Sunday, February 7, 2010

बाबुल तेरे प्यार ने तो मुझे सिर पर चढ़ा लिया



और आज फिर याद आया सब कुछ .....! पांडे जी की बेटियों को उनकी थाली में खाते देख याद आया आपका कौर तोड़ कर मिर्च अलग कर कर के खाना खिलाना। उन सबका मचलना देख कर याद आया अपना बचपन जो शायद आज ही के दिन बहुत हद तक खतम हो गया था।

ऐसा नही कि आपके जाने के बाद ही आपकी कीमत समझ आई। आपके रहने पर भी तो आप उतने ही प्रिय थे। अम्मा हमेशा कहतीं कि जाते हम दोनो हैं और लौटने पर बाबूजी को पकड़ के रोती है ये। १४ साल की उम्र में ये तो उद्गार थे मेरे बाल मन के

नही प्रतीक्षा अब होली की इंतजार दीवाली का,
लौटा दो जो साथ ले गये प्यार तुम अपनी लाडली का।

वही लाडली जिसकी आँखें क्षण भर जो भर आती थीं,
तो मानो रग रग में आपके पीड़ा सी भर जाती थी

जिस घटना की कल्पना कर ना सोई सारी रात
वो घटना चरितार्थ हो गई और मैं रह गई मलती हाथ।

आऊँगा मैं लौट अभी फिर, वादा कर के गये थे आप,
आये तो पर चक्षु बंद थे, जाने क्यों ना बोले आप

वो ही आँखें जिन आखों मे बस दुलार था मेरी खातिर,
वो ही कर थे जिन हाथों में लाड़ बहुत था मेरी खातिर

वो ही चेहरा, वो ही पलकें, वो ही थे सब अंग तुम्हारे,
पर जाने क्यों सब कहते थे, बाबूजी ना रहे तुम्हारे।

कितना चिल्लाई बाबूजी, एक बार दो आँखें खोल,
जाओ मैं ना रोकूँगी पर एक बार दो गुड्डन बोल

जाने किन पुण्यों का फल था पिता मिले जो आपसे,
जाने किन पापों का फल था अलग हुई जो आपसे

दो पैसा मुझको जिद करना, वो लड़ना, वो चिल्लाना,
हैं सारी अतीत की बातें पास रहा अब कुछ भी ना

है जीने की चाह नही अब, ले लो मेरा सारा जीवन,
पर उसके बदले में दे दो, बाबूजी के संग गुजरे क्षण।

वो क्षण जिसमें मैं नाराज़ थी और बाबूजी मुझे मनाते
वो क्षण जिसमें मैं रोती थी बाबूजी मुझको फुसलाते।

वो क्षण जिसमें मैं ज़िद करती और बाबूजी गुड़िया लाते
जो कुछ उनसे कह दो ला कर मेरे सारे स्वप्न सजाते।

वो क्षण जिसमें मैं और दीदी कहते बाबूजी मुझे चाहते
और हमारी बातें सुन कर बाबूजी केवल मुसकाते

और ये गीत जब आता था तो कितनी छोटी थी मैं ....पाँचवीं क्लास में थी शायद। मैं और दीदी दोनो ही खुश हो जाते थे ये गीत सुनकर। हम दोनो को लगता कि ये गीत मेरे बाबूजी गा रहे हैं।




बाबुल तेरे प्यार ने तो मुझे सिर पर चढ़ा लिया।

25 comments:

Udan Tashtari said...

बाबू जी को श्रृद्धांजलि.

बस्स!

के सी said...

सुबह ही गंभीर कर दिया है और कुछ शब्द सूझ नहीं रहे हैं.

Amrendra Nath Tripathi said...

सहज और संवेदनशील !
आभार !

निर्मला कपिला said...

ेअरे सुबह सुबह ही रुला दिया। बेटी चाहे खुद बूढी भी हो जाये मगर अपने पिता को नही भूल पाती यहाँ तक भी वो बहुत से रिश्तों मे अपने पिता जैसी तलाश पहले करती है--- शायद उसके लिये ये रिश्ता सब से अधिक सुरक्षा प्रदान करने वाला लगता पिता का प्यार बेटी का रक्षा कवच होने के साथ साथ जीवन को सही राह दिखाने का भी सबब है । बहुत मार्मिक अभिव्यक्ति है। बहुत बहुत आशीर्वाद तुम्हारे पिता जी \को विनम्र श्रद्धाँजली

Razi Shahab said...

वो ही चेहरा, वो ही पलकें, वो ही थे सब अंग तुम्हारे,
पर जाने क्यों सब कहते थे, बाबूजी ना रहे तुम्हारे।

कितना चिल्लाई बाबूजी, एक बार दो आँखें खोल,
जाओ मैं ना रोकूँगी पर एक बार दो गुड्डन बोल

behtareen

डॉ .अनुराग said...

पिता एक विशाल वृक्ष .जिसकी शाखायो के भीतर न जाने कितने पंछी चैन ओर सकूं के आँगन में निर्भय खेलते .बिसूरते ...लड़ते झगड़ते है


जाने क्यों अब भी लगता है ...कई बार..एक साया ....तस्वीर से जैसे आशीर्वाद बिखेरता है ....

kshama said...

Aapne aankhon me aansoon bhar diye!

"अर्श" said...

बाउजी को विनम्र श्रधांजलि , पता नहीं वो क्यूँ कभी कभी ऐसा कर तहे जो उसे करना नहीं होता है , आपकी आवाज़ में दो लाइन ने रुला दिया .... बाबुल तेरे प्यार ने जीना सिखा दिया ... ..

अभी और कुछ नहीं कह पाउँगा
माँ को प्रणाम
अर्श

वाणी गीत said...

बाबुल का साया सर से हट जाना मतलब तपती धूप में छत का छीन जाना ....!!

vandana gupta said...

pita ka saya sabse mahfooz jagah hoti hai aur wo hi na rahe to kaisa lagta hai janti hun aur isiliye aapki bhavnaon ko samajhti hun........vinamra shraddhanjali.

प्रकाश पाखी said...

कंचन जी,
आप इतनी भिगो देने वाली पोस्ट क्यूँ लिख देती है...सच कहूँ तो एक एक शब्द भावनाओं से भरा हुआ है...क्या इस पर कोई टिप्पणी की जा सकती है...बस दिल को छू रहे है आपके कोमल भाव...बस नमन और विनम्र श्रद्धांजलि आपके पूज्य पिताजी को!

Himanshu Pandey said...

मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति । संवेदना को गहरी छूती हुई प्रविष्टि । पिता जी को विनम्र श्रद्धांजलि !

रंजना said...

विनम्र श्रद्धांजलि....और क्या कहूँ....

पंकज सुबीर said...

कंचन.......... वे जहां भी हैं तुम पर गर्व कर रहे होंगें कि उनकी बेटी ने उनके संस्‍कारों की ध्‍वजा को थाम कर रखा है । तुम शायद इसीलिये बहुत अच्‍छी हो कि वे बहुत अच्‍छे थे ।

गौतम राजऋषि said...

अभी बैठा हूँ...गुरुजी के पोस्ट से उठकर सीधा इधर।

कुछ कहते नहीं बन रहा है, सिस। उस रात जब तुम पोस्ट लिख रही थी और हम उधर महफ़िल सजाये बैठे थे और पोस्ट की विषय-वस्तु का भान था तो तनिक असहज हो गया था मैं उधर।

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

आदरणीय बाबूजी के प्रति
आपने ह्रदय के सच्चे भावों से
यहां श्रध्धा सुमन
उनके पैरों पर
प्रणाम के तौर पर रखे हैं
उनमे मेरे भी नमन शामिल हैं -
और सोच रही हूँ,
११ फरवरी को
मैंने भी मेरे पूज्य पापा जी को खो दिया था ..
और अब बस कुछ दिन शेष हैं :-(
काश ! किसी के पिता ,
कभी अलग ना हों !
स स्नेहाशिष
- लावण्या

Ankit said...

कुछ पोस्ट पे कभी कुछ टिपण्णी लिख पाना कितना कठिन हो जाता है, समझ में नहीं आता क्या कहूं और कैसे कहूं?
आपकी लिखी कविता आपके दर्द को समेटे हुए है और वो कविता से कहीं बढ़कर है.
बाबु जी का आशीर्वाद सदैव आपके साथ है और रहेगा, आप बस साथ गुज़रे हुए खुशनुमा लम्हों को साथ लेकर अपना सफ़र जारी रखें.

neera said...

बाबुल चीज़ ही ऐसी है.....

"MIRACLE" said...

Marmsparshi abhivyakti.....vinamra shraddhanjli.

"अर्श" said...

ये टिपण्णी दाता सुमन जी कौन है क्या ये पोस्ट पढ़े बगैर ही टिप्पणियाँ करते हैं जो इस तरह की पोस्ट पर भी ऐसे शब्द का प्रयोग करते हैं... उस टिपण्णी को हटा दें आप ... और टिपण्णी बॉक्स में मोड़ेरेशन जरुर लगायें... सुमन जी ने आहत किया है अपनी इस टिपण्णी से ...


अर्श

कंचन सिंह चौहान said...

वो टिप्पणी मैने मिटा दी...! मगर तुम नॉनसीरियस लोगो के लिये इतना सीरियस मत हुआ करो....! हम अपने लिये लिखते हैं दूसरो के लिये नही....! वर्ना मुझे भी पता है कि तेरे सिवा शायद ही किसी ने जानना चाहा हो कि डिबवशेयर में कौन सा गीत है....! पर क्या फर्क पड़ता है ??? ये जो लिखा वो मैने अपने लिये लिखा था ना कि किसी और के लिये...!!

bt thanks for being serious me :)

manu said...

ओह..
छः फ़रवरी की रात..!

कुछ कहते नहीं बन रहा कंचन बेटा...
वे जहां भी हों , जिस रूप में भी हों...उन्हें प्रणाम..

तुम शायद इसीलिये बहुत अच्‍छी हो कि वे बहुत अच्‍छे थे
बस पंकज जी की बात पर मुहर लगाते हैं...
खुश रहो...

neelam said...

कंचन आज पहली बार तम्हारे ब्लॉग पर आये हैं और अचंभित हैं कि तुम तो हमारे ही शहर की रौनक हो ,पिता की कमी तो ईश्वर स्वयम उपस्थित होकर भी पूरी नहीं कर सकता ,पर एक बात हमेशा याद रखो और महसूस करो कि वो तुम्हारे आसपास ही हैं ,तुम्हे हमेशा देख रहे हैं इसके आगे ...............कुछ नहीं .
कभी लखनऊ आयेंगे तो तुमसे मिलना जरूर चाहेंगे

तदात्मानं सृजाम्यहम् said...

aankhon me nami hai
sach, unki kami hai..

Unknown said...

कंचन जी! हृदयस्पर्शी रचना है! बेटियों को पिता से और पिता को बेटी से बहुत मोह होता है। पिताजी को आदरांजलि!

शायद आपने पहले पढ़ी हो। यह भी ऐसी ही कविता है।
यादें : एक बेटी की श्रद्धांजलि
http://veenakesur.blogspot.com/2010/07/blog-post_30.html