२९ फरवरी का दिन, जो कि ४ साल में एक बार ही आता है... और जो भी चीज rarely हो वो खास तो हो ही जाती है, लेकिन मेरे लिये ये तारीख खास इसलिये थी क्योंकि यह ले के आई थी उस शख्स को जिसने आप सबसे मेरा परिचय कराया. मेरी खुशकिस्मती यह थी कि मेरी पहल ब्लॉगर्स मीटिंग उसी व्यक्ति के साथ हो रही थी जिसने मुझे यहाँ आने के लिये प्रेरित किया...! वह प्रेरक व्यक्ति थे एक शाम मेरे नाम के मनीष जी की जिन्होने अपनी एक दोपहर करी थी मेरे नाम !
जैसा कि मैने अपने बारे में बताया कि एक साधारण से परिवार की साधारण सी लड़की मै, बिलकुल अनभिग्य थी इस ब्लॉग नामक चीज से और ई-मित्रता एवं चैटिंग जैसी चीजें तो खैर टोटल बकवास ही थीं...! भला मेरे जैसी so called कवयित्री, इन चीजों में indulge हो भी कैसे सकती थी ? किसी को हो न हो मुझे तो अपनी कदर है ना...! :)
ऐसे में जब नाम सुना आर्कुट का, तो यह भी सुना कि बहुत दिनों के बिछड़े मित्र इसमें मिल जाते हैं. यूँ तो हमने दर्जा ८ तक की पढ़ाई जहाँ से की थी वहाँ कुल मिला कर ५ लड़कियाँ थीं, जिसमें से आगे की पढ़ाई मात्र ३ लोगो को ही करनी थी. उन तीनो से मेरा आज भी मेल मिलाप है. इसके बाद हाईस्कूल से लेकर एम०ए० तक का भी हाल यही कुछ था कि आर्कुट में तो तब ढूँढ़ें जब किसी को फोनियाना छोड़ा हो. लेकिन फिर भी लगा कि शायद कोई निकल ही आये. मुझे नही तलाश हो तो शायद उसे ही हो. फिर भाई-भतीजे इतनी दूर दूर तक फैले हैं उनसे रोज hi करने के लिये भी श्रेयस्कर था यह आर्कुट. तो यही सब सोच कर हमने भी खाता खोल ही लिया.
अब वहाँ पहुँची तो कम्युनिटीज़ भी ज्वाइन की. उसमें एक थी गोपाल दास नीरज की जो कि मेरे बहुत प्रिय कवि थे और वहीं से शायद मनीष जी ने मुझे पाया...! शुरुआत इसी बात से हुई, " क्या आप अपना चिट्ठा बनाना चाहती हैं ?"
अब यह चिट्ठा क्या बला होती है ये मुझे क्या पता...? लेकिन कुछ लिखने से संबंधित चीज़ है शायद तो मैने खुशी- खुशी कहा कि हाँ-हाँ करना तो चाहती हूँ''
लेकिन समस्याएं बहुत सारी थीं जैसे मेरे पास यूनीकोड सॉफ्टवेअर नही था, घर पर पी०सी० नही था, कंप्यूटर में भी इतनी कुशलता नही थी कि कुछ किया जा सके..लेकिन हाँ चस्का ज़रूर था..! वही कमजोर नस शायद पकड़ में आ गई थी मनीष जी को तो उन्होने उस समय लिंक दिया परिचर्चा का. वहाँ रोमन में कविता के लिखने के बाद जो चस्का लगा तो चाह कर भी उतर नही पाया
१२ जून को मैने जिस ब्लाग के जरिये इस विश्व मे कदम रखा उसकी असलियत यह है कि मैं उस का क ख ग घ भी नही जानती थी. शायद मैं खुद भी नही जानती थी कि मैं यहाँ लिखने का समय निकाल पाऊँगी.
मनीष जी ने ही एक ब्लॉग बना कर मुझे गिफ्ट कर दिया. हाँ ब्लॉग का नाम वह था जो मुझे भविष्य में आने वाले अपने कविता संग्रह को देना था. इस ब्लॉग की जो पहली कविता पोस्ट हुई वह मनीष जी ने ही पोस्ट की और इसके बाद कभी फोन कभी चैट से मैने सीखी एक-एक बातें....! कभी बच्चों की तरह उत्साहित हुई तो कभी निराश...और मनीष जी ने बताया, "यह सब तो इस दुनियाँ के नियम हैं जी...!"
ऐसे व्यक्ति से मिलने का मन क्यों न होगा ? मैं तो मौके की तलाश में ही थी। जब पता चला कि महोदय कानपुर से लखनऊ बाराती बन कर आ रहे हैं लेकिन मेरे घर से काफी दूर होने के कारण मुझसे नही मिल पाएंगे उन्होंने समझाया, " क्यों इतना परेशान होंगी ? फोन पर तो बातें वगैरह हो ही जाती है..!"
अब कौन समझाये कि फोन फोन ही होता है. सो मैने कहा कि आप बस ये बताओ कि आना कहाँ तक है ? और पता चला कि स्टेशन तक.अब आगे काम मुझे करना था. इसके लिये मेरे लखनऊ के घर के दोनो सदस्यों की मदद चाहिये थी. खैर अच्छा था कि दोनो मेहरबान थे और मनीष जी के नाम से खुश भी. तो अपने सारे कार्यक्रम रद्द कर के वो मनीष जी की सेवा में लग गए.
सबसे अच्छी बात यह थी कि मिलने के बाद भी उनके भरम नही टूटे और जाने के बाद मुझसे ही बार-बार कहा गया कि फोन कर के पता तो कीजिये कि रास्ते में कोई परेशानी तो नही हुई. :)
तो चूँकि मुझे आफिस अटेंडेंस के बाद परमीशन ले कर मिलने आना था तो घर पर तो बुला नही सकती थी अतः बीच में एक रेस्तराँ मे मिलने का फैसला लिया गया जहाँ मेरा पिंकू मनीष जी को ले कर आये और मैं पहुँची दीदी के बेटे विजू के साथ.
समझ में नही आ रहा था कि बाते कैसे शुरू की जाएं कि दोनो enclosures भी न बोर हों और हम भी. इसलिये ब्लॉग की बातों से बचना चाह रहे थे लेकिन बातें प्रवाह में आईं तो तभी जब ब्लॉग की एक पोस्ट की चर्चा हुई. मनीष जी को घर वालों द्वारा बताया गया कि ये जो ब्लॉग पर एंटी विमेन के रूप में प्रसिद्ध हो गई हैं वो असल में घर में नारी सशक्तीकरण का प्रतीक है.
comment आया कि "हाँ वो तो मुझे भी पता है कि गलत बायाना ले लिया है...!" और हमारी फिर से वही स्थिति कि कैसे समझाएं कि न हम नारी विरोधी हैं और न ही सशक्तीकरण के प्रतीक. हमें तो जब जो उचित लगता है वो बोल देते हैं. मुझे कभी इससे अलग भी रख के देख लिया जाए. खैर हम इतनी शालीनता का परिचय दे रहे थे तब भी इल्जाम आया, " पता लग रहा है कि आप घर में dominate करती हैं"
खैर मेरे खयाल से जाते-जाते तो यह भरम टूट ही गया होगा जब रास्ते में बाईक तेज चलाने पर मुझे सड़क की चिंता किये बगैर गाड़ी रोक कर पिकू ने खूब लथाड़ लगाई .....!
मुझे आश्चर्य हो रहा था कि मेरा विजू कैसे चुप है.लेकिन आश्चर्य बरकार रहा उसने मनीष जी के जाने तक बस बस मंदमंद मुस्कुराहट ही देने का काम किया...!
११.३० बजे शुरू हुई मीटिंग १.३० बजे समाप्ति की और बढ़ने लगी. चूँकि मनीष जी की भी ट्रेन थी और मुझे भी कार्यालय पहुँचना था.
तो मीट को एक शुभ विश्राम देते हुए अगली बार सपत्नीक मिलने का आमंत्रण दे कर और वादा लेते हुए हम ने विदा ली ...
इस मुलाकात की कहानी मनीष जी की ज़बानी पढ़ने के लिये यहाँ जा सकते हैं। मुलाकात की यादें कुछ इस तरह हैं
जैसा कि मैने अपने बारे में बताया कि एक साधारण से परिवार की साधारण सी लड़की मै, बिलकुल अनभिग्य थी इस ब्लॉग नामक चीज से और ई-मित्रता एवं चैटिंग जैसी चीजें तो खैर टोटल बकवास ही थीं...! भला मेरे जैसी so called कवयित्री, इन चीजों में indulge हो भी कैसे सकती थी ? किसी को हो न हो मुझे तो अपनी कदर है ना...! :)
ऐसे में जब नाम सुना आर्कुट का, तो यह भी सुना कि बहुत दिनों के बिछड़े मित्र इसमें मिल जाते हैं. यूँ तो हमने दर्जा ८ तक की पढ़ाई जहाँ से की थी वहाँ कुल मिला कर ५ लड़कियाँ थीं, जिसमें से आगे की पढ़ाई मात्र ३ लोगो को ही करनी थी. उन तीनो से मेरा आज भी मेल मिलाप है. इसके बाद हाईस्कूल से लेकर एम०ए० तक का भी हाल यही कुछ था कि आर्कुट में तो तब ढूँढ़ें जब किसी को फोनियाना छोड़ा हो. लेकिन फिर भी लगा कि शायद कोई निकल ही आये. मुझे नही तलाश हो तो शायद उसे ही हो. फिर भाई-भतीजे इतनी दूर दूर तक फैले हैं उनसे रोज hi करने के लिये भी श्रेयस्कर था यह आर्कुट. तो यही सब सोच कर हमने भी खाता खोल ही लिया.
अब वहाँ पहुँची तो कम्युनिटीज़ भी ज्वाइन की. उसमें एक थी गोपाल दास नीरज की जो कि मेरे बहुत प्रिय कवि थे और वहीं से शायद मनीष जी ने मुझे पाया...! शुरुआत इसी बात से हुई, " क्या आप अपना चिट्ठा बनाना चाहती हैं ?"
अब यह चिट्ठा क्या बला होती है ये मुझे क्या पता...? लेकिन कुछ लिखने से संबंधित चीज़ है शायद तो मैने खुशी- खुशी कहा कि हाँ-हाँ करना तो चाहती हूँ''
लेकिन समस्याएं बहुत सारी थीं जैसे मेरे पास यूनीकोड सॉफ्टवेअर नही था, घर पर पी०सी० नही था, कंप्यूटर में भी इतनी कुशलता नही थी कि कुछ किया जा सके..लेकिन हाँ चस्का ज़रूर था..! वही कमजोर नस शायद पकड़ में आ गई थी मनीष जी को तो उन्होने उस समय लिंक दिया परिचर्चा का. वहाँ रोमन में कविता के लिखने के बाद जो चस्का लगा तो चाह कर भी उतर नही पाया
१२ जून को मैने जिस ब्लाग के जरिये इस विश्व मे कदम रखा उसकी असलियत यह है कि मैं उस का क ख ग घ भी नही जानती थी. शायद मैं खुद भी नही जानती थी कि मैं यहाँ लिखने का समय निकाल पाऊँगी.
मनीष जी ने ही एक ब्लॉग बना कर मुझे गिफ्ट कर दिया. हाँ ब्लॉग का नाम वह था जो मुझे भविष्य में आने वाले अपने कविता संग्रह को देना था. इस ब्लॉग की जो पहली कविता पोस्ट हुई वह मनीष जी ने ही पोस्ट की और इसके बाद कभी फोन कभी चैट से मैने सीखी एक-एक बातें....! कभी बच्चों की तरह उत्साहित हुई तो कभी निराश...और मनीष जी ने बताया, "यह सब तो इस दुनियाँ के नियम हैं जी...!"
ऐसे व्यक्ति से मिलने का मन क्यों न होगा ? मैं तो मौके की तलाश में ही थी। जब पता चला कि महोदय कानपुर से लखनऊ बाराती बन कर आ रहे हैं लेकिन मेरे घर से काफी दूर होने के कारण मुझसे नही मिल पाएंगे उन्होंने समझाया, " क्यों इतना परेशान होंगी ? फोन पर तो बातें वगैरह हो ही जाती है..!"
अब कौन समझाये कि फोन फोन ही होता है. सो मैने कहा कि आप बस ये बताओ कि आना कहाँ तक है ? और पता चला कि स्टेशन तक.अब आगे काम मुझे करना था. इसके लिये मेरे लखनऊ के घर के दोनो सदस्यों की मदद चाहिये थी. खैर अच्छा था कि दोनो मेहरबान थे और मनीष जी के नाम से खुश भी. तो अपने सारे कार्यक्रम रद्द कर के वो मनीष जी की सेवा में लग गए.
सबसे अच्छी बात यह थी कि मिलने के बाद भी उनके भरम नही टूटे और जाने के बाद मुझसे ही बार-बार कहा गया कि फोन कर के पता तो कीजिये कि रास्ते में कोई परेशानी तो नही हुई. :)
तो चूँकि मुझे आफिस अटेंडेंस के बाद परमीशन ले कर मिलने आना था तो घर पर तो बुला नही सकती थी अतः बीच में एक रेस्तराँ मे मिलने का फैसला लिया गया जहाँ मेरा पिंकू मनीष जी को ले कर आये और मैं पहुँची दीदी के बेटे विजू के साथ.
समझ में नही आ रहा था कि बाते कैसे शुरू की जाएं कि दोनो enclosures भी न बोर हों और हम भी. इसलिये ब्लॉग की बातों से बचना चाह रहे थे लेकिन बातें प्रवाह में आईं तो तभी जब ब्लॉग की एक पोस्ट की चर्चा हुई. मनीष जी को घर वालों द्वारा बताया गया कि ये जो ब्लॉग पर एंटी विमेन के रूप में प्रसिद्ध हो गई हैं वो असल में घर में नारी सशक्तीकरण का प्रतीक है.
comment आया कि "हाँ वो तो मुझे भी पता है कि गलत बायाना ले लिया है...!" और हमारी फिर से वही स्थिति कि कैसे समझाएं कि न हम नारी विरोधी हैं और न ही सशक्तीकरण के प्रतीक. हमें तो जब जो उचित लगता है वो बोल देते हैं. मुझे कभी इससे अलग भी रख के देख लिया जाए. खैर हम इतनी शालीनता का परिचय दे रहे थे तब भी इल्जाम आया, " पता लग रहा है कि आप घर में dominate करती हैं"
खैर मेरे खयाल से जाते-जाते तो यह भरम टूट ही गया होगा जब रास्ते में बाईक तेज चलाने पर मुझे सड़क की चिंता किये बगैर गाड़ी रोक कर पिकू ने खूब लथाड़ लगाई .....!
मुझे आश्चर्य हो रहा था कि मेरा विजू कैसे चुप है.लेकिन आश्चर्य बरकार रहा उसने मनीष जी के जाने तक बस बस मंदमंद मुस्कुराहट ही देने का काम किया...!
११.३० बजे शुरू हुई मीटिंग १.३० बजे समाप्ति की और बढ़ने लगी. चूँकि मनीष जी की भी ट्रेन थी और मुझे भी कार्यालय पहुँचना था.
तो मीट को एक शुभ विश्राम देते हुए अगली बार सपत्नीक मिलने का आमंत्रण दे कर और वादा लेते हुए हम ने विदा ली ...
इस मुलाकात की कहानी मनीष जी की ज़बानी पढ़ने के लिये यहाँ जा सकते हैं। मुलाकात की यादें कुछ इस तरह हैं
11 comments:
आपकी पहली ब्लॉगर मीट का विस्तृत वर्णन और वो भी फोटो के साथ पढ़कर अच्छा लगा। और ये भी पता चला की आप ब्लॉगिंग मे कैसे आई।
hmmmmm,,ab to mujhe bhi lucknow ana padega ....kam se kam blogger me mere charche to honge ,.,,,aur pyari di ke sath photo bhi niklega... photo graphy bahut achhi hai...
बहुत अच्छा लगा आपकी ब्लागर मीट के बारे में। वैसे ब्लागिंग में आने की कहानी तो आपने बताई ही थी। लेकिन आज मनीष जी से मुलाकात का सचित्र विवरण पढ़कर सुखद अनुभव हुआ। बहरहाल, अब तो आप परफेक्ट ब्लागर हो चुकी हैं। इस कदर कि मुझे कोई प्राब्लम आती है तो लगता है कि आपके पास उसका हल जरूर होगा। कई बार आप चुपके से मेरी समस्या साल्व भी कर देती हैं। आपके ब्लागिंग की दुनिया यूं ही फलती-फूलती रहे। शुभकामना।
कंचन । जरूरी और सुंदर विवरण । फिर भी मुझे लगा कि तुमने कुछ जल्दी ही निपटा दिया । मनीष हमारे भी मित्र हैं । आज ही उनसे बतियाए हैं । तस्वीरें अच्छी आई हैं ।
dear kanchan.....aap aaj bataa rahin hain..mujhey to pehley hi pataa chal gayaa thaa....buujho to kaisey ?.....chitr achhey lagey..
यह मिलन तो बहुत बढ़िया रहा..ऐसे ही अनेकों मिलनों और रिपोर्टों का इन्तजार रहेगा. :)
अपने मित्रों से मिलने का आनंद ही अलग होता है। पहले यूनुस और अब आप से मिलकर मुझे ऍसा ही लगा। रही प्रेरणा की बात तो ये एकतरफा नहीं है..
चलते चलते अवधेश और मैं यही कह रहे थे कि आप की जीवटता देख के हमें भी प्रेरणा मिलती है।
ममता जी ब्लॉग पर आने का धन्यवाद..!
राकेश..! तुम आओ तो सही...!
रवीन्द्र जी..! आप को एक बताऊँ... चुपके से आपकी समस्या हल करने से पहले मैं चुपके से मनीष जी को फोन कर के समाधान पूँछ लेती हूँ..तब आपके लिये फैंटम बन कर सामने आती हूँ :)
यूनुस जी..! आप जितने अच्छे ब्लॉगर और एंकर हैं उससे भी अधिक अच्छे इंसान है, ये बात मुझे मनीष जी ने ही बताई है..!
पारुल..! आप को पहले पता कैसे चला इस बात की फिक् तब करेंगे.. जब इस खुशी से बाहर निकलेंगे कि आप हमारा हाल लेती रहती हैं :)
समीर जी अब प्रतीक्षा आपकी है...!
मनीष जी ..!"चलते चलते अवधेश और मैं यही कह रहे थे कि आप की जीवटता देख के हमें भी प्रेरणा मिलती है।" काश हम भी देखते वो समाँ जब मेरे दो विश्लेषक मेरी प्रशंसा कर रहे थे :)
अरे तब तो मुझे मनीष जी का भी शुक्रगुजार होना चाहिये। धन्यवाद मनीष जी आपका और कंचन जी का।
मनीष जी का विवरण दिल को छू गया पर कंचन जी के ब्लाग का फ़ांट दिख नहीं रहा. केवल कमेंट का फ़ांट ही दिखा.
बहुत अच्छा लगा इसे एक बार से पढ़ना। तमाम शुभकामनायें।
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