नित्य समय की आग में जलना, नित्य सिद्ध सच्चा होना है। माँ ने दिया नाम जब कंचन, मुझको और खरा होना है...!
Monday, June 1, 2009
बिखरी कहानी के बाद
"तो क्या करूँ मैंऽऽऽ...?? क्या करूँ मैं अब्बू..?? किस के सहारे छोड़ दूँ इन दोनो नासमझों को जिनका पेट नही समझ पाता कि ये किस घर की औलाद हैं ? सुबह शाम भूख..भूख..! कहाँ से लाऊँ इन नासमझों के लिये अनाज..! सर्दी लगे तो कहाँ से लपेटूँ इन्हे गरम कपड़ों में.?? कोई तो नही बताता मुझे अब्बू इन को जिंदा रखने का तरीका...! तुम भी तो नही..!" कह कर बिलखने लगी थी साज़िया...!
अब्बू और और आपा के बीच अजीब यूँ ही अचकचाई सी खड़ी थी सकीना...! समझ में आ ही नही रहा था किसे समझाये, क्या समझाये..??
"तो जा...! जा के खा उस काफिर की दी रोटी...! मुसलमान हो कर दीन कि फिकर नही है जिसे। जा खिला उस कमबख्त की रोटी अपने बच्चों को जो तेरे दो दो भाइयों का कातिल है। जिस के जैसे लोगो के कारण आज तेरा शौहर ज़िहादी बना है। जा खिला उसकी फेंकी रोटी इन मासूमों को। मगर उस पैसे एक भी निवाला मुझ तक मत आने देना..समझी..! मेरी औलादों को मारने वालेऽऽऽऽऽऽऽऽ खुदा तेरा हिसाब करेगाऽऽऽऽ..! खुदा करेगा तेरा हिसाऽऽऽऽऽब...!" कहते कहते उस बूढ़े की आवाज तेज से तेज और फिर धीमे से और धीमे होती गई। खाँसी का दौरा फिर आ गया था, उस बूढ़े पर। बिलखती साज़िया ने मिनटों में अपने आँसू पोंछे और अब्बू की पीठ सहलाने लगी
"अब्बू..! माफ कर दो मुझे अब्बू....! गुस्से में इतना चिल्लाया मत करो अब्बू..! ठीक तुम जो कहोगे वैसा करूँगी लेकिन इस तरह बीमार मत करो खुद को..! मैं तो खराब ही निकल गई अब्बू...मगर इस साज़िया की सोचो..! कौन है तुम्हारे अलावा इसका...! अपने को ऐसे बीमार मत किया करो..! ओये साज़िया अलमारी से दवा निकाल के ला..! वो पीली वाली..और जल्दी से कहवा बना.... !" भरी आँखों और रुँधे गले से बोल रही थी साज़िया।
दवा खाने और कहवा पीने के बाद कुछ आराम मिला उसे..! बिस्तर पर अब्बू को लिटा कर, उनका सिर सहलाती रही। और जब आश्वस्त हो गई उनके सोने के प्रति तो जाकर खुद बिस्तर पर औंधे मुँह पड़ कर सिसकने लगी...! ऐसे जिस से सारा बोझ भी निकल जाये और कोई जान भी ना पाये। मगर ये सक़ीना ..मरने भी नही देती उसे। फिर आ गई उसके सिरहाने..!
सिर पर हाथ फेरते हुए बोली " कुछ खा लो आपा"
"तू जा के खा ले, सक़ीना ! मैं जब बाहर निकली थी तो खा के आई थी। भूख नही मुझे।" रुँधी आवाज पर इतना नियंत्रण करते हुए कि सक़ीना ना जान पाये उसका रोना, साज़िया बोली।
" पता है मुझे क्या खाया होगा तुमने। चलो "
" तू जा ना साज़िया.. कसम से कह रही हूँ, मुझे भूख नही।"
" अच्छा चलो भी...! किसकी बात को रोती हो आपा...! अब्बू की..! जानती तो हो उनकी हालत। फिर क्यों बुरा मानती हो उनका। वो भी क्या करे...।"
