Monday, August 20, 2007

मुक्ति भाग‍-4

ससुराल में आने के बाद कभी-कभी ओसारे में बाबू जी को खाना देने आती थी। वो भी तब जब ये नही होते थे। वो मेरी आखिरी सीमा रेखा थी। लेकिन आज मुझे अपनी कोई भी सीमा रेखा नही याद थी। मैं नंगे पैर ही उधर दौड़ पड़ी जहाँ से गाँव भर की आवाजें आ रही थी। गाँव में मुझे देखा बहुत कम लोगो ने था। इसलिए मुझे कोई पहचानता तो नही था लेकिन मेरी दशा देख कर शायद जान सब गए थे कि मैं उनकी पत्नी ही हो सकती हूँ जो वहाँ पर खून से नहाया पड़ा हुआ है। इसलिए भीड़ मुझे खुद रास्ता देती गई। मुझे नहीं याद कि मेरे रास्ते में कौन कौन आया, कौन कौन हटा, किसने क्या कहा ? मुझे इतना याद है कि अचानक मेरे सामने वो शरीर खून से लतफत पड़ा था जो सुबह जल्दी आने का वादा कर गया था। देखते ही मेरे मन में आया कि "क्या ये अब कभी नही उठेंगे ?" और इस विचार के साथ ही शायद मैं खुद ही गिर गई। जब आँख खुली तो मेरे इर्द गिर्द गाँव की औरतें थीं। मैं चीख पड़ी। सब मुझे पकड़ने लगी, लेकिन मैं सबसे खुद को छुड़ा कर बाहर की तरफ भागी। वहाँ उननका शरीर पड़ा हुआ था। पास में बाबूजी बिलख रहे थे। मैं इनके शरीर पर गिर गई। मैं फिर बेहोश हो गई। इस बार मुझे जब होश आया तो मैं अस्पताल में थी। मुझे ग्लूकोज़ चढ़ रहा था।जब होश आया तो मेरे मायके से आये मेरे पिता जी और बड़के बाऊ जी मेरे पास खड़े थे।

मैं बिलखने लगी। पिता जी दूर खड़े मुँह पर अँगौछा रखे सुबक रहे थे। बड़के बाऊ जी जी मुझे समझाने लगे, "हमरे लोगन के कऊनो बहुत बड़ा पाप उदित भा बिटिया जऊन भगवान एतना बड़ा कष्ट डारिन। अपने भाग पे केहू के बस नाही है। अब तू धीरज धरा। एक बिटिया बाय इहीक् सम्हारा।"

पिता जी जाते समय तक मुझसे कुछ नही बोले। शादी के इतने दिन बाद मैने पिता जी को देखा था तो ऐसे समय में जब ना वो कुछ बताने की स्थिति में थे और ना मैं कुछ पूँछने की।

तब से आज तक दुबारा मायके की एक चिड़िया भी नही देखी मैने। क्या क्या बीत गया इस शरीर पर कोई सांत्वना देने को कौन कहे, उलाहना देने भी नही आया।

अब मुझे सारिका का होश आया था। मैने घर जाने की इच्छा व्यक्त की। मुझे बताया गया कि मैं तीन दिन से बेहोश थी। ससुर जी पुत्र शोक नहीं सहन कर पाये थे और पुत्र के साथ ही अपनी अंतिम यात्रा तय कर ली थी।

मैं सोचती रहती थी कि मैं क्यों नही मरी ? उनकी आत्मा क्या सोच रही होगी मुझे देख कर, कि मुझे अपना जीवन कितना प्यारा है ? मैं कितनी स्वार्थी हूँ? ये खयाल आता और मै फिर बिलखने लगती।

घर धीरे-धीरे खाली हो गया। मैं रात-रात जगती रहती। मुझे सन्नाटे से बहुत भय लगता। घर में अब सन्नाटे के अलावा सिर्फ कुँवर जी थे, जिनसे मुझे सन्नाटे से भी ज्यादा डर लगता था। दो डरावनी चीजों में मुझे जब एक को चुनना हुआ तो मैने सन्नाटे को ही चुना।

लेकिन मेरे चुनने न चुनने से क्या होता था ? दुर्भाग्य ने तो अपने सारे भयानक तमाशे दिखाने के लिये मुझे ही चुना था न।

सारिका सो रही थी। मैं बगल में बैठी आँसू बहा रही थी। अचानक कमरे में कुछ आहट हुई। मैने सर उठाया तो देखा वही व्यक्ति खड़ा है जिसके लिये मैं सशंकित थी। मैं उन्हे देखते ही काँप गई। मुझे उनकी पशुता की पराकाष्ठा की कल्पना नही करनी थी.. वो सब तो मैं हक़ीकत में झेल चुकी थी।
मैं बिस्तर से खड़ी हो गई और गिड़गिड़ाते हुए बोली " हमसे नाही डेरात्या कुँवर जी तो दुनिया से डेरा, दुनियौ के डर नाही बाय तो भगवान से डेरा। अपने भईया के धरोहर पे नीयत खराब करिहैं तो भगवान छिमा नाहीं करिहै। एतना बड़ा पाप ना करैं।"

" यह में पाप के कौन बाति है, ई तो बहुत दिन से होत आय बा। बड़े भाई के मरे के बाद अगर छोटे के बियाह ना भै होय तो उमिर भर बिधवा होई के जिये के जगही छौटे से बियाह होई जात है।"

" लेकिन जब हम चाही तब ना..!हमार जिनगी आपके भईया से जुड़ी रही ..बस्स्स् ! अब हम्मै केहू और के सुहागन बने से ढेर नीक बाय उनके बिधवा बनिके जिनगी गुजारब...... हमरे ई एक बिटिया बाय। हम इही के देख के जौन दुइ चार रोज जिनगी के बाय बिताइ देब। लेकिन ई पाप ना करें कुँवर जी! यह बिटिया के ऊपर दया करें कुँवर जी!"

" इहै कुल तो तुहैं सोचे के चाहीं। यह बिटिया के जिनगी तू कइसे पार कइ पइबू, अगर हम ना सहारा देब ? औ हम एतना सतजुगी नाही हई कि बिना कौनो कीमत के सबके पार लगाई।"

राक्षसों के सचमुच दस सिर या सींग या कोई और भयानक आकृति नही होती होगी। मुझे पता चल गया था कि ऐसे ही राक्षस होते होंगे जो दिखने में बिलकुल इंसान ही लगते होंगे।

" हम आज जात हई। लेकिन तू सोचि ल्या।"

कह कर वो राक्षस चला गया। मैं क्या करूँ मेरे सामने अब बस एक शरणस्थली थी। गाँव के पास बहने वाली नदी।.... मेरे बाद सारिका का क्या होगा ? इस आदमी की नीचता की कोई सीमा नही है। ये पता नही किसके साथ क्या करे ? ये सोच कर मैने सारिका को गोद में उठाया और नदी की तरफ चलने को तैयार हो गई। दरवाजे की तरफ बढ़ने के साथ ही मैं मेज से टकराई और मेज से एक किताब गिर कर मेरे सामने आ गई। उसके सामने आते ही मेरी आँखों के सामने सारिका के पापा का चेहरा आ गया और याद आ गया सारिका के लिये उनका स्वप्न..! "मैं ये क्या करने जा रही हूँ उनके सपने का मूल ही खतम करने।" मैने सारिका को कस लिया। वो जाग गई थी और ध्यान से मेरी तरफ देख रही थी। वो क्या जाने कि उसका वर्तमान उसके भविष्य के साथ कैसा खिलवाड़ कर रहा है ? उसे जब कुछ समझ में आया तो मेरे आँसू पोंछते हुए बोली " तोत लग गई माँ " " नही बेटा" कह कर मैने उसे कंधे से लगा लिया। उसे क्या बताऊँ किस्मत ने कैसी चोट दी है उसे और मुझे दोनो को।

अब मै क्या करूँ कैसे इस नन्ही सी जान को मार दूँ ? और अगर अकेली मर जाऊँ तो ये तो वैसे भी मर जायेगी।

क्रमशः

8 comments:

ghughutibasuti said...

मर्मस्पर्शी कहानी है ।
घुघूती बासूती

Udan Tashtari said...

बहुत दर्दभरी कथा होती जा रही है. इन्तजार लग गया है अभी से अगली कड़ी का. बहुत बेहतरीन लिख रही हैं. बधाई.

Unknown said...

ji aap ki kahani bahut hi marmik hai aur accha prash kariye jo bhi aap ne kiya wod saraniy hai ........

महावीर said...

यह तो अभी पता नहीं कि यह लघु उपन्यास है या आगे जाकर पूर्ण उपन्यास बनेगा, किंतु जैसे जैसे कथा-वस्तु आगे बढ़ती जारही है, सस्पेंस और उत्सुक्ता के साथ साथ हृदय में एक टीस भी बढ़ती जाती है।
बहुत बड़ा सत्य हैः
"राक्षसों के सचमुच दस सिर या सींग या कोई और भयानक आकृति नही होती होगी। मुझे पता चल गया था कि ऐसे ही राक्षस होते होंगे जो दिखने में बिलकुल इंसान ही लगते होंगे।"

अजित वडनेरकर said...

मर्मस्पर्शी लेखन....

Manish Kumar said...

इंतजार है अगली कड़ी का !

Unknown said...

बासूती जी का मेरे गवाक्ष पर प्रथम आगमन का स्वागत। प्रोत्साहन हेतु धन्यवाद

उड़न तश्तरी, नीशू जी !, अजित जी !, मनीष जी ! का धन्यवाद।

उपन्यास तो नही ही कहा जायेगा महावीर जी ! लंबी कहानी ही है। लघु उपन्यास की सीमा तक न जाये शायद। अंत में आप ही निर्धारित कीजियेगा। लगातार प्रोत्साहित करते रहने का धन्यवाद

Unknown said...

एक ही सांस में पढ़ गया मुक्ति की चौथी कड़ी। कहानी बहुत ही रुचिकर तरीके से आगे बढ़ रही है। कहानी कहने के लिये आपने जो आत्मकथात्मक शैली चुनी है वह बेहद पसंद आई। अगली कड़ी का इंतजार रहेगा।