किसी से नही,
एक तुमसे निभाने की खातिर,
जली मैं युगों से युगों तक
किसी को नही हर किसी शख्स में है
किया याद तुमको निशा से सुबह तक
तुम्ही आदि में हो, तुम्ही अंत मे हो,
तुम्ही मंजिलों में तुम्ही पंथ में हो,
नही दीखते तुम कहीं भी तो क्या है?
खुली आँख में तुम तुम्ही बंद मे हो।
किसी को नही एक तुम को,
सुमिरने की खातिर जगी मैं युगों से युगों तक
कहाँ पर मिले थे, कहाँ फिर मिलोगे ?
नही याद कुछ भी, नही कुछ पता है।
मेरी यात्रा पर कहाँ खत्म होगी,
मेरी आत्मा को फक़त ये पता है।
किसी से नही एक तुम से ही मिलने की,
खातिर चली मैं युगों से युगों तक
मेरी आत्मा की करुण चीख सुन कर,
कभी तो द्रवित होते होगे वहाँ पर।
वहीं से खड़े देखते ही रहोगे
या दोगे सहारा कभी मुझको आकर
किसी की नह एक तेरी प्रतीक्षा में
आँखें लगी हैं, युगों से युगों तक
एक तुमसे निभाने की खातिर,
जली मैं युगों से युगों तक
किसी को नही हर किसी शख्स में है
किया याद तुमको निशा से सुबह तक
तुम्ही आदि में हो, तुम्ही अंत मे हो,
तुम्ही मंजिलों में तुम्ही पंथ में हो,
नही दीखते तुम कहीं भी तो क्या है?
खुली आँख में तुम तुम्ही बंद मे हो।
किसी को नही एक तुम को,
सुमिरने की खातिर जगी मैं युगों से युगों तक
कहाँ पर मिले थे, कहाँ फिर मिलोगे ?
नही याद कुछ भी, नही कुछ पता है।
मेरी यात्रा पर कहाँ खत्म होगी,
मेरी आत्मा को फक़त ये पता है।
किसी से नही एक तुम से ही मिलने की,
खातिर चली मैं युगों से युगों तक
मेरी आत्मा की करुण चीख सुन कर,
कभी तो द्रवित होते होगे वहाँ पर।
वहीं से खड़े देखते ही रहोगे
या दोगे सहारा कभी मुझको आकर
किसी की नह एक तेरी प्रतीक्षा में
आँखें लगी हैं, युगों से युगों तक
47 comments:
क्या बात है कंचन जी बहुत ही खूबसूरत रचना..एक औरत के समर्पण और प्रतीक्षा का सारांश लिख दिया आपने..उम्दा रचना..
भाव समर्पण संग में सुन्दर है एहसास।
युगों युगों से जल रहीं बात कोई है खास।।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
लेखन में परिपक्वता इसे ही कहते है...
विचारों को जगाने वाली कविता।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
नारी मन को ब्यान करती हुई ...रचना मे सकून है जिसमे प्यारा एहसास है.
bahut gahri aur barthpoorna rachna....
badhaai !
तुम्ही आदि में हो, तुम्ही अंत मे हो,
तुम्ही मंजिलों में तुम्ही पंथ में हो,
नही दीखते तुम कहीं भी तो क्या है?
खुली आँख में तुम तुम्ही बंद मे हो।
किसी को नही एक तुम को,
सुमिरने की खातिर जगी मैं युगों से युगों तक
bबहुत सुन्दर समर्पण और अध्यातम मन का भाव प्रस्तुत करती बेहतरीन कविता आभार्
बहुत ही सुन्दर निशब्द कर दिया आपकी इस रचना ने .
ek sundar aur behatreen rachana... waah ji waah ...bhaav jaise ji uthe ho aapki is kavita me
is sajiv chitran ke liye aapko badhai ..
vijay
pls read my new sufi poem :
http://poemsofvijay.blogspot.com/2009/06/blog-post.html
aapke lekhan ko mera salaam !!
bahut aacha hai di.........
bahut hi aacha
तुम्ही आदि में हो, तुम्ही अंत मे हो,
तुम्ही मंजिलों में तुम्ही पंथ में हो,
नही दीखते तुम कहीं भी तो क्या है?
खुली आँख में तुम तुम्ही बंद मे हो।
अनंत से अनंत को खोजती और पहचानती हुयी ................लाजवाब रचना, प्रभू के चरणों में करी समर्पण की आस...........
तुम्ही आदि में हो, तुम्ही अंत मे हो,
तुम्ही मंजिलों में तुम्ही पंथ में हो,
बहुत सुन्दर रचना
प्रेम और समर्पण के गहन कोमल भावों की अतिसुन्दर मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति ......
बहुत बहुत सुन्दर रचना.....
अद्वितीय लेखन...कंचन जी आपकी लेखन में परिपक्वता और निखार दोनों ही तेजी से आ रहे हैं...लिखती रहें...
नीरज
yeh kavita 2 roopon ko pradarshit karti hai.
ek nari man ki antahvedna ko parilakshit karti hai.
doosre nazariye se dekha jaye to prabhu prem ko samarpit rachna hai..........aatma ka parmatma se milan kab aur kaise ho ,use darshati hai.
bahut hi jivant rachna hai.
बहुत सुन्दर!
घुघूती बासूती
तुम्ही आदि में हो, तुम्ही अंत मे हो,
तुम्ही मंजिलों में तुम्ही पंथ में हो,
नही दीखते तुम कहीं भी तो क्या है?
खुली आँख में तुम तुम्ही बंद मे हो।
समर्पण और प्रेम का यह भाव इतना प्यारा है कि कविता जैसे लिखी नहीं जाती बल्कि हृदय से बहती है झरने की तरह। इसी भाव पर मेरी एक कविता की पंक्तियां -
मै बावरा सब जग फिरा
तुमसे मिलन की आस में
अज्ञात था ये भेद तब
तुम ही बसे हर सांस में
********
हर्ष में या विसाद में
कभी छांह मे कभी धूप में।
आलोक तुम्हारा ही प्रकट
इस रूप में उस रूप में।
बहुत अच्छी एवं पावन रचना।
बेहतरीन भाव के साथ लिखी गई रचना। बहुत अच्छा लगा पढकर। वैसे फोटो भी सुन्दर है।
कंचन जी ,
अत्यंत सुन्दर लेखन के लिए साधुवाद !
हमें जीवन में वही हासिल होता है जिसे हम दूसरो को देना चाहते है....
किसी पर विश्वास करके उसका विश्वास जीत सकते है...और किसी से नफरत कर नफरत ही पा सकेंगे.
प्रेम को प्राप्त करने का एक मात्र तरीका पूर्ण समर्पण है...बिना शर्त समर्पण !
आपने समर्पण को कितना सुन्दर अभिव्यक्त किया है...
कहाँ पर मिले थे, कहाँ फिर मिलोगे ?
नही याद कुछ भी, नही कुछ पता है।
मेरी यात्रा पर कहाँ खत्म होगी,
मेरी आत्मा को फक़त ये पता है।
किसी से नही एक तुम से ही मिलने की,
खातिर चली मैं युगों से युगों तक
बहुत सुन्दर रचना के लिए बधाई...
इंतज़ार को बेहद खूबसूरत शब्द दिए हैं. प्रेम का शाश्वत रूप क्या खूब निखर कर आया है कविता में...आपने बहुत सुन्दर लिखा है.
अपने प्रेम के प्रति इस तरह का पूर्ण समर्पण भाव...बेहद सहजता से आपने व्यक्त किया है इन भावनाओं को इस कविता में..
वैसे कब लिखा था इसे आपने ?
नारी मन के
बेहद नाज़ुक से अहसास
कविता मेँ
बखूबी ढल गये हैँ
ऐसे ही लिखती रहीये ..
स्नेहाशिष सह:
- लावण्या
अद्भुत!
आज मेरे सारे भाई बहनों को क्या हो गया है इतनी जबरदस्त अभिब्यक्ति और परिपक्वता इतनी तेज धार आज की लेखनी में पहले कभी नहीं देखा ... अभी अभी रवि के ब्लॉग से आरहा हूँ वहाँ भी गज़ब की धार दिखी शुद्ध हिंदी की ... और आपने तो हद ही कर दी कितनी गंभीरता से अपने बिरहिनिया का एक स्वरुप को उजागर किया है कितनी तपिस है इस कलम में निरंतर परिपक्वता के लिए ... कितनी गहरे भावः है इस कविता में ... उफ्फ्फ्फ्फ्फ ...
ढेरो बधाई
अर्श
ek aur gazab ki rachna....
ek aur gazab ki rachna....
kishore ji ke blog se aap tak pahunchi aur aapki rachana se ru-b-ru hui bahut sundar likhati hai baki baate sabne kah di .
kabhi kabhi bhaavabhiyakti ke liye uchit shabd nahi milte ... isi isi sthiti me hoon aap ki kavita padh kar... kaabil e taareef.
री आत्मा की करुण चीख सुन कर,
कभी तो द्रवित होते होगे वहाँ पर।
वहीं से खड़े देखते ही रहोगे
या दोगे सहारा कभी मुझको आकर
किसी की नह एक तेरी प्रतीक्षा में
आँखें लगी हैं, युगों से युगों तक
--कम लिखती हो मगर कसर निकाल देती हो..ऐसा लेखन कम ही देखने में आ रहा है. जबरदस्त. बधाई और शुभकामनाऐं.
शायद यही प्रेम है....ओर यही समर्पण भावना है .जो नारी के भीतर है....पुरुष में नहीं....चित्र ने भी मुझे प्रभावित किया.....
समर्पण का सुख और दुःख... कितनी खूबसूरती से बयान किया है... कंचनजी..
पढ़ कर वापस चला गया था,फिर आया...
रचना जिस तीव्रता से अपनी कोमलता का अहसास कराती है वो अतुलनीय है, कंचन और मन कई पलों तक इसी मिस्रे पे अटका रहा
"खुली आँख में तुम तुम्ही बंद मे हो"
प्रेम का ईश्वर से एकाकार होता हुआ रूप...किसी को नहीं एक तुम को सुमिरने की खातिर...उफ़्फ़्फ़्फ़!
और फिर "वहीं से खड़े देखते ही रहोगे
या दोगे सहारा कभी मुझको आकर" वाली पुकार जैसे साक्षात परम ब्रह्म को सिंहासन छोड़ दौड़े आने को विवश कर दे...शब्दों के इस अनूठे सामर्थ्य पर हैरान हूँ ।
फिर आता हूँ दुबारा पढ़ने...!
रचना बहुत अच्छी लगी....बहुत बहुत बधाई....
'प्रेम ,समर्पण और नारी ..एक दूसरे के पर्याय ही तो हैं..बहुत अच्छी अभिव्यक्ति है इस कविता में.
प्रतीक्षा के एक पल को लिख पाना भी दुष्कर है
सुन्दर कविता की बधाई
Wah............
किसी से नही एक तुम से ही मिलने की,
खातिर चली मैं युगों से युगों तक......
खुली आँख में तुम तुम्ही बंद मे हो।
कंचनजी ! एक पवित्र भाव के साथ साथ समर्पण , ....बहुत गहरी अनुभूति की और ले जाती है आपकी यह रचना ! जब मन आरती की लौ सा दप दप करता हो तभी उतरती है ऐसी रचना !
मार्मिक अभिव्यक्ति ! बहुत दिन बाद बापस आ पाया क्षमाप्रार्थी हूँ !
bahut undar Bhav ! di,
bhut sundar rachna .
pyaasi atmaa ki pukaar jaisi lagi aapki rachanaa!!
कहाँ पर मिले थे, कहाँ फिर मिलोगे ?
नही याद कुछ भी, नही कुछ पता है।
मेरी यात्रा पर कहाँ खत्म होगी,
मेरी आत्मा को फक़त ये पता है।
किसी से नही एक तुम से ही मिलने की,
खातिर चली मैं युगों से युगों तक
बहुत सुंदर पूर्ण समर्पण को प्रदर्सित करती रचना मेरी बधाई स्वीकार करो
सादर
प्रवीण पथिक
9971969084
मेरी आत्मा की करुण चीख सुन कर,
कभी तो द्रवित होते होगे वहाँ पर।
वहीं से खड़े देखते ही रहोगे
या दोगे सहारा कभी मुझको आकर
किसी की नह एक तेरी प्रतीक्षा में
आँखें लगी हैं, युगों से युगों तक
bahut pyari rachna lagi .
shabdi ko milakr ek achha chitra taiyaar kiya aapne... kavita bahut achhi lagi...
फिर से आया हूँ कंचन इस कविता को पढ़ने...खुद पढ़ने और संजीता को पढ़ाने।
वो भी मेरी तरह मंत्र-मुग्ध हो रखी है...
अपना ख्याल रखो, अनुजा !
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