नित्य समय की आग में जलना, नित्य सिद्ध सच्चा होना है,
माँ ने दिया नाम जब कंचन, मुझको और खरा होना है |
माँ तुमने जब नाम दिया तो तुमको क्या मालूम नही था..?
पीतल की ही धूम यहाँ है, वो होती तो अधिक सही था|
अब तो जो कोई आता है, आँखों में शंका लाता है,
क्या तुम सचमुच ही कंचन हो..? मुझसे प्रश्न किया जाता है|
मैं अपनी बातों में जितना सच भर सकती हूँ भरती हूँ,
मै कंचन हूँ.......! कंचन ही हूँ.......! तुमको क्या पीतल लगती हूँ....?
मेरी बातों की सच्चाई उनको कहाँ नजर आती है?
बल्कि आँखो की शंका में कुछ वृद्धि ही हो जाती है,
अब मैं निस्सहाय होती हूँ.... क्या फिर से वो ही होना है...?
एक परीक्षा फिर होनी है उसमें फिर शामिल होना है?
उसकी कोई कसौटी होगी, उसपे मुझे कसा जाएगा,
कोई आग जलाई होगी, उसपे मुझे धरा जाएगा|
जब वो खूब खरा कर लेगा, जब वो खूब तपन दे लेगा,
तब " हाँ ये सचमुच कंचन ही है" छोटा सा उत्तर दे देगा|
फिर मैं थोड़ी सी खुश हो कर उसकी ओर निगाह करूँगी,
ये मेरे गुण का ग्राहक है ऐसा एक विचार करूँगी
फिर.....! ढेरों निर्णय आएंगे, फिर ढेरों बातें आएंगी,
नही बहुत कीमती है ये, मुझसे नही धरी जाएगी,
पीतल मे भी यही चमक है, बल्कि कुछ ज्यादा ही होगी,
अंतर कहा पता चलता है, उसकी कीमत भी कम होगी|
मैं अपनी सच्चाई ले कर, अपने आदर्शों को ले कर,
पुनः अकेली रह जाऊँगी, पर पीतल बन पाऊँगी.......!
ये कितनी ही बार हुआ है,कितनी बार और होना है,
माँ ने दिया नाम जब कंचन, मुझको और खरा होना है |
10 comments:
पीतल मे भी यही चमक है, बल्कि कुछ ज्यादा ही होगी,
अंतर कहा पता चलता है, उसकी कीमत भी कम होगी|
वाह ! दिल को छू गई ये पंक्तियाँ....
जीवन में आशा निराशा का ये चक्रव्यूह तो चलता ही रहता है जो कि आपकी पंक्तियों में दिख रहा है। आजकल की shortcut वाली दुनिया में लोग पीतल बन कर ही खुश हो लेते हैं।
सत्य के मार्ग पर चल रहे व्यक्ति को, दुनिया के चलन को देखते हुए पीतल बन के ही रह जाने का दर्द या यूं कहें डर सालता है पर फिर भी कंचन बनने की चाह व्यक्त करती आपकी ये कविता जिंदगी की लड़ाई लड़ने की आपकी प्रतिबद्धता को दिखाती है। लिखती रहें।
आपको पढ़ना बेहद अच्छा लगा।
बस, सिर्फ 'पारस' के स्पर्श का अनुभव करें, शुद्ध स्वर्ण बनी रहेंगी। 'पारसनाथ' के सम्पर्क में रहें तो आप स्वयं 'पारस' बन अनेक 'लौह' को 'कंचन' बना सकती हैं।
बहुत ही सुन्दर भाव व संकल्प भरी है आप की रचना... हमें बहुत पसन्द आयी... लिखती रहें
कंचन किसी रूप में हो, कंचन ही कहलाया जाता है। और पीतल को कितना ही चमकाया जाए, कंचन नहीं हो सकता। यदि पारखी है तो पहचानने में देर नहीं लगती, उसे कसौटी, तपाना आदि की आवश्यकता नहीं होती। इस प्रकार का पारखी जब मिल जाता है तो नीरस अथवा राग-अनुराग-रहित जीवन को वासंतिक छटा के तुल्य सुखमय बना
देता है। इस कविता में प्रधानतः 'निराशा' का बाहुल्य है। किंतु 'निराशा' जीवन का अल्पांग
है, प्रधानांग नहीं।
कविता बहुत अच्छी लगी।
अति सुन्दर:
उसकी कोई कसौटी होगी, उसपे मुझे कसा जाएगा,
कोई आग जलाई होगी, उसपे मुझे धरा जाएगा|
जब वो खूब खरा कर लेगा, जब वो खूब तपन दे लेगा,
तब " हाँ ये सचमुच कंचन ही है" छोटा सा उत्तर दे देगा|
-दिल के तार झंकृत हो गये, वाह.
"रूक जाना नहीं तू कहीं हार के…"। और "जिन्दगी हर कदम एक नई जंग है" इन्हीं शब्दों के साथ कहना चाह्ता हूं,युगों-युगों से 'रघु कुल रीत सदा चली आई' राम ने भी सीता को तपाकर देखा था,वो भगवान थे। मगर हम तो इंसान है।शायद जल्द सीख मिल जाए।
hamaari KANCHAN kaa dil anmol hai....itna humey hain yaqeen....hai na..?
kanchan to kanchan hee hai,use praman kee kya avshykta?
bhram mein jo rahein to rahein,kanchan ko isase kaya lena.pital ko hotee hai chinta kynki vahi hai bhram mein jeeta.
--ashok lav,15.8.08;ashok_lav1@yahoo.co.in
उसकी कोई कसौटी होगी, उसपे मुझे कसा जाएगा,
कोई आग जलाई होगी, उसपे मुझे धरा जाएगा|
जब वो खूब खरा कर लेगा, जब वो खूब तपन दे लेगा,
तब " हाँ ये सचमुच कंचन ही है" छोटा सा उत्तर दे देगा|...सुंदर पंक्तियां ..वाह
उसकी कोई कसौटी होगी, उसपे मुझे कसा जाएगा,
कोई आग जलाई होगी, उसपे मुझे धरा जाएगा|
जब वो खूब खरा कर लेगा, जब वो खूब तपन दे लेगा,
तब " हाँ ये सचमुच कंचन ही है" छोटा सा उत्तर दे देगा|...सुंदर पंक्तियां ..वाह
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