सकीना की बात पूरी होती इस से पहले ही उसकी बात को लोकते हुए बोल पड़ी साज़िया " और मैं भी क्या करूँ सकीना..! मैं क्या करूँ....! औरत का पहला सहारा होता है भाई, दो दो पाये मैने और दोनो गँवा दिये। दूसरा होता है शौहर, जिस के सहारे वो सारी दुनिया को छोड़ देती है। और मैने..मैने तो कितनी मुह्ब्बत की थी उससे..! कितनी कसमें खाई थी उसने मुझे इस ज़न्नत में एक और ज़न्नत सी दुनिया नवाज़ने की..! और जब गया तो सोचा भी नही कि क्या होगा मेरा, उन निशानियों का जिसे वो प्यार कहता था। ज़िहाद..! ज़िहाद..! दीन के लिये..! अल्लाह के लिये..! हुम्ह्..! जिसने दुनिया बनाई उसके लिये उसी की बनाई दुनिया जलाने का ज़ुनून ये ....!!!! एक बार भी नही सोचा कि मै इन दोनो को ले कर मरूँगी भी तो कैसे...!!! " सिसकती मजबूर साज़िया को गले लगा लिया था सक़ीना ने " मगर वो बिलखती ही जा रही थी कहती ही जा रही थी " अब्बा कहते हैं कि उस काफिर के दिये पैसे का एक निवाल ना दूँ उन्हे...! तो कहाँ से लाऊँ सक़ीना उनके निवाले के लिये सिक्के..! अब्बू खुद के लिये अगर रोटी ढूँढ़ने की हालत में होते तो खुदा कसम ना देती उनको इस काफिर के पैसे की रोटी। मगर उनकी वो दवाई, जिसके कारण वो रात को सो पाते हैं, वो भी तो वहीं से आती है। क्या करूँ मैं..! कौन बहन चाहेगी सक़ीना अपने भाई के कातिल की दी रोटी खाना, मगर अल्लाह ने मेरी किस्मत में यही रोटी लिखी है मैं क्या करूँ।"
"मैं जानती हूँ आपा, खुदा जानता है। तुम यूँ खुद को मत कोसो।"
फिर बहुत देर तक यूँ ही दोनो बहने सुबकती रहीं, दोनो के दामन एक दूसरे के आँसू जज़्ब करते रहे।
सुबह अभी आँख खुली भी ना थी कि सक़ीना ने उसकी आँख से दुपट्टा हटा कर साज़िया को जगाते हुए हड़बड़ाती आवाज़ में कहा " आपा वो.. वो आये हैं।"
" कौन रे।" अलसाई आवाज़ में साज़िया बोली
" वो..वो फौजी" सक़ीना ने अटकते हुए कहा।
"ओह..! अब्बू ने तो नही देखा"
"देखा।"
"उफ्फ्फ्फ् ..! जा ज़रा कह के आ कि ज़रा उस चिनार की आँड़ में खड़ा रहे मैं अभी आती हूँ। ख़ामख्वाह अब्बू का मिजाज़ बिगड़ेगा, उसे देख कर।"
" अच्छा..! वहीं चिनार के पीछे कहवा ले आऊँ तुम दोनो के लिये।" सकीना ने कुछ संकोच से कहा।
" नही रे रहने दे।" कहते हुए साज़िया ने रात भर रोने के कारण सूजी आँखों से सकीना को भर नज़र देखा। १० साल छोटी थी उससे वो खूब समझती थी वो उसके भाव..! उस फौजी का नाम लेने में जो दस बार अटकती है वो उसके पीछे का मतलब भी जानती है वो। लेकिन क्या करे..!! शब्बीर खुद ही तो बता चुका है अपनी माशूका के बारे में, उसका खत जिस दिन आता है, उस दिन अजीब ख़ुमारी होती है, शब्बीर की बातों में। खुदा ने कैसी तक़दीर दी हम दोनो बहनो को एक को दीन का सिपाही पसंद आया दूसरे को मुल्क का। सोचती हुई हल्की मुस्कान के साथ उठी साज़िया।
मुँह धो कर चिनार के पीछे पहुँची और फौजी से बोली "शब्बीर मै ठीक दो घंटे बाद मिलती हूँ तुम से उस नये कैफे में जो दिखाया तुम्हे उस दिन।"
फौजी बिना कुछ बोले आज्ञाकारी शिष्य की तरह जिस दिशा से आया था उसी दिशा में चल दिया।
ठीक दो घंटे बाद दोनो वहीं मिले। सक़ीना ने मुस्कुराते हुए कहा "कैसे हो काफिर ?"
सिगरेट की डिब्बी निकालते हुए रुके हाथ के साथ फौजी ने हड़बड़ा कर पूँछा " काफिर..??"
