Wednesday, March 11, 2015

नारी पीड़ा लेखन के पीछे -शिवमूर्ति जी के जन्मदिन पर परिवार का साक्षात्कार भाग-1

      

शिवमूर्ति जी का पूरा परिवार ही बहुत मिलनसार है। सरिता जी से ले कर उनकी बेटियाँ और नाती, नातिने भी। शिवमूर्ति जी जैसे व्यक्ति की वंशावली में शामिल होने का प्यारा सा भान सबको है, मगर अभिमान किसी को भी नही। सरिता जी से एक बार उनके घर पर मिलने के पश्चात् जब दूसरी मुलाकात लमही समारोह में होती है, तो शिवमूर्ति जी को ढेर सारे लोगो में घिरा देख मैं अपने कदम पीछे कर लेती हूँ और सरिता जी को प्रणाम करके ही आगे बढ़ने को होती हूँ, तभी उनका प्रश्न होता है "मिलोगी नही क्या ?” मेरे ये कहने पर कि अभी तो काफी भीड़ में हैं, मै फोन पर बात कर लूँगी। वो "कभी खुशी कभी ग़म" फिल्म की जया बच्चन स्टाइल में शिवमूर्ति जी को धीमे से खटखटाती हैं जिसे साहित्यिक भाषा में हाथ पर दस्तक देना और ठेठ भाषा में खोदना कह सकते हैं, मगर शिवमूर्ति जी तो अपने प्रशंसकों से घिरे हुए हैं। आज उन्हे ये खटखटाहट जानी पहचानी भी नही लगी। वो उसी तरह बधाईयाँ बटोरते रहे। आखिर सरिता जी ने अपने विशेष अधिकारों का प्रयोग करते हुए, उनका हाथ पकड़ा और थोड़ा सा खींच कर उन्हे मेरे सम्मुख ला कर खड़ा कर दिया " कितनी देर से लड़की मिलना चाह रही है" कह कर। मुझे ये अपनापन सम्मानित सा कर गया।





व्यक्ति समाज में जैसा होता है ज़रूरी तो नही कि घर में भी वैसा ही हो घर में तो अपने सारे आवरण उतारकर प्रवेश करता है, तो क्यों ना ये जानने की कोशिश करूँ कि ये नारी पीड़ा समझने वाला व्यक्ति असल जिंदगी में कैसा है ? छः बेटियाँ है, स्त्री विमर्श की सारी कलई तो यहीं से खुल जायेगी। देखूँ तो विमली और केशर के दुख से लोगो को रुला देने वाल रचयिता स्वयं अपनी पुत्रियों के साथ सनातनी पुरुष सा ही व्यवहार तो नही रखता... और इसी बात की टोह ने मन में इच्छा जगाई उनकी संतानों से मिलने की। संतान जिनमें छः बेटियाँ है।

और फिर मैने एक एक कर सबके विचार लिये।

सभी बहनों मे अद्भुत बॉंडिंग। ऐसी कि कभी बाहर कोई मित्र बनाने की ज़रूरत ही नही पड़ी़ और फिर उमा और कला उनकी बुआ की लड़कियाँ दो बोनस आफर भी तो थे उनके पास। मोहल्ले में अगर किसी से खुट्टी हो जाये तो पलट के इनमें से किसी को भी मनाने जाने की ज़रूरत नही है। क्योंकि यहाँ तो कोई स्पेस बनता नही था, इतने बड़े ग्रुप से छूटने के कारण कमी तो उनकी जिंदगी में आई थी। तो वो ही पलट के आते मिट्ठी करने।

वो जमाना जो लैण्डलाइन का जमाना था, जो ढेर सारी मिस कॉल और ब्लैंक कॉल्स का जमाना था, तब एक के बाद दूसरी लड़कियों के हेलो सुन कर खीझा व्यक्ति पूछ ही बैठता "पहले बताओ कौन सा गर्लस् हॉस्टल है ये" और ठहाका मार के हँसती सब बहने।

बड़े छोटे का कम्युनिकेशन के लेवल पर कोई भेद नही, मगर फिर भी एक अनकहा अनुशासन भी। जो हँसते खिलखिलाते, बिना एक दूसरे पर थोपे ही सहजता सुगमता से अपनी तरह से चीजों को सिस्टम में लाये हुए है।
 बेटियाँ जो कहती हैं कि पापा उन्हे हर साल 15-20 दिन का टूर बना कर घुमाने ले जाते थे। हम सब छोटे छोटे थे और हमें बटोर कर ले जाना.... बेटियाँ अब जब खुद बेटियों को जन्म दे चुकी हैं, तो उन्हे लगता है कि ये कठिन काम था, इतने सारे छोटे छोटे बच्चों को ले कर घुमाने ले जाना और परेशान भी ना होना और फिर अगली साल दोबारा उसी उत्साह से तैयारी कर लेना। उन्हे लगता है कि सब यही सोचते रह जाते हैं कि सब बच्चों को सेटल कर के सारी जिम्मेदारियों से मुक्त होने के बाद फिर घूमेंगे। लेकिन शायद ही किसी का ये स्वप्न पूरा हो पाता हो। ये पहले पापा ही हैं जिन्होने सारी जिम्मेदारियों के साथ ये भी जिम्मेदारी निभायी। मम्मी को भी साउथ अफ्रीका, अमेरिका, यूरोप, केन्या, कनाडा हर जगह ले गये।

बेटियाँ जिनकी शादी ढूँढ़ने के पहले शिवमूर्ति प्यार से अकेले में पूछ लेते "भईया, कोई लड़का पसंद हो तो बता दो। हम उसी से शादी करा देंगे। बेटियों का कहना था कि हम शॉपिंग करने जाते हैं, इतनी पसंद से ड्रेस खरीदते हैं और घर आने के बाद वो ड्रेस हमें खराब लगने लगती है। जीवनसाथी में तो ये हो नही पायेगा कि अब नही पसंद रहा, छोड़ो, तो ये डिसीज़न पापा ही लें तो अच्छा है। क्योंकि भरोसा था बेटियों को कि पापा ठोंक बजा कर लेंगे निर्णय।

बेटियाँ जिनकी शादी ढूँढ़ते समय शिवमूर्ति जी हँस कर कहते "भला क्या नेल्सन मंडेला लड़े होंगे रंगभेद के लिये जितना मैं लड़ रहा हूँ।"

बेटियाँ जिन्हे पापा कहते हैं "ये हमारे मित्र इनेस फॉरनेल, जर्मन की बनी वाइन भेंट में दे गये हैं। आओ ज़रा ज़रा सा चख के तो देखो तुम लोग कि आखिर स्वाद कैसा होता है वाइन का।" और बेटियाँ झिझकतीं। मगर सब को बैठा कर ग्लास में थोड़ी थोड़ी कर के वाइन दी जाती "चख के देखो, पता होना चाहिये ना।"

शिवमूर्ति जी की सबसे बड़ी बेटी रेखा का जन्म उनकी बेरोजगारी के उस कालचक्र में हुआ था, जब वे शायद भरतनाट्यम के नायक को बहुत कुछ जी रहे थे। एक पेड़ में पुरानी साड़ी या चादर का झूला बना कर सरिता जी उन्हे लिटा देती और वो नवजाता उस पेड़ पर बैठे कौवे को ताकती रहती है। उसके बोलने से चुप होती है और उड़ जाने पर उस साथी को खोजने के लिये उड़ ना पाने की असमर्थता में रोने लगती है। शिवमू्र्ति जी को ये चिंता नही है कि वो बेटी है या बेटा, उन्हे चिंता इस बात की है कि एक संतान भी गई और मैं अभी स्वयं की, पत्नी की, माँ की और पिता की ही जिम्मेदारियाँ उठाने में स्वयं को असमर्थ पा रहा था, तो अब एक और संतान की जिम्मेदारी, पढ़ाई, लिखाई एक अच्छी जिंदगी कैसे दे पाऊँगा आखिर और वे घर वापस कर पूछते " ये जिंदा है अभी तक ?" माँ सरिता को बात चुभ जाती " क्यो नही जिंदा रहेगी।" और वो अपनी बेटी को उस इंस्टैंट या एड्जस्टेबिल झूले से उठा कर अपने सीने में दुबका लेतीं।


वो रेखा आज डेंटल सर्जन हैं और साथ ही साथ एक बहुत अच्छी माँ की भी भूमिका बड़ी तत्परता से निभा रही हैं, अपनी बहुत प्यारी सी बेटी स्निग्धा के साथ जब वो खड़ी होती हैं, तो माँ कम, बड़ी बहन अधिक लगती हैं। स्निग्धा और सिद्धार्थ के प्रति जागरुक माँ कभी आपको स्निग्धा को कोचिंग छोड़ कर किसी पेड़ के नीचे कोई पत्रिका पढ़ती उसका क्लास छूटने का इंतज़ार करती मिल जायेगी और कभी सिद्धार्थ की पैरेंट टीचर मीटिंग अटेंड करते। ये शायद पिता की तरफ से मिली सादगी और सहजता है, और उनका हँसमुख स्वभाव जो उनके चेहरे पर लावण्य के रूप में दिखता है।

रेखा स्नातक के बाद गयी बीडीएस करने। उनके हॉस्पिटल में अभी भी लोग उन्हे इन्टर्न समझते हैं। अगर अपना बैच और बिल्ला ना लगायें, तो लोग उन्हे इंटर्न समझ किसी वरिष्ठ डॉक्टर की तलाश करने लगते हैं, अपने इलाज के लिये। ये अलग बात है कि इलाज कराने के बाद वे ज्यादा संतुष्ट रहते हैं रेखा जी के इलाज से बनिस्पत और डॉक्टरों के इलाज के।

रेखा जी से जब मैं पूछती हूँ कि "कैसा लगता है खुद को शिवमूर्ति जी की बेटी के रूप में पा कर ?" तो जवाब
मिलता है, " बहुत ही अच्छा लगता है, प्राउड फीलिंग आती है असल में। कभी लगता है काश हम भी कुछ लिख पाते, लेकिन कभी कोशिश नही की और फिर कुछ बना भी नही।" मेरे प्रश्न पर कि "कभी कुछ लिखने का मन नही हुआ" के जवाब में वे कहती हैं कि " मन तो हुआ ही। बल्कि मेरे बचपन में एक मैगेज़ीन आती थी "मेला" तो उसमें अधूरी कहानी निकलती थी, उसे मैने पूरा किया था। पापा ने उसमें कुछ सुधार भी किये थे, यहाँ ऐसे कर लो यहाँ ऐसे कर लो। उसमें मुझे फर्स्ट प्राइज़ भी मिला ५० रुपये।" मैं मुस्कुरा देती हूँ। शिवमूर्ति जी की अंशिका लिखे, शिवमूर्ति जी सुधार करें तो वो अव्वल क्यो ना होगी भला ?

  मै पूछती हूँ "कभी कम्यूनिकेशन में समस्या तो नही आई ?" " नही नही। कोई समस्या नही।
कम्यूनिकेशन बहुत अच्छा रहा हम सब भाई बहनो का। कोई हेसिटेशन नही रही कभी। किसी भी टॉपिक पर हम लोग बात कर लेते हैं, कोई भी बात शेयर कर लेते थे या कोई भी समस्या हो तो कह लेते थे। ऐसा नही था कि वो पापा हैं, इसलिये ये बात नही कही जा सकती

मैने पूछा कि एक पिता के रूप में पिता क्या हैं आपके लिये ? तो उन्होने सीधा सा जवाब दिया कि
पिता के रूप में एक पिता ही हैं। वो सारी चीजें जो एक पिता को पिता बनाती है, वो सब पाती हूँ उनमें। ऐसी कोई चीज़ नही है, जो उनकी जानकारी में ना हो, मतलब मुझे क्या चाहिये, क्या ज़रूरत है ? या कहीं आना जाना है या और कुछ भी और.. सब उनको टाइम टु टाइम याद रहता है। घर में रहें या बाहर, हॉस्टल में भी जब रही, कब क्या होने वाला है उन्हे पता होता। कोई महत्वपूर्ण अवसर है, तो उन्हे पता होता कि ऐसा ऐसा होने वाला है और वो याद दिला देते कि ये कर लेना, ऐसा कर लेना।

   उनके व्यक्तित्व के विषय में रेखा जी का कहना है कि बहुत ही सरल, साधारण, सीधा,सादा, कहीं भी बनावटीपन नही, जिससे भी मिलना बड़ी सरलता से, बिलकुल आत्मीयता से। उनका सबसे बड़ा गुण सबका ध्यान रखना है।

रेखा कहती हैं कि असल में पापा हमें किसी भी चीज़ के लिये सीधे मना नही करना चाहते थे। वो चीजें हम पर थोपना नही चाहते थे। उसे अलग अलग तर्कों से या अलग तरह से कह कर मनवाना चहाते थे। मूवी देखने के हमारे क्रेज़ को कम करने के लिये वो कहते " ये क्या कि किसी के लिये इतने दीवाने रहो, अरे खुद को इस क़ाबिल बनाओ। मेरे सामने तो अमिताभ बच्चन भी जायें तो मैं भी फरक ना पड़े।"

बच्चे आखिर शिवमूर्ति के बच्चे थे, वे भी तपाक से जवाब देते " हमे भी यही लगता है, इसीलिये तो हमारे सामने अगर फणीश्वर नाथ रेणु भी जायें तो हमें फर्क ना पड़े।"

हाल ठहाकों से गूँज जाता है, इस हाज़िरजवाबी पर।

सबसे बड़े अवगुण के बारे में पूछने पर वो असमंजस में पड़ जाती है और दिमाग पर जोर डलाती हुई
कहती हैं "अवगुण तो ???" अवगुण तो नही नज़र आता कुछ।" मैं बात खोद कर निकालना चाहती हूँ। "शिवमूर्ति जी की बेटी बन कर मत बोलिये"
वो हँस कर जवाब देती हैं " नही नही, उनकी बेटी बन कर नही बोल रही, मुझे उनमें सच में कोई अवगुण नही नज़र आता।"
मैं फिर से उकसाती हूँ " ऐसे कैसे ? हर आदमी में कोई ना कोई अवगुण तो होता ही है। ऐसे कैसे?"
हाँ ये तो आप सच कह रही हैं लेकिन पापा में कोई अवगुण दिखा नही मुझे। या फिर कभी सोचा ही नही, लगा कि बिलकुल परफेक्ट पापा हैं।"
मैने सहमति दर्शाने की गरज़ से अंत मे कहा " हाँ यही हो सकता है कि आप ने कभी सोचा ही हो इस दृष्टि से क्यों कि हम लोग अपने परिवार के अनुसार इतना अधिक ढले होते हैं कि हमें लगता है कि जो है वही परफेक्ट है, यानी पापा जैसे है, वैसे ही परफेक्ट हैं।"
कोशिश तो मैने अच्छी की थी उन्हे बातों में फँसाने की, लेकिन वो फँसी नहीं, उन्होने झट कहा "नही, नही, जब दूसरों से तुलना करती हूँ, तो भी अपने पिता ही अधिक अच्छे लगे। कभी कड़ाई के साथ कुछ नही कहा, कभी गुस्सा नही हुए, कभी डाँट खाई हो ऐसा भी याद नही। सब कुछ मेरी मर्जी पर, यानी बच्चो की मर्जी पर ही छोड़ा हुआ है उन्होने। हमेशा कहा कि ठीक है, तुमको ये ठीक लग रहा है तो कर लो ऐसा नही कि 'नही ये नही करना है या ऐसा होना चाहिये।कभी थोपा नही खुद को हाँ ये ज़रूर हो सकता है कि मोटिवेट कर के वो वही कराते, जो वो चाहते, लेकिन वो कहलाते हमारे ही मुँह से हैं हमीं कहेंगे "नही पापा ऐसा होना चाहिये" वो समझा देंगे " देखो ये है, ये है, ये है। अब तुम खुद समझ लो।" तो हमें खुद ही लगेगा कि हाँ पापा जो कहना चाह रहे हैं वही सही है और हम कहेंगे कि ये ना कीजिये पापा ये कर लीजिये। कहीं आने जाने पर कोई मनाही नही। हम लोग खेलते भी बहुत थे। हॉकी, बैडमिंटन उसके लिये आना जाना होता था, पढ़ाई लिखाई के लिये. हमें कभी किसी भी चीज़ के लिये मना नही किया। बल्कि मैं सोचती हूँ कि मैं खुद वैसी नही हूँ। मैं खुद सोचती हूँ कि हम अपने बच्चो को कितना मना करते हैं, मेरे पिता जी ने तो कभी मना नही किया, कहीं आने जाने के लिये, कभी नही। दोस्तों के घर जाने के लिये भी कभी पूछना नही पड़ता था कि "जाऊँ या ना जाऊँ" ये शब्द तो कभी प्रयोग ही नही हुआ मेरे घर में। "बस जा रही हूँ" मुझे लगा कि शिवमूर्ति जी की प्रथम संतान जिस समय में हुई होगी, उस समय में बेटी नामक चीज को इतनी स्वतंत्रता देना वाक़ई दुस्साहस ही कहा जायेगा उस समय के अनुसार और लगा कि वाक़ई शिवमूर्ति जी को पिता के रूप में पाना इनका वास्तविक अर्थों में भाग्यशाली होना ही है, अन्यथा, जाने माने लेखक की बेटी होना कितने दिन आनंदित करता, यदि वो सच्चे मायने में पिता ना हों तो।

मैने पूछा कि कभी कोई ऐसा समय आया जब पिता सबसे बड़ा सहारा बने। तो रेखा जी ने कहा कि
यूँ तो जिंदगी सहज ही चली, ऐसा कोई बहुत बुरा समय आया नही, जब लगा हो कि अब कोई नही है। हाँ कोई छोटी मोटी समस्या जब भी रही तो कभी ये सोचने की ज़रूरत नही पड़ी कि पापा होते ? या पापा नही हैं। हमेशा ये रहा कि पापा तो हैं ही। मतलब पापा तो हमेशा रहते ही थे। पापा की तरफ से हमारी जो फीडिंग हुई वो इस तरह से थी कि तुम्हे जब भी कोई फैसला लेना हो, छोटा बड़ा, परिवार से संबंधित या खुद से संबंधित, तुम ले सकती हो, सिर्फ अपने दम पर और मैं हमेशा तुम्हारे साथ हूँ। हमारे मन में ये बात हमेशा बनी रही कि वो हमेशा हमारे साथ हैं, किसी भी परिस्थिति में।

इसके विपरीत जब मैने पूछा कि ऐसा कोई समय जब आपको बहुत ज़रूरत रही हो पिता की और
वो उपलब्ध नही हुए हों। तो उन्होने बिना सोचे ही जवाब दिया कि नही ऐसा तो कभी नही हुआ। हालाँकि उन्होने हमें इतना निर्भर बनने को कहा हमेशा कि हमें कभी किसी की ज़रूरत ही ना पड़े। हाँ ये ज़रूर है कि वो छोड़ देते थे कि आत्म निर्भर बनो। जैसे कि जब उनकी पोस्टिंग बलिया में थी, तो मैं वहाँ गई। वहाँ मेरा छठी क्लास में एड्मीशन होना था, तो वो मेरे साथ नही गये। उन्होने कहा कि "खुद जाओ फॉर्म ले आओ, फॉर्म फिल करो, रिज़ल्ट देखो, एड्मीशन लो सब कुछ खुद करो। इतना तो आजकल लोग अपने बड़े बच्चों को नही छोड़ते हैं। लेकिन मैं छठी कक्षा तक बिलकुल आत्मनिर्भर थी। जब मैं पाँचवीं में थी, तभी, जो मेरी सबसे छोटी बहन थी़ उसे ले कर चार किमी दूर उसकी फोटो खिंचाने ले कर चली गई। मतलब उस उम्र तक दो चार किमी आना जाना तो कुछ भी नही था मेरे लिये, वो भी बलिया जैसी जगह में। कुछ सोचना ही नही था कि माँ, पिता जी में कोई मेरे साथ आये। इतना आत्मनिर्भर बना दिया था, मुझे मेरे पिता ने।

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