प्यार तुम्हारा मुझ में रम कर,
नित मुझको सुंदर करता है,
मुझे नज़र से डर लगता है।
आँखों में काजल बन बैठे, होंठों पर लाली बन साजन,
तिल बन कभी कपोल सजाते,कभी दृष्टि बन पूरा तन मन,
कभी मुझे प्रतिबिंबित करते,
यूँ जैसे दर्पण करता है,
मुझे स्वयं से डर लगता है।
तुमने मन में फूल खिलाये, चुनने का अधिकार तुम्हे है,
रंगो रंग में और गंध में घुलने का अधिकार तुम्हे है,
मर्दन का अधिकार उसे है,
जो सर्जन का दम भरता है।
नित मुझको सुंदर करता है,
मुझे नज़र से डर लगता है।
आँखों में काजल बन बैठे, होंठों पर लाली बन साजन,
तिल बन कभी कपोल सजाते,कभी दृष्टि बन पूरा तन मन,
कभी मुझे प्रतिबिंबित करते,
यूँ जैसे दर्पण करता है,
मुझे स्वयं से डर लगता है।
तुमने मन में फूल खिलाये, चुनने का अधिकार तुम्हे है,
रंगो रंग में और गंध में घुलने का अधिकार तुम्हे है,
मर्दन का अधिकार उसे है,
जो सर्जन का दम भरता है।
किसे अंत से डर लगता है ??
सुबह बहुत छोटी होती है, लंबी होती रात, दुपहरी,
कौन भला ऐसा जीवन है, जिसमें मधुॠत हर पल ठहरी,
मधुॠतु को सारथी बना कर,
पतझड़ अपना रथ धरता है,
अब बसंत से डर लगता है।
डर के सारे द्वार तोड़ कर, प्रिय तुम मेरा साथ निभाना,
अंतहीन अपनापन ले कर, विरहहीन इक मिलन सजाना,
वह इक मिलन सॄष्टि की रचना
सुबह बहुत छोटी होती है, लंबी होती रात, दुपहरी,
कौन भला ऐसा जीवन है, जिसमें मधुॠत हर पल ठहरी,
मधुॠतु को सारथी बना कर,
पतझड़ अपना रथ धरता है,
अब बसंत से डर लगता है।
डर के सारे द्वार तोड़ कर, प्रिय तुम मेरा साथ निभाना,
अंतहीन अपनापन ले कर, विरहहीन इक मिलन सजाना,
वह इक मिलन सॄष्टि की रचना
का आधार हुआ करता है,
और मिलन से डर लगता है..!!
आभारः राकेश् खण्डेलवाल जी, शार्दूला दी एवं रविकांत जी जिनके कारण गीत पढ़ने काबिल हुआ
40 comments:
दो क्षण मिलने का सुख पीछे,
सदियों की पीड़ा रचता है।
मुझे मिलन से डर लगता है।
-बहुत गहरे भाव लिए इस रचना को पढ़...डूब सा गया...बहुत उम्दा भाव!!
बहुत सुन्दर! बहुत ही गहरे भाव!
सुन्दर गीत है --- गेयता ही नहीं , भाव भी सुग्घर !
लेकिन यह तो मानना ही होगा कि उस अधिकार - प्राप्त के
सन्दर्भ में यह खटक(डर-सी) बनी ही रहती है ---
'' डर के सारे द्वार तोड़ कर, प्रिय तुम मेरा साथ निभाना,
अंतहीन अपनापन ले कर, विरहहीन एक मिलन सजाना,
दो क्षण मिलने का सुख पीछे,
सदियों की पीड़ा रचता है।
मुझे मिलन से डर लगता है ''
........... अगर हम गीत की रहस्यवादी व्याख्या तक न जांय तो ऐसा
कहना शायद गलत न होगा ... यह तो यथार्थ है ... आभार ,,,
दो क्षण मिलने का सुख पीछे,
सदियों की पीड़ा रचता है।
मुझे मिलन से डर लगता है।
परम आनंददायी गान, कोहरे भरी सुबह में भी शब्दों कि ऊष्मा .
