँ पोस्टेड हो गई क्या साब।
"नही नही।" सिपाही फिर नही समझ पा रहा था कि क्या कहे। उसकी बातूनी पत्नी फिर बोल उठी। "नही इनकी पोस्टिंग नही हुई , असल में हमारी नई शादी हुई है ना, तो मेरा हमेशा से मन था कि हनीमून कश्मीर में मनायें लेकिन यहाँ कोई आये कैसे..! वो तो ये यहाँ के चप्पे चप्पे के जानकार थे और फौजी होने के कारण थोड़ा सेफ्टी भी थी इनके साथ। तो......!"
साज़िया ने लड़खड़ाती हुई लौटती सक़ीना को देखा और उस औरत से जल्दबाजी में कहा " खुदा आपका जोड़ा बनाये रखे" और सकीना के पीछे चल पड़ी

सकीना बच्चो को खाना खीला रही थी। साज़िया के लिये कहवा चढ़ा दिया था।

साज़िया सकीना को सुनाती हुई खुद में बड़बड़ा रही थी
"काफिर...! अब्बू को आदमी की पहचान थी। हुम्ह..! एक बार कहा तो होता कि वो मुसलमान नही है। अरे मेरे पेट की आग तो मुझे किसी के साथ भी वो काम करने को मजबूर ही करती जो उसके साथ कर रही थी। जैसे हिंदू वैसे मुसलमान...! लकिन कम से कम इस नादान की आँख में तो सपने ना पलने देती।" आँसू उमड़ घूमड़ कर आते और साज़िया उन्हे दुपट्टे की कोर से पीछे ढकेल देती। सकीना कहवा दे गई। खाना खा कर दोनो सो गई।

रात को बकस खुलने और सकीना के रोने की आवाज़ फिर आ रही थी। साज़िया समझ गई कि सकीना फिर उसी सीने में मुँह छिपाये है। उसने छोड़ दिया उसे ये सोच कर कि जब कोई यूँ किसी सीने से सिर लगा कर रोय तो बीच में आना शऊर के खिलाफ है। उसने छोड़ दिया सकीना को उस उस सीने के साथ।

सुबह सकीना अब तक नही उठी थी। लगता है रात देर तक रोती रही। साजिया ने कहवा बनाया और सकीना को उठाने के लिये गई। सकीना सोई नही थी....! वहीं लुढ़की पड़ी थी। नींद की गोलियों का पूरा पत्ता पड़ा था पास में ढेर सारी दवाईयाँ अंदर जा चुकी थी। पास में एक रुक्का था जिसमे लिखा था "आपा तुम्हारा चाहने वाला तुम्हे जीने के लिये वो निशानियाँ दे गया, जिसके सहारे तुम खुदा की नज़र में गिर कर भी जी सकती थी। मगर मेरा चाहने वाला मुझे अपनी नज़र में ही गिरा गया। सोचती हूँ क्यों नही जान पाई उसकी हकीकत मैं। लगता था कि क्या पता कभी खुदा मेहरबान हो और चार बीवियाँ लागु का हक़ पाने वाले उस मर्द के मन में कुछ मेरे लिये भी आ जाये। उसकी बीवी की नौकरानी बन के रह लेती मैं, अगर वो मुझे अपनी बीवी होने का रुतबा दे देता.....!!!!! अब किस के लिया जीना आपा।"

साज़िया की आँखों में आँसू नही थे। उसने चुपचाप साज़िया के कपड़े ठीक किये। पास पड़ा स्वेटर उठाया और मौलवी साब को बुलाने चल दी। साजिया को दफन करने के साथ वो स्वेटर भी दफन करने चली तो एक बार उस सीने से लग के खुद भी खूब रोई, जिसमें सकीना सुकून पाती थी। और फिर अपने बच्चों और एक बक्स उठाये जाने कहाँ चल दी....! किसी ने उससे पूँछा भी नही...! दबी जुबाँ से सब कह रहे थे "कितनो को मरवाया इसने अपने पर पड़ी तो कैसा रोना आ रहा है..!!!!"

नोटः आज सुबह नेट खोलने के साथ ही पढ़ी गौतम जी की कहानी, जिसका पात्रों की सच्ची जिंदगी से मेल खाना मात्र संजोग ही होगा...! नही जानती कि ये साजिया कौन थी। मगर बार बार ज़ेहन में आती रहीं। १ बजे वीर जी से इसके आगे की काल्पनिक कथा लिखने की इजाजात माँगी..! १.३० बजे शुरू की और अभी ५ बजे पूरा किया। सब ड्राफ्ट ही है। फेयर करने का समय नही मिला। बार बार सकीना की नीयत खुद निर्धारित करने पर अफसोस हो रहा था। मगर मेरी सकीना वाकई काल्पनिक है। खुदा हक़ीकी साज़िया और सकीना को लंबी उम्र और हर बरक्कत दे।