टाईम्स आफ इण्डिया के लखनऊ संस्करण में आज महिला विद्यालय की शिक्षाशास्त्र की विभागाध्यक्ष रानी जेस्वानी जी के विषय में लिखा गया है। रानी एक पैर पर जिंदगी बिता रही हैं। जिंदगी के विषय में पूंछे जाने पर वे कहती हैं
I feel normal but....
और इस लेकिन के बाद वो बात जो आना लाज़मी है कि
ज़ब्त करती हूँ, तो हर ज़ख़्म लहू देता है,
बोलती हूँ तो अंदेशा-ए-रुस्वाई है।
सच है कि अगर कभी अपनी समस्या डिसकस करने की कोशिश करो तो, लोग जिंदगी से हारा समझने लगते हैं, जो कि नाकाबिल-ए-बर्दाश्त होती है।
और उन लोगो के लिये जो घूर घूर के देखते रहते हैं जैसे सामने वाला एलिएन्स प्रजाति का हो.. "ओह...ऐसे जीवन से मरना अच्छा" कहते हुए, जो सुनाई तो देता है, लेकिन आप सुनते नही...बहुत दिनो से हर रोज़ ये सब सुनते देखते आपको आदत हो गई है..कुछ असमान्य नही लगता...! उनके लिये उन्होने कहा....!
साहिल के तमाशाई हर डूबने वाले पर,
अफसोस तो करते हैं, इम्दाद नही करते।
कोई गलत नही है ये सोच, ये हक़ीकत है। लेकिन इसका मतलब ये नही कि इस अफसोस को उनकी हार का तर्ज़ुमा समझ लिया जाये। ये सिक्के का एक पहलू है। हर कदम पर संघर्ष जैसा वाक्य जिनके कदमो से जुड़ा हो और उन्होने एक भी कदम उठने से रोका ना हो, उन्हे आप निराश की श्रेणी में नही ला सकते।
पिछली बार विकलांग दिवस पर इस विषय में लिखने से पहले बहुत संकोच हुआ था , कहीं लोग गलत अर्थ ना लगा लें, कहीं लोग जिंदगी से हारा ना समझ लें, कहीं लोग उदास न समझ लें, लेकिन आज सुबह सुबह रानी जी को पढ़ने के बाद मन में आया कि अपनी बातें हम नही खुल कर बतायेंगे तो कौन बतायेगा ? जनता बुरी नही है..असल में हम उन्हे समझा ही नही पाते कि हमें क्या व्यवहार चाहिये। हम कहीं न कहीं रोज गिरते हैं, ये सच है, लेकिन हम हर रोज जितनी शिद्दत से बिना पिछली चोट की परवाह के खड़े होते हैं वो भी सच है।
जो सच रानी जी का है, वो मेरा भी सच है....लेकिन कुछ अपने सच बाँटती हूँ... जो रानी जी का भी सच होगा, ये मुझे विश्वास है....!!!!
पहली बात जो माँ कहती थी जब मैं अपनी बीमारी से लड़ रही थी...जो अब भी बहुत बहुत बल देती है
वो देखो उठ बैठी मुन्नी, सारी चींटी मार के,
गिर कर उठ जाने वाले ही, बड़े लोग संसार के...!
और दो शेर जो मेरी वर्किंग टेबल के ऊपर लगे है... जिन्हे मै लगभग रोज याद करती हूँ...
इरादे हों अटल तो मोज़दा ऐसा भी होता है,
दिये को पालती है, खुद हवा ऐसा भी होता है
और दूसरा
बढ़ते पग कब सोचते मंजिल कितनी मील,
घोर अंधेरे से लड़े, छोटी सी कंदील
रानी जी का फोटो मुझे टाईम्स आफ इण्डिया की साईट पर नही मिला, वरना मैं आपसे ज़रूर बाँटती़। एक बात और the person like Rani Ji is not physically disabled... they are in the daily battle of proving there ability.... actually they are highly chalanged by nature ... physically chalanged.
इम्दाद- मदद
मोज़दा -पराकाष्ठा
I feel normal but....
और इस लेकिन के बाद वो बात जो आना लाज़मी है कि
ज़ब्त करती हूँ, तो हर ज़ख़्म लहू देता है,
बोलती हूँ तो अंदेशा-ए-रुस्वाई है।
सच है कि अगर कभी अपनी समस्या डिसकस करने की कोशिश करो तो, लोग जिंदगी से हारा समझने लगते हैं, जो कि नाकाबिल-ए-बर्दाश्त होती है।
और उन लोगो के लिये जो घूर घूर के देखते रहते हैं जैसे सामने वाला एलिएन्स प्रजाति का हो.. "ओह...ऐसे जीवन से मरना अच्छा" कहते हुए, जो सुनाई तो देता है, लेकिन आप सुनते नही...बहुत दिनो से हर रोज़ ये सब सुनते देखते आपको आदत हो गई है..कुछ असमान्य नही लगता...! उनके लिये उन्होने कहा....!