सुंदर गीत.
गजब के भाव .. बहुत सुंदर प्रस्तुति !!
"दो क्षण मिलने का सुख पीछे,
सदियों की पीड़ा रचता है।
मुझे मिलन से डर लगता है।"
बहुत ही सुन्दर रचना !!
सिर्फ गीत...? मैं तो भूमिका-स्वरुप कुछ शब्दों की भी अपेक्षा कर रहा था।
कल इस गीत को पहले सुनना और फिर आज पढ़वाना....थर्ड डिग्री तो नहीं लेकिन फर्स्ट डिग्री टार्चर की श्रेणी में तो गिना जा ही सकता इस करतूत को।
हा! हा! जस्ट जोकिंग, सिस...तुमको भी पता है कि तुमने बहुत सुंदर गीत रचा है।
मर्दन का अधिकार उसे है,जो सर्जन का दम भरता है। ...ये वो खास "उफ़्फ़्फ़्फ़" वाला मिस्रा है।
फिर से आता हूँ अन्य टिप्पणियों की टोह लेने...
उफ्फ्फ कितना सुन्दर! बहुत ही प्यार और सार्थक गीत. बिलकुल सच्चा-सच्चा सा !
समर्पण भी और मन का उद्वेलन भी ! विश्वास भी और सहज चिन्ताएं भी!
पढ़े जा रही हूँ, गाए जा रही हूँ . बहुत-बहुत खूब!
क्या बात है कंचन :) !!
बहुत खुश हो गयी हूँ आज तुमसे, मेरी तरह से एक ट्रीट ले लेना ... क्या खाया बताना ख़त में :)
अभी-अभी ख़त लिखा है तुमको ...
दीदी
इस तरह कें उदात भावों को लेकर छंद और लय में बँधे गीत लिखने वालों के प्रति मेरे मन में बहुत आदर है।
और क्या कहूँ?
samarpan,prem aur dar ka bhav kavita ko bejod banata hai.........yahi to prem hai jahan samarpan bhi hai aur sath hi dar bhi apne premi se milna bhi hai aur milan se dar bhi hai..........waah , bahut hi umda .........dil ko bahut gahre tak choo gayi.
@वीर जी
इफ्तदा-ए-भ्रातृत्व है, रोता है क्या,
आगे आगे देखिये होता है क्या
अभी तो ऐसे कई टॉर्चर बाकी है....!!! हा हा हा
मर्दन का अधिकार उसे है,
जो सर्जन का दम भरता है।
किसे अंत से डर लगता है ??
अद्भुत। अच्छा चित्रण।
शुष्क मन में बहार लाने वाली रचना है यह।
निःसंदेह यह एक श्रेष्ठ रचना है।
अब तुम जो ऐसे लिख दोगी तो कहने को क्या रहेगा इसपर ...बोलो....
इसे सहेजकर अपना बना, रख लेती हूँ......
जीती रहो....ऐसे ही लिखती रहो..अद्भुद ..... बेमिसाल..... लाजवाब .......
पुरे गीत को आपकी आवाज़ में सुनना चाहता हूँ दिली खाईश है
पूरी होगी क्या...??
सच में प्रेम की गहराई का कुछ तो अंदाज़ा लगाया जा सकता है
इस प्रवाहित गीत से ,...मन की सुन्दरता के कोमल भाव जिस तरह
से आपने सरल शब्दों में पिरोया है ,,.. आय हाय वाली बात है..:) :)
सभी अंतरे कमाल के हैं कोई शब्द लेकर सामने नहीं आना चाहता
जान लेने वाली बात कर दी आपने तो आज ... नेग चाहिए नहीं क्या
रवि भाई वाली बात पर...? :) :)
अब आपसे कौन डरता है :) :)
फिर से आता हूँ ...
अर्श
खूबसूरत एहसास से बुनी सुन्दर रचना.....बधाई
चश्मे बद्दूर.
डर के सारे द्वार तोड़ कर, प्रिय तुम मेरा साथ निभाना,
अंतहीन अपनापन ले कर, विरहहीन इक मिलन सजाना,
दो क्षण मिलने का सुख पीछे,
सदियों की पीड़ा रचता है।
मुझे मिलन से डर लगता है
कुछ कह पाने कि स्थिति मे नही हू क्योकि मेरे पास उचित शब्दो का टोटा है इस रचना के लिये
दो क्षण मिलने का सुख पीछे,
सदियों की पीड़ा रचता है।
क्या बात है
- वीनस
@) (@)
0
nice!!!!!
श्रद्धेय श्री राकेश खण्डेलवाल जी के मार्ग दर्शन के अनुसार ये पंक्तियाँ संशोधित कर दी गई हैं।
दो क्षण मिलने का सुख पीछे,( वह इक मिलन सॄष्टि की रचना
सदियों की पीड़ा रचता है। ( का आधार हुआ करता है )
मुझे मिलन से डर लगता है। (और मिलन से डर लगता है )
दो क्षण मिलने का सुख पीछे,
सदियों की पीड़ा रचता है।
मुझे मिलन से डर लगता है। ----यहां पहली दो पंक्तियों से विरोध है. आशा अगर अन्तहीन मिलन की है तो असमंजस के क्षण घिरने नहीं चाहिये, यह पंक्तियां अपने आप में तो सुन्दर हैं परन्तु अन्तरे की पन्क्तियों के साथ ताल मेल नहीं है
राकेश जी का ये बड़प्पन है कि मुझ जैसे नौसिखिये के गीत पर भी ध्यान दिया और उस पर अपने सुझाव देकर गीत को पढ़ने के काबिल बनाया।
उनके द्वारा दिया गया तर्क मुझे गीत लिखते समय ही अखर रहा था। मगर कभी कभी अपनी रचना से इतना मोह हो जाता है कि आप जानते बूझते गलती कर जाते हैं।
क्षमा इस मोह के लिये और खण्डेलवाल जी को कोटिशः धन्यवाद
मुझ मूढ़ को तो पहले भी गुनगुनाने लायक लगा था और अब भी....किंतु तुमसे रश्क हो रहा है कि राकेश जी और शार्दुला दी ने समय दिया तुम्हारी रचना को। रवि से तो वक्त मैं भी निकाल लेता हूं, लेकिन ये दोनों....
तो मैं जल-भुन रहा हूं तुमसे!!!
अंतहीन अपनापन ले कर, विरहहीन इक मिलन सजाना,:) ??? :)
sundar...sundar..bahut sundar
कंचन जी
बहुत खूब
सुन्दर रचना
बधाई कुबूल करें
आंख में आंशू आ गए पर साथ में एक सुन्दर सा अहसास... बहुत पवित्र ....
सिर्फ अपना.. एक ...
धत मैं बोल नहीं पा रहा हूँ . मेरी आँख ने सारी सत्ता अपने हाथ में ले ली है शब्द नहीं बचे .
ये एक महान रचना है बस इतना ही कहना है
डर के सारे द्वार तोड़ कर, प्रिय तुम मेरा साथ निभाना,
अंतहीन अपनापन ले कर, विरहहीन इक मिलन सजाना,
वह इक मिलन सॄष्टि की रचना
का आधार हुआ करता है,
और मिलन से डर लगता है..!!
बेहतरीन शब्दों के फूलो से एक सुन्दर प्यारी गीत माला बुन दी आपने। अति सुन्दर।
ultimate!!!! great, how it came true Di!
bahut achaa, rochak,
aur prabhaavshaali geet ...
abhivaadan .
sundar geet hai... lay bana daali maine iski!!!
पहली बार पढ़ा तो लगा इसे ठहर कर समय लेकर पढ़ने की आवश्यकता है। निसंदेह ये बहुत प्यारी कविता बनी है खासकर जिस काव्यात्मक गहराई से हर छंद की रचना हुई है कि उसकी अंतिम पक्ति पर आते ही मन से वाह निकलती है।
नए वर्ष में आपकी काव्यात्मक लेखनी माता सरस्वती के प्रताप से ऍसी ही रचनाओं को जीवन देती रहे ये मेरी शुभकामना है।
लाजवाब बहुत सुन्दर ..निशब्द कर देने वाला गीत है यह ..शुक्रिया
मर्दन का अधिकार उसे है,
जो सर्जन का दम भरता है।
किसे अंत से डर लगता है ??
अटल सत्य!!
बेहद खूबसूरत रचना।
बधाई स्वीकारें।
-विश्व दीपक
सुबह बहुत छोटी होती है, लंबी होती रात, दुपहरी,
कौन भला ऐसा जीवन है, जिसमें मधुॠत हर पल ठहरी,
मधुॠतु को सारथी बना कर,
पतझड़ अपना रथ धरता है,
अब बसंत से डर लगता है।
निशब्द कर देने वाला गीत
gudiyaa raani..
badi sayaani....
paaye hameshaa...
plus...
+
:)
...बहुत सुन्दर, बेहद प्रसंशनीय रचना !!!!
अच्छा गीत है
समर्पण का वह भाव जहां"मैं, तुम" का विसर्जन हो जाता है, हमेंशा मुझे प्रिय रहा है। और जब इतने खूबसूरत भाव को कोई उतने ही सुंदर शब्दों में पिरो दे तो मैं निःशब्द हो जाता हूं। मिलन की तीव्र उत्कंठा से जिन गीतों का जन्म होता है वो सहज ही प्रभावोत्पादक होते हैं। अब इनके बीच आपस में क्या संबंध है ये तो भगवान ही जानें, पर पलटूदास का वो गीत अभी याद आ रहा है जहां मिलन की एक अद्भुत कल्पना की गई है-
जोगिया के लाली-लाली अंखिया नु हो
जइसे कमल के फूल।
हमरो जे लाली चुनरिया नु हो
दूनो तूलमतूल॥
जोगिया के सोहे मृगछालावा नु हो
हमरो पट चीर।
दूनों मिलाय करबो गंठजोरिया नु हो
होखबो अलख फ़कीर॥
इस गीत की शुरूआती पंक्तियाँ जादू कर रही हैं,
ये बंद पढ़कर मज़ा आ गया,
तुमने मन में फूल खिलाये, चुनने का अधिकार तुम्हे है,
रंगो रंग में और गंध में घुलने का अधिकार तुम्हे है,
मर्दन का अधिकार उसे है,
जो सर्जन का दम भरता है।
किसे अंत से डर लगता है ??
मगर क्या पहली दो पंक्तियाँ और उसके बाद वाली अलग अलग नहीं जा रही.
मगर आखिरी में यही कहना चाहूँगा NICE, Very nice
@ अंकित तुम कह रहे हो तो होगा ही मेरे भाई....!
वैसे मुझे लगा कि फूल खिलाना सर्जना है और उन्हे तोड़ कर चुनना, उससे रंग निकाल कर खुद को रंगना, उस की खुशबू में घुलना फूल का मर्दन है....!
इस रचना और उस पर विज्ञ संवाद अभिभूत कर देने वाला है.पर जो अद्भुत सुन्दरता और काव्य परिपक्वता इसमें दिखाई देती है वह प्रशसनीय है.काव्यरचना के विविध पक्षों की व्याख्या विवेचना करना अलग बात है और उसको पढ़कर उसकी सुन्दरता को आत्मसात करना अलग बात है.यही पूर्णता बहुत आनंद देने वाली है.आपकी रचना का यह पक्ष बहुत प्रबल है.
ek bahut achchhi rachna padhne ko mili.
really gr8
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