" हम्म्म्म्..! अब्बा यही तो कहते हैं आपको"
"ओह ...!!!!" फौजी ने जैसे सुकून की साँस लेते हुए कहा " पाँचों वक़्त का नमाज़ी हूँ।" फौजी मुस्कुराया।
" हुह्..! पाँचों वक्त का नमाज़ी। अभी पिछली दफा तो तो मेरे साथ थे जब मस्जिद से आवाज़ आ रही थी नमाज़ की, मगर तब तो आपने ना अदा की थी नमाज़"
फौजी फिर थोड़ा हड़बड़ाया " कब..?? अरे उस दिन..! अरे नमाज़ ही तो थी, मुल्क के लिये ज़रूरी इत्तला इकट्ठा कर रहा था, नमाज़ से कम था ??" कहते हुए फौजी ने विल्स सुलगा ली।
" काफिर तो आप हो ही..! वरना ये सिगरेट..? कभी सच्चा मुसलमान पीता है। और सुबह जब मिली थी तब तो रात की महक भी नही गई थी।"
" ओह्ह्ह् ..! वो...!" फौजी ने अपनी हड़बड़ाहट को झूठी हँसी मे बदलते हुए कहा " वो तो कल जिसका ठिकाना तुमने बताया था ना उस को ठिकाने लगाने की खुशी में थोड़ी सी ज्यादा ओल्ड मॉंक ले ली थी।"
"क्या कहा..! ठिकाने..! इरफान भी..??? या अल्लाह...!"कहते हुए साजिया ने दोनो हाथ उठाये और कुछ बुबुदाती हुई सिर पर पल्ला रख कर बैठ गई। " इरफान तेरे क़त्ल की भी ग़ुनहगार मैं हुई। क़यामत के दिन हिसाब करना मुझसे भाई...! खुदा या क्या तक़दीर पाई हैं मैने भी।" फिर फौजी की तरफ मुखातिब होती हुई बोली "बचपन से जानती थी उसे शब्बीर साब, कभी सोचा भी नही था कि ऐसा निकलेगा। और अगर उस दिन ये ना सुना होता कि ये सब दिल्ली जा कर तबाही मचाने वाले हैं तो शायद उसका पता तो आपको मैं बताती भी ना...! चाहे जितनी मुहरे देते मुझे। मगर सोचा पता नही कितनी बहने मुझ जैसी बिना भाई की और कितनी बीवियाँ बिना शौहर की हो जायेंगी अगर आपको नही बताया।"
फौजी भी कुछ गंभीर सा हो गया था, बात बदलते हुए कहा उसने " हम्म्म् तो आपके अब्बा, क़फिर कहते हैं मुझे।"
"हम्म्म्..! अब्बा को पहचान है लोगो की..! " वो नम आँखों में मुस्कुराई
फौजी भी मुस्कुराया "तुम्हारी बहन बड़ी प्यारी लगती है, सुबह जब आई थी तुम्हारा संदेशा देने तो आँखें सूजी थी, फिर तुम्हारी भी, दोनो बहने मिल के रो रही थी क्या..!" फौजौ ने शरारत से पूँछा।
" इस ज़न्नत की बहनो की तक़दीर में रोने कि सिवाय है ही क्या शब्बीर साब" साजिया ने कुछ भरी आवाज़ में कहते हुए अचानक मुस्कुरा कर कहा " तुम्हे प्यारी लगती है सक़ीना ?"
"हम्म्म्म ..! खुदा जिसे भी प्यारा बनाता है, वो सभी को प्यारे लगते हैं। प्यारी तो मुझे आप भी लगती हो।" फौजी ने फिर शरारत से मुस्कुराते हुए कहा।
" हा हा ...! मैं सकीना की बात कर रही हूँ...!" मुस्कुराते हुए अचानक स्वर गंभीर करते हुए साज़िया ने कहा "सक़ीना से निकाह रचा लो शब्बीर साब! अल्लाह आपको बरकतों से नवाज़ेगा और इंशाल्लाह एक दिन आप इस कैप्टेन से जेनरल बनोगे..."
"मेरी पोस्टिंग आ गयी है, साज़िया और अगले महीने मैं जा रहा हूँ यहाँ से।"- फौजी ने कहा तो उन आँखों में विचित्र-सी उदासी छा गयी।
फौजी चला गया..!!! जाते वक़्त सकीना ना जाने किस के लिये स्वेटर बुन रही थी। साज़िया ने जब सकीना को बताया कि फौजी जा रहा है और आज उसने सकीना के निक़ाह के लिये भी उससे बात की थी सकीना का चेहरा लाल हो गया था। स्वेटर बुनने की रफ्तार तेज़ हो गई थी। मगर स्वेटर पूरा होता उससे पहले फौजी चला गया। सकीना ने स्वेटर वैसे ही रख दिया।
लगभग ढाई साल बाद अचानक दरवाजे पर फिर फौजी खड़ा था। सकीना की आवाज़ फिर अटक गई। साज़िया फिर उससे उसी कैफे में मिली और फिर निक़ाह करने का मशविरा दिया। फौजी ने उसी मुस्कान से कहा "आप जानती हो, साज़िया। मैं किसी और से इश्क करता हूँ।"
"...तो क्या हुआ? तुम मर्दों को तो चार बीवियां लागु हैं।"- फौजी ने गौर से देखा साज़िया की आँखों में ढाई साल में उन के नीचे कुछ काले घेरे भले ही आ गये थे लेकिन बीते वर्षों में उन आँखों का सम्मोहन अभी भी कम नहीं हुआ था।
सकीना के स्वेटर के धागे फिर से जुड़ने लगे थे। बुन जाने के बाद साज़िया ने पूँछा था। " किस के लिये बुन रही है रे।"
सकीना कुछ ना बोली, चुपचाप उसे बक्से में बंद कर आई।
फौजी फिर चला गया। सकीना अक्सर रात के अँधेरों में उस बक्से को खोलती और स्वेटर से सिर टिका के ऐसे रोती जैसे किसी के सीने से लग के सारे आँसू निकाल रही हो।
साजिया ना चाहते हुए भी सुन लेती थी उन सिसकियों को। और खुद से फिर कहती या खुदा क्या तक़दीर पाई है। अब्बा इस हरकत पे कितनी लानते भेजते और खाँसी के दौरों को दावत देते। इसी खाँसी के एक दौरे में एक दिन वे अपने बेटों की दुनिया में चले गये।
उस दिन सकीना अचानक से खड़ी हुई साज़िया के पास आ कर " आपा वो बाहर एक नया जोड़ा घूमने आया है।"
साज़िया ने सिर उठा जर सक़ीना की आँखों में बात समझने की गरज़ से झाँका। और सवालिया निगाह उसके चेहरे पर रखी।
"वो जो आये हैं न वो, उस फौजी के साथ हमेशा दिखते थे। वो सिपाही है शायद।"
"हम्म्म्..!" अब समझी थी साज़िया। उस सिपाही से उस फौजी का पता जानना चाह रही थी सकीना। घुटनो पर हाथ रखती हुई साजिया उठी और आवाज़ दी, उस सिपाही को।
" ओ साब..! ओ साब..!" सिपाही ने मुड़ कर देखा तो साज़िया दौड़ती हुई पहुँची उसके पास।
" वो साव, वो कैप्टन साब थे ना जो आपके साथ थे, यहाँ अक्सर...!!
सिपाही कुछ बोलता इससे पहले उसकी पत्नी बोल उठी " कौन वो गौतम साहब, की बात कर रही है क्या ये।"
सिपाही कुछ हड़बड़ाता हुआ बोला " नही नही..!"
" अरे वही तो थे आपके कैप्टन यहाँ और कौन था। आप ही तो बताते हो।"
"सिपाही अपनी नई पत्नी के सामने कुछ भी बताने में असमर्थ।"
सक़ीना पीछे से आ गई थी। साज़िया समझदार थी बहुत दिनो से सम्हाल रही थी ऐसे हालातों को। उसने तुरंत खुद को संयत करते हुए कहा। "हाँ हाँ वो गौतम साब..! बताया तो था उन्होने। आपकी बटालियन फिर यहाँ पोस्टेड हो गई क्या साब।
"नही नही।" सिपाही फिर नही समझ पा रहा था कि क्या कहे। उसकी बातूनी पत्नी फिर बोल उठी। "नही इनकी पोस्टिंग नही हुई , असल में हमारी नई शादी हुई है ना, तो मेरा हमेशा से मन था कि हनीमून कश्मीर में मनायें लेकिन यहाँ कोई आये कैसे..! वो तो ये यहाँ के चप्पे चप्पे के जानकार थे और फौजी होने के कारण थोड़ा सेफ्टी भी थी इनके साथ। तो......!"
साज़िया ने लड़खड़ाती हुई लौटती सक़ीना को देखा और उस औरत से जल्दबाजी में कहा " खुदा आपका जोड़ा बनाये रखे" और सकीना के पीछे चल पड़ी
सकीना बच्चो को खाना खीला रही थी। साज़िया के लिये कहवा चढ़ा दिया था।
साज़िया सकीना को सुनाती हुई खुद में बड़बड़ा रही थी
"काफिर...! अब्बू को आदमी की पहचान थी। हुम्ह..! एक बार कहा तो होता कि वो मुसलमान नही है। अरे मेरे पेट की आग तो मुझे किसी के साथ भी वो काम करने को मजबूर ही करती जो उसके साथ कर रही थी। जैसे हिंदू वैसे मुसलमान...! लकिन कम से कम इस नादान की आँख में तो सपने ना पलने देती।" आँसू उमड़ घूमड़ कर आते और साज़िया उन्हे दुपट्टे की कोर से पीछे ढकेल देती। सकीना कहवा दे गई। खाना खा कर दोनो सो गई।
रात को बकस खुलने और सकीना के रोने की आवाज़ फिर आ रही थी। साज़िया समझ गई कि सकीना फिर उसी सीने में मुँह छिपाये है। उसने छोड़ दिया उसे ये सोच कर कि जब कोई यूँ किसी सीने से सिर लगा कर रोय तो बीच में आना शऊर के खिलाफ है। उसने छोड़ दिया सकीना को उस उस सीने के साथ।
सुबह सकीना अब तक नही उठी थी। लगता है रात देर तक रोती रही। साजिया ने कहवा बनाया और सकीना को उठाने के लिये गई। सकीना सोई नही थी....! वहीं लुढ़की पड़ी थी। नींद की गोलियों का पूरा पत्ता पड़ा था पास में ढेर सारी दवाईयाँ अंदर जा चुकी थी। पास में एक रुक्का था जिसमे लिखा था "आपा तुम्हारा चाहने वाला तुम्हे जीने के लिये वो निशानियाँ दे गया, जिसके सहारे तुम खुदा की नज़र में गिर कर भी जी सकती थी। मगर मेरा चाहने वाला मुझे अपनी नज़र में ही गिरा गया। सोचती हूँ क्यों नही जान पाई उसकी हकीकत मैं। लगता था कि क्या पता कभी खुदा मेहरबान हो और चार बीवियाँ लागु का हक़ पाने वाले उस मर्द के मन में कुछ मेरे लिये भी आ जाये। उसकी बीवी की नौकरानी बन के रह लेती मैं, अगर वो मुझे अपनी बीवी होने का रुतबा दे देता.....!!!!! अब किस के लिया जीना आपा।"
साज़िया की आँखों में आँसू नही थे। उसने चुपचाप साज़िया के कपड़े ठीक किये। पास पड़ा स्वेटर उठाया और मौलवी साब को बुलाने चल दी। साजिया को दफन करने के साथ वो स्वेटर भी दफन करने चली तो एक बार उस सीने से लग के खुद भी खूब रोई, जिसमें सकीना सुकून पाती थी। और फिर अपने बच्चों और एक बक्स उठाये जाने कहाँ चल दी....! किसी ने उससे पूँछा भी नही...! दबी जुबाँ से सब कह रहे थे "कितनो को मरवाया इसने अपने पर पड़ी तो कैसा रोना आ रहा है..!!!!"
नोटः आज सुबह नेट खोलने के साथ ही पढ़ी गौतम जी की कहानी, जिसका पात्रों की सच्ची जिंदगी से मेल खाना मात्र संजोग ही होगा...! नही जानती कि ये साजिया कौन थी। मगर बार बार ज़ेहन में आती रहीं। १ बजे वीर जी से इसके आगे की काल्पनिक कथा लिखने की इजाजात माँगी..! १.३० बजे शुरू की और अभी ५ बजे पूरा किया। सब ड्राफ्ट ही है। फेयर करने का समय नही मिला। बार बार सकीना की नीयत खुद निर्धारित करने पर अफसोस हो रहा था। मगर मेरी सकीना वाकई काल्पनिक है। खुदा हक़ीकी साज़िया और सकीना को लंबी उम्र और हर बरक्कत दे।
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31 comments:
ek achhi rachna....achha laga padhkar
कहानी आगे आपने अच्छी बुनी कंचन पर न जाने मुझे इसका अंत पसंद नहीं आया ...गौतम की कहानी की सकीना एक मोहब्बत का एहसास कराती है ,उस मोहब्बत का जो रुबरु हो न हो पर कभी ख़त्म नहीं होती, न उसकी खुशबु रूह से जाती है ..वही उस कहानी की पाकीजगी थी .और वही एक उम्मीद कि कहाँ होगी वह ?..एक और तलाश की शुरूआत भी है उस में ? ...पर यह अंत जैसे उस मोहब्बत से रिश्ता तोड़ गया जो उस कहानी को पढने वाले मन ने उस कहानी से ,उस कहानी के पात्रो से जोड़ गया था ...यह मेरी सोच है सो मैंने यहाँ लिख दिया ..
शाम को नेट खोला .पहली नज़र आपके ब्लॉग पे ....कुछ देर पढ़ा तो कई कहानिया याद आयी..कश्मीर पर बनी एक फिल्म भी ....जिसके कई खूबसूरत गाने है...जिमी शेरगिल एक फौजी ..आखिर तक पहुँचते पहुँचते आपका ये सब्जेक्ट उठाने का मौजू समझ आया ...अभी गौतम का अफसाना पढ़ा नहीं है...इसलिए असल कमेन्ट नहीं करूँगा .बस इतना कहूँगा ...दिलचस्प है..उसका अफसाना पढ़कर आपसे कुछ कहूँगा ...
अच्छी है पर अभी कच्ची है…
इसी प्लाट पर गौतम जी द्वारा प्रेषित कहानी भी पढ़ी थी...यह कहानी उसी का विस्तृत रूप लगा...परन्तु विषय वस्तु इतना प्रभावी है की कुछ ही अन्तराल में दुबारा पढना भी उतना ही रुचिकर लगा...
बहुत ही संवेदनशील,मन को छूकर झकझोरने वाली कहानी है....
मन भारी हो गया...पर यही तो कथा की सार्थकता है.....
बहुत ही सुन्दर लिखा है बधाई...
बेहतरीन प्रयास के लिये बधाई...
कल्पना के आधार पर कहानी को आगे बढाने का सराहनीय प्रयास किया है !
कहानी में भावनाओं को उभारने का अतिरिक्त प्रयास प्रतीत होता है ! भावुकता का समावेश कुछ ज्यादा ही हो गया है !
साजिया कोई आम लडकी नहीं थी, यह तो स्पष्ट है फिर उसका इस तरह का अंत दिखाना उचित नहीं लगता !
एक बात तय है कि आपके अन्दर स्क्रिप्ट राईटिंग के सभी गुण विद्यमान हैं !यह अपने आप में कमाल की बात है !
बधाई !
आज की आवाज
MAIN IS SOCH ME HUN KYA IS TARAH SE ANT KARAANA SAHI HAI... MAGAR KYUN NAHI HO SAKTAA YE BHI SOCH RAHAA HUN...
HAR KISI KO MUKAMAAL JAHAAN NAHI MILTAA... YE SHE'R BARBAS YAAD AAGAYAA... MAGAR AAPKI KHUSURAT AADAAKAARI LEKHANI KE SATH BETARTIB AUR BEHAD UMDAA HAI SALAAM AAPKI LEKHANI KO...
ARSH
तुम्हारी अद्भुत कल्पनाशीलता का तुम्हारी लेखनी खूब साथ निभाती है...
दरअसल लोगों को दुखद अंत कभी नहीं भाता, अंत तो इस कहानी का और भी दुखद है, वैसा नहीं जैसा तुमने लिखा है। कुछ एकदम ही अलग...
वो साहिर लुधियानवी साब ने लिखा है ना
वो अफ़साना जिसे अन्जाम तक लाना न हो मुमकिन / उसे एक ख़ूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा
जहाँ धर्म आड़े आ जाए वहाँ चाहने पर भी कहानी को सुन्दर मोड़ पर नहीं पहुँचाया जा सकता। वैसे शायद यह कहानी कोई और दिशा ले ही नहीं सकती थी चाहे मृत्यु न भी होती।
घुघूती बासूती
गौतम भाई की कहानी अब देखूँगी ..ये कहानी मेँ माहौल बहुत सही पैदा किया है इस्लिये लेखन की सफलता ही कहूँगी मैँ इसे -
स्नेहाशिष,
-- लावण्या
कंचन जी ,कल ही गौतम जी की कहानी पढ़ी थी और उनसे उस की अगली किस्त लिखने को कहा था..अभी आप की यह कहानी पढ़ी जो उस के अलगे भाग के रूप में है.
कल्पना के सहारे आप ने इतने कम समय में यह कहानी तैयार कर दी!बहुत खूब!
कहानी का अंत मार्मिक है और देर तक छाप छोडे हुए है.
कहानी बहुत ही संवेदनशील है.........मन को छूकर गुज़र गयी...............काश्मीर की वादियाँ उतर गयीं दिल में ...........
गौतम की कहानी ऐसी कहानी है जिसमे लेखक स्वंय पात्र रहते हुए भी कहानी में दखल नहीं करता .न्यूट्रल दृष्टि से एक घटना को ..गुजरते देखता है ....सच कहूँ तो मन होता है उस पर एक शोर्ट फिल्म बना लूँ ......
अब आप पर आते है ....हर यथार्थ अपने भीतर अनेक सीक्रेट समेटे है ...एक घटना किसी एक काल में जब घटती है ..तो उसके आस पास ओर उस घटना से जुड़े सभी लोगो के लिए वो घटना अपने अपने रूपों में भिन्न होती है ..उसके बाद उनके जीवन में पड़ने वाले प्रभाव .....
यानी एक घटना की कई व्याख्या होती है....कई अर्थ होते है .....
आपकी कल्पनाओं की उडान ऊँची है .एक कहानी को पढ़कर तुंरत एक कहानी बुन लेना ..यानि अवचेतन मन में कही कुछ ऐसा था जो शायद कई दिनों से पड़ा था ..अचानक किन्ही पात्रो के जरिये ....हाँ थोडी भावुकता ज्यादा है .पर कंचन से वो स्वाभाविक है ...सिगरेट के वक़्त पहली मुलाकात बेहद दिलचस्प है ..उसके बाद भावुक हो गयी है.....
इस कहानी का अंत सुखद नहीं हो सकता ....आपने इसमें एक ट्विस्ट दिया है ...आपकी कहानी पढ़कर एक फ्रेंच कहानी याद आ गयी....बस उसमे मुख्या पात्र डॉ ओर नर्सेस थे......
behtreen likha hai...mujhe bahut bahut bahut pasand aayi ye
बहुत ही सुन्दर रचना
कहानी का ताना बाना अच्छा बुना है पात्र के आपसी संवादों के साथ । पर विषय कुछ नया सा चुना होता तो ज़्यादा बेहतर होता। अनुराग जी आप शायद यहाँ फिल्म की बात कर रहे हैं।
जी हाँ मनीष जी यहाँ का ही जिक्र है ...
कल ये पोस्ट पढ़ी थी. फिर गौतमजी की पोस्ट पढने चला गया... तब से कई बार ये दोनों पोस्ट दिमाग में घूम-फिर कर आये. और क्या कहूं ! मुझे तो एक-एक बात सच्ची घटना सी लग रही है... जीवंत कहानी!
story sundar hai lekin 'prakash govind' ji kee baat sahi lag rahi hai ki bhaavukta jyada aa gayi hai. story ka 'the end' prabhavit nahi karta.
आप सभी लोगों का अपनी बेबाक एवं सच्ची टिप्पणी देने का शुक्रिया....!
गौतम जी की पोस्ट का असर कुछ ऐसा था कि साज़िया बार बार आँखों के सामने से गुज़र जाती थी। पता नही उनकी साज़िया का व्यक्तित्व कैसा होगा, वो मेरी तरह ही जिंदगी के फलसफों को समझने में इतना समय लगाती होगी या नही, जितना विवश मैने उसे समझा, पता नही वो खुद को इतना विवश समझती होगी या नही, मगर मुझे बहुत विवश लगी वो। मुझे लगा कि अपने दो दो भाइयों को गँवाने के बाद जिस औरत को उसी की दी हुई रोटी पर जीना पड़ रहा है, जो उसकी घर की तबाही का कारण है। उसका वो शौहर जिस से उसने मुहब्बत की थी, उसे छोड़ के चला गया तो कहीं न कहीं ये फौजी भी जिम्मेदार थे उस के। इस के बावज़ूद वो विवश है उसी रोटी से अपना पेट भरने को। मुझे लगा कि ये उसका जिम्मेदार व्यक्तित्व ही है जो शब्बीर को शादीशुदा होने के बावजूद अपनी बहन से निक़ाह करने का बार बार निमंत्रण देता है, क्योंकि शायद वो जानती है कि उससे अच्छा शौहर उस की बहन को कोई मिल ही नही सकता या फिर उन भक्षक जिहादियों से बचाकर वो उसे किसी रक्षक के हाथ में सौपना चाहती है। फिर इस बात का भी दुःख हुआ कि जब उसे पता चलेगा कि जिस शब्बीर के ऊपर वो इतना विश्वास करती है कि अपनी नाजुक बहन को उसे सौंपने में भी नही हिचकती, जब उसे पता चलेगा कि उस शब्बीर की आइडेंटिटी ही गलत है तो शायद बहुत आहत हो उसका मन....! और फिर वो सकीना जो कहानी में कहीं है ही नही, मगर कहानी की मुख्य पात्र है, क्या उसने कभी शब्बीर के विषय में नही सोचा होगा..उस पर क्या बीतेगी जब वो हकीकत जानेगी।
सच है..! आदमी इतना भी कमजोर नही होता कि इन छलावो के बाद अपनी जान दे दे। मगर अगर इस कहानी को कहानी ही बनाना था तो अंत तो करना ही था सुखांत सच कहूँ तो अब भी नही समझ में आ रहा, हाथ में कलम है तो कर तो कुछ भी दूँ लेकिन जब तक अपनी आत्मा ना गवाही दे कैसे कर दूँ। किसी और से मिलवा दूँ, तो गौतम जी तो सिर्फ सूत्रधार ही रह जायेंगे। अपने वीर जी को इतना गौड़ कैसे कर दूँ। जिनके लिये जब मैने साज़िया के पिता के मुँह से बद्दुआएं निकलवाईं तो हाथ कुछ देर को ठहर गये और फिर उन्हे बहुत ही संयत किया कि "खुदा तेरा हिसाब करेगा।" क्योंकि पता था खुदा के हिसाब में उनका पलड़ा भारी पड़ेगा।
दूसरी कमी जो सब को लगी वो थी भावनात्मक अधिकता की। उसे शायद सब से अच्छी तरह समझा है अनुराग जी ने। अगर मैं भावनाओं के अलावा कुछ लिख पाती, तो इतने दिनो से हर बार लोगो की उलाहनाएं क्यो सुन रही होती ? मेरे लेखन की सबसे बड़ी कमजोरी ही ये है, कि मैं रोती धोती ज्यादा हूँ। मगर बदलना चाहो तो सच्चाई नही रह जाती। बिना सच्चाई के लिखूँ तो पाठ्यक्रम सा लगने लगता है और मैं हाथ पर हाथ धर के बैठ जाती हूँ।
तो ये था इस कहानी के ड्राफ्ट को चाह कर भी ना बदल पाने का जस्टिफिकेशन।
रंजना (रंजू) जी, अशोक जी, प्रकाश जी, अनुमेहा जी कहानी की उचित समीक्षा करने का धन्यवाद
अरविंद जी, योगेन्द्र जी, अर्श, घुघूती दी, लावण्या दी, अल्पना जी, दिगम्बर जी, अनिल जी, ओम जी, अभिषेक जी कहानी की कमियों के बावजूद मेरा उत्साहवर्द्धन करने का शुक्रिया।
वीर जी की तो मजबूरी थी इतने वोरोधी देख कर अनुजा को संभालने की।
अनुराग जी कहानी नही, मुझे और मेरी सीमाएं समझने का शुक्रिया। ..और संयोग से यहाँ फिल्म मैने गौतम जी को जानने के बाद देखी थी और उन्हे तुरंत मैसेज भी भेजा था कि ये फिल्म आपकी याद दिला रही है मुझे।
मनीष जी..। कम से क आपको तो नही समझाना पड़ेगा कि कभी भी विषय मैं नही चुनती हमेशा विषय मुझे चुनते हैं।
कहानी प्रवाह लिए हुए है.. गौतम जी को अभी पढूंगा.. मुझे कहानी अच्छी लगी.. अंत भी सही लगा.. पर कुछ लोगो का मूल भाव से हटकर किसी और सोच की तरफ जाना ठीक नहीं लगा.. स्क्रिप्ट राइटिंग के गुण तो है आपमें..
संजीदा कहानी है, पात्र मुखरित हैं परिदृश्य और परिवेश का निर्माण कहानी सहजता से करती है चूँकि कहानी किसी अन्य लेखक के शब्दों को आगे बढाती है इसलिए और भी महत्वपूर्ण है कि किस तरह से आपने उसको आत्मसात किया होगा और आप अपनी संवेदना और समझ को उस स्तर तक कैसे ले गयी होंगी? कहानी की बधाई
प्रिय कंचन
कटु प्रतिक्रिया को भी मीठे और सहज अंदाज से स्वीकार करने के लिए आभार !
स्पष्टीकरण दिल को बहुत भाया !
बहुत बार ऐसा होता है कि जब रचनाकार सामने आकर पाठक/आलोचक से संवाद करता है तो दूरियां सिमट जाती हैं ! इस तरह से पाठक / आलोचक भी रचना प्रक्रिया से जुड़ जाता है ! रचनाकार का मानसिक द्वंद और उसके भीतर उमड़-घुमड़ रहे भाव सामने आते हैं तो अनेक प्रश्न स्वतः समाप्त हो जाते हैं !
एक ही कहानी पर अगर बड़जात्या और गोविन्द निहलानी साहब फिल्म बनायेंगे तो दोनों का ट्रीटमेंट अलग होगा !हर एक की अपनी अलग शैली होती है हर एक की अपनी पसंद !
हम्म्म्म्म्म्म्म
दिलचस्प टिप्पणियां....
ak achhi khani
ओह! तो आप इतनी अच्छी कहानियां लिखती हैं...कहानी का प्रवाह अंत तक बांधे रखता है। एक बार जो पढ़ना शुरू करे वो पूरा किये बिना बीच से नहीं छोढ़ सकता। लिखती रहें...यही आपका कलम के प्रति सच्चा न्याय होगा।
ज्यादा कुछ तो नहीं जानता मैं इस बारे में मगर इतना कहना चाहूंगा कि आपकी कहानी ने दिल को छू लिया...आरम्भ से अंत तक पढ़ते हुए रोचकता बनी रही, और इसी बीच कब कहानी ख़त्म हो गयी पता ही नहीं चला.....
साभार
हमसफ़र यादों का.......
kanchan ji kabhi apni awaaz mein koi rachna jarur sunayeeyega..podcasting mein koi help chaheeye to main jitna janti hun utni help kar sakti hun.
bahut hi achi kahani hai ......
कंचनजी, एकही झटके मे मैने पुरी कहानी पढी। मसला गंभीर,सच्चे जीवनमान का होते हुए भी आपने संयत रूपसे सम्हाला हैं। रोनेधोनेसे जीवन की समस्याए हल नही होती उनसे जैसे तैसे जूझनाही पडता है,य आपकी दोनो किरदारोंमे अपने बखुबी दिखाया- मुझे बहोत पसंद आया। आपकी और भी रचनाए पढ रही हूं, टिप्पणीयां देती रहूंगी। प्रशंसा के साथ शुभकामनायें। मुलाकात होती रहेगी।
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