साहिल के तमाशाई हर डूबने वाले पर,
अफसोस तो करते हैं, इम्दाद नही करते।
कोई गलत नही है ये सोच, ये हक़ीकत है। लेकिन इसका मतलब ये नही कि इस अफसोस को उनकी हार का तर्ज़ुमा समझ लिया जाये। ये सिक्के का एक पहलू है। हर कदम पर संघर्ष जैसा वाक्य जिनके कदमो से जुड़ा हो और उन्होने एक भी कदम उठने से रोका ना हो, उन्हे आप निराश की श्रेणी में नही ला सकते।
पिछली बार विकलांग दिवस पर इस विषय में लिखने से पहले बहुत संकोच हुआ था , कहीं लोग गलत अर्थ ना लगा लें, कहीं लोग जिंदगी से हारा ना समझ लें, कहीं लोग उदास न समझ लें, लेकिन आज सुबह सुबह रानी जी को पढ़ने के बाद मन में आया कि अपनी बातें हम नही खुल कर बतायेंगे तो कौन बतायेगा ? जनता बुरी नही है..असल में हम उन्हे समझा ही नही पाते कि हमें क्या व्यवहार चाहिये। हम कहीं न कहीं रोज गिरते हैं, ये सच है, लेकिन हम हर रोज जितनी शिद्दत से बिना पिछली चोट की परवाह के खड़े होते हैं वो भी सच है।
जो सच रानी जी का है, वो मेरा भी सच है....लेकिन कुछ अपने सच बाँटती हूँ... जो रानी जी का भी सच होगा, ये मुझे विश्वास है....!!!!
पहली बात जो माँ कहती थी जब मैं अपनी बीमारी से लड़ रही थी...जो अब भी बहुत बहुत बल देती है
वो देखो उठ बैठी मुन्नी, सारी चींटी मार के,
गिर कर उठ जाने वाले ही, बड़े लोग संसार के...!
और दो शेर जो मेरी वर्किंग टेबल के ऊपर लगे है... जिन्हे मै लगभग रोज याद करती हूँ...
इरादे हों अटल तो मोज़दा ऐसा भी होता है,
दिये को पालती है, खुद हवा ऐसा भी होता है
और दूसरा
बढ़ते पग कब सोचते मंजिल कितनी मील,
घोर अंधेरे से लड़े, छोटी सी कंदील
रानी जी का फोटो मुझे टाईम्स आफ इण्डिया की साईट पर नही मिला, वरना मैं आपसे ज़रूर बाँटती़। एक बात और the person like Rani Ji is not physically disabled... they are in the daily battle of proving there ability.... actually they are highly chalanged by nature ... physically chalanged.
इम्दाद- मदद
मोज़दा -पराकाष्ठा
23 comments:
इरादे हों अटल तो मोज़दा ऐसा भी होता है,
दिये को पालती है, खुद हवा ऐसा भी होता है
kya baat hai...jiyo.. imaandaari bhii..himmat bhi!!
हिम्मत करने वालो की कभी हार नही होती..
आपके जज़्बे को सलाम
कितने लोगो के पास आप जैसा मन है ओर आप जैसा दिल.....बताईये फ़िर कौन अधूरा हुआ ?
kanchan ji aapne jis thakuraai se viklaango ko saantavnaa swaroop support kiyaa hai uske liye saadhuvaad .jhalle ke blogs par bhi padhaar kar kartaarth karen .jhallevichar.blogspot.com
गिर कर उठ जाने वाले ही, बड़े लोग संसार के...!
इस सच्चाई के बाद बाद कहने को क्या बचता है?
viklaangon ki bhaavnaon ko samajhane achcha prayas kiya hai aapne. behtareen lage aapke dwara udhrit sher.
जब तक सोच विकलांग न हो तब तक विकलांगता का कोई अर्थ नहीं रह जाता...बहुत अच्छे और गहरे शेर दिए हैं आपने अपनी पोस्ट पर...वाह.
नीरज
फानूस बन के जिसकी
हिफाज़त खुदा करे,
वो शम्मा क्या बुझे
जिसे रौशन खुदा करे !
खुब खुश रहो
और बढिया साहित्य पढो
और लिखो --
man swasth to koi badha nhin.
कौन कहता है निराश? कौन कह सकता है निराश? कोई नहीं.
