सोचती हूँ कि वो रातें,
जो इस तसल्ली मिली बेचैनी से बिता दी जाती थीं,कि इधर हम इस लिये जग रहे हैं क्योंकि
उधर कोई जागती आँखें ले कर जगा रहा है हमें....
कितनी आसानी से कट जातीं,११ रू के एसएमएस पैक से,
सायलेंट मोड मोबाईल के साथ।
या वो दिन,
जो इस सोच में कटते थे कि
तुम जाने कहाँ होगे आज....?
कितनी तसल्ली से बीत सकते थे,
किसी सोशल साइट पर तुम्हारे स्टेटस अपडेट से तुम्हारा हाल ले कर।
तुम्हें खोजना होता कितना आसान,
जब तुम्हारा नाम लिख कर,
बस सर्च पर अँगुली मार देती,
और तुम अपनी सबसे अच्छी तस्वीर के साथ,
मुस्कुराते हुए पहचान लिये जाते।
तुम्हारी बातों की लज्ज़त,
तु्म्हारे दाँतों की चमक को पाने के लिये,
तुम्हे आँखों में बुला कर चादर के लेट जाने
की ज़रूरत ही क्या थी?
जब तुम वीडिओ चैट में,
सामने छोटी सी स्क्रीन पर,
एक आन्सर पर क्लिक के मोहताज़ होते।
बहुत छोटा सा फासला था,
उस युग से इस युग को तय करने का,
बस अगर इतना होता,
कि जिन साँसो को मैं ढो रही हूँ,
उन साँसों को तुम जी पाते ............!!
32 comments:
अच्छी कविता लिखी गई है, इसका मतलब है तुमको कविता लिखने के लिये सिद्धार्थ नगर की आबो हवा सूट करती है ।
उन साँसों को तुम जी पाते
बढ़िया बहुत बढ़िया
excellent
अच्छी कविता. अपने ही मूड में बहती हुई.
बड़ी हाईटेक कविता है.. हृदय गवाक्ष पर इस से पहले इस तरह की कविता नहीं पढ़ी.. टेक इट एज कॉम्प्लीमेंट मदाम
kyaa baat hai ... kitni aadhunik
सुन्दर भाव संयोजन्।
कि जिन साँसो को मैं ढो रही हूँ,
उन साँसों को तुम जी पाते ............!!
बहुत सुंदर कंचन जी ...अच्छी लगी आपकी रचना
गुरू जी आपकी आमद, इस से पहले जब हुई थी गवाक्ष पर वो भी सिद्धार्थनगर मे ही लिखी गई थी। तो आपकी बात के नीचे इति सिद्धम् लिख सकती हूँ।
असल बात ये भी है कि मैं खुद रचना करने में समर्थ हूँ ही नही। लेखनी ने मुझे चुना है, मैने लेखनी को नही। वो जब चाहती है तभी आती है, मेरे बुलाने से तो कभी भी नही, चाहे मैं जितनी पीड़ा महसूस करूँ, उसकी अनुपस्थिति से।
@ सोनल ! आधुनिक या सामयिक ?? :)
पारुल, रचना दी, किशोर जी, कुश, वंदना जी, मोनिका जी THANX
बड़ी गजब की कविता है जी। बधाईयां!
बहुत तबियत से डूब कर यह आवाज़ निकली है, घुटी हुई मुखर कविता है .
जिस तरह से अत्याधुनिक तकनीक को अपनी कविता में जगह दिया गया है वो वाकई कविता लेखन में सबसे पहले इस्तेमाल किया जा रहा है ! अगर कोई भी इस कविता को पढने के बाद अगर इस तरह से इस्तेमाल किये गए शब्दों से या ऐसे ही बिम्ब पर आधारित कविता पड़ेगा तो कंचन का नाम जरुर लेगा की इस तरह की कविता को जन्म देने वाली कंचन ही है ! मैं कहता न था की मुझे गुरु कुल में सबसे ज्यादा तुम पर भरोसा है की अगर कुछ नया हुआ जो चमत्कारी होगा तो वो यही से होगा ... और ये पहला कदम है इस तरफ ... हाँ वाकई सिद्धार्थ नगर वाकई तुम्हारे लिए शुभ है ! और हमारे लिए भी !
अर्श
:) :)
थोड़ा ज्यादा हो गया अर्श ! मैने ऐसा पहली बार लिखा ज़रूर है, मगर पढ़ा बहुत बार है ऐसा लिखा, ब्लॉग में दर्पण, सागर, अपूर्व, डिंपल, कुश, डॉ अनुराग की त्रिवेणियाँ बहुत पहले से इस तरह का, मगर इससे बहुत अच्छा लिखती हैं।
मुझे पढ़ना हर बार अच्छा लगता था, मगर कल इसे दिल से महसूस किया तो लिखा कल।
अनूप जी और सागर जी शुक्रिया !
अपने ही मूड में बहती हुई,बहुअच्छी कविता| धन्यवाद|
siddharth nagar takes the best out of you....
अंधेरे में मोबाइल की रौशनी में कभी मैं भी लिखने का ट्राय मारता हूं, क्या पता ऐसा ही कोई मास्टरपीस लिख डालूं।
वैसे अगर बगैर बताये पढ़वाती तुम तो शर्तिया रूप से मैं इसे दर्पण की कविता मानता....दर्पण को इन बिम्बों पर मास्टरी है। अब तुम्हारी मास्टरनी ;-)
दीदी,
मुझे लगता है यह कविता आपने लिखी नहीं है
कही है
जैसे ग़ज़ल कही जाती है वैसे ही आपने इसे कह दिया है
शुरुआत आपके चिरपरिचित अंदाज़ से हुई
मध्य के किये प्रयोंगों ने चौंकाया
और अंत ...
कि जिन साँसो को मैं ढो रही हूँ,
उन साँसों को तुम जी पाते ............!!
हूँ ,,,,
भौतिकता के मापदंडों से मन छटपटाहट को आंकने और तौलने का यह अंदाज़...
समझ नहीं पा रहा की केवल "अच्छा लगा" कह कर PUBLISH YOUR COMMENT का बटन दबा दूं या यह कहूँ की मैंने इसे बहुत करीब से महसूस किया
आजकल मैं हर बात में कन्फ्यूज हो जाता हूँ
पता नहीं क्यों
बहरहाल... धन्यवाद
कि जिन साँसो को मैं ढो रही हूँ,
उन साँसों को तुम जी पाते ............!!
the best part!
बहुत ही शानदार
कंचन जी!
आपने बहुत सुन्दर और सशक्त रचना लिखी है!
महिला दिवस की बहुत-बहुत शुभकामनाएँ!
केशर-क्यारी को सदा, स्नेह सुधा से सींच।
पुरुष न होता उच्च है, नारि न होती नीच।।
नारि न होती नीच, पुरुष की खान यही है।
है विडम्बना फिर भी इसका मान नहीं है।।
कह ‘मयंक’ असहाय, नारि अबला-दुखियारी।
बिना स्नेह के सूख रही यह केशर-क्यारी।।
प्रौद्योगिकी और भावों का यह काव्यमयी संगम अपनी विशेष पहचान बनाने में सफल रहा है।
कविता जब अपने समय के साथ चलती है ..वह सफल रहती है..आपकी कविता न सिर्फ आज के समय के साथ बल्कि बहुत से लोगों से जुड़ने का गुण भी रखती है... बहुत अच्छा लगा आपको पढ़ना... बहुत बहुत शुक्रिया...
जब तुम वीडिओ चैट में,
सामने छोटी सी स्क्रीन पर,
एक आन्सर पर क्लिक के मोहताज़ होते।
वाह क्या अंदाज है कंचन जी, बहुत खूब|
जिन साँसो को मैं ढो रही हूँ,
उन साँसों को तुम जी पाते ............!!
उफ्फ...............इस कहन की जितनी तारीफ की जाए कम है|
कभी कम कभी ज्यादा बहन पे प्यार आया और उधेल दिया ! मगर सच्चाई तो है ही !
Did you mean...
Did you mean...
..always takes things otherwise. :-(
For sure Google is Feminine !
sundar kaha hai.!
ek aur baat kah doon, matraon ke bandh se bhav kahin upar bahte hain, bager bahar me likhi ye kavita nihayat apne sondarya ke charam par hai
सोशल साईट का स्टेटस अपडेट,
सर्च पर बजती उंगली,
नज़रों के सामने
दांतों की चमक लिए सुन्दर तस्वीर,
स्क्रीन की क्लिक से
विडिओ चैट,
उस युग से इस युग का फासला,,
जाने
क्या-क्या कुछ
दिल के बस में
नहीं रह पाता....
और
रह पाता है तो बस
कुछ ना जी जा सकी ,,,
सांसों को ढो पाना ......... !!
बहुत प्रभावशाली "तक्नितात्म्क" रचना
क्या बात है कंचन जी. ये अकविता तो कमाल की है.
"असल बात ये भी है कि मैं खुद रचना करने में समर्थ हूँ ही नही। लेखनी ने मुझे चुना है, मैने लेखनी को नही। वो जब चाहती है तभी आती है, मेरे बुलाने से तो कभी भी नही, चाहे मैं जितनी पीड़ा महसूस करूँ, उसकी अनुपस्थिति से। "
कंचन , क्या मैं इन पंक्तियों को चुरा लूँ.... बेहद खूबसूरत ...
कविता का नया अंदाज़ मन मोह गया ...
कंचन जी ! मैं कन्फ्यूज हो जाता हूँ ....आप कविता को जीती हैं या कविता आपको जीती है. मैं हिन्दी काव्य के क्षितिज पर एक अत्यंत प्रकाशवान सितारा देख पा रहा हूँ .....इसे तारीफ़ में मत लीजिएगा .......भविष्यवाणी है यह. हाँ आपसे एक विनम्र अनुरोध (यूं आप बहुत -बहुत छोटी हैं मुझसे पर आपसे अनुरोध करना अच्छा लग रहा है ) यह कि अक्षर माइक्रोस्कोपिक हो गए हैं ......फॉण्ट थोड़ा सा बड़ा कर दीजिये पढ़ने में सरलता रहेगी.
kya kaha jaye ....aisa lagta hai ki man ke bhavo ko shabd mil gaye ho...
bas agr itna hota.....bahut hi behtrin rachna....tarif ke liye shbd hi nahi hai...
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