अपने प्यारे कवि की कुछ पंक्तियाँ लिख रहा हूँ - ताल्लुक रखियेगा-
"दुनिया बेपहचानी ही रह जाती, यदि दर्द न होता मेरे जीवन में .
मन को निर्मल रखने के लालच में, जो कुछ कहना पङता है कहता हूँ
पीड़ा को गीत बनाने की खातिर, जो कुछ सहना पङता है सहता हूँ
मेरी पीड़ा अनजानी ही रहती, यदि अश्रु न जन्मे होते लोचन में .
मुझको भय लगता है उन लोगों से, जो मौसम की ही भाँती बदलते हैं
प्यारे लगते हैं लेकिन वे इंसान, जो हर मुश्किल के लिए संभलते है
नफ़रत है केवल उन इंसानों से, जो शूल बने बैठे हैं मधुबन में .
आप मेरे ब्लॉग पर आयीं, धन्यवाद .
" दिल बड़ी चीज़ है अब और तकाज़ा क्या है ? देने वाला क्या तुझे सारी खुदाई देगा " ! कंचन जी ! हमारा मन हमेशा ' जो नहीं है ' पर ही अटका रहता है ! " जो है " उसमें आनंदित होना ही विकलांगता पर हमारी विजय है !
आपके आशावादी सोच को नमन !
घोर अंधेरे से लड़े, छोटी सी कंदील..
बनी रहे यह लौ!
aap ka blog hindi me nahi dekh pa rahe. Roman me hindi ka addhayan kafi kathin sabit ho raha hai.
kul milakar laga aap bahut "ACHHI" hai.
SHUBHDA
इरादे हों अटल तो मोज़दा ऐसा भी होता है,
दिये को पालती है, खुद हवा ऐसा भी होता है
wah.......
बेहतरीन व संवेदनशील प्रस्तुति के लिये आभार व बधाई स्वीकारें
kanchan ji aaj pahli baar aapka blog dekha...dekhkar thagaa sa rah gayaa ki pahale kyun nahin dekha.. vaise main is jagat men teen maah pooraana hi hoon...magar haal-haal tak blogaron tak kaise pahuncha jata hai ye bhi nahin jaantaa thaa..aaj aapko jana-samjhaa..accha lagaa...sach...!!!
i salute you ma'm
आपके विचार बहुत सुन्दर है । आपकी लेखनी में हिम्मत और साहस है । लिखते रहिए
main is lekh ko thoda der se parha di!!
aapse to mujhe hamesha sambal mila hai, aur ye bat hi kafi hai apki majbooti darshane ke lie.
बहुत अच्छा लिखा है आपने। वाकई आपकी हरेक पोस्ट पढ़कर बहुत प्रेरणा मिलती है। कुछ नए शब्द भी सीखने को मिलते हैं। जैसे मोज़दा (पराकाष्ठा)शब्द से मैं परिचित नहीं था। सचमुच बहुत अच्छा लिखती हैं आप। बहुत प्रेरणादायक। इस कदर कि पढ़कर ऎसा जोश भर जाए बिना पैरों के भी दौड़ने लग जाए। सच में बहुत अच्छा लगा पढ़कर।
व्यक्तिगत तौर पर आपके बारे में पहली बार कुछ जाना, आपके लेख बहुत अच्छे एवं स्पष्ट होते हैं ! कभी महसूस नही हुआ कि कहीं कोई दर्द है, ईश्वर आप जैसी हिम्मत उनको अवश्य दे जो कही न कहीं हिम्मत हार जाते हैं या हारने की कगार पर हैं ! आप जैसे व्यक्तित्व, कमजोरों को हिम्मत देते रहेंगे, ऐसी मेरी कामना है !
इतिहास साक्षी है कि इरादे अटल हों तो विकलांगता रोक नहीं पाती मानव के विजयरथ को। आठ अंगों से विकृत अष्टावक्र की अद्वितीय प्रतिभा क्या सबको विदित नहीं है?
आपका ब्लॉग पढ़ा अत्यन्त प्रेरक और ashawadi लेखनी है आपकी , बहुत बढ़िया लिखा है आपने -
इरादे हों अटल तो मोज़दा ऐसा भी होता है,
दिये को पालती है, खुद हवा ऐसा भी होता है
ऐसे कितने लोग होते है जो शारीरिक तोर से परिपूर्ण होते हुए भी काम नही करना चाहते , बुरी आदतों के आधीन रहते है और ख़ुद का तथा दूसरो का भी जीवन ख़राब करते है सही मायनो में अक्क्षम व्यक्ति वे लोग है , जबकि जिन को प्रकृति ने कुछ कमी रखी है ,वावजूद उसके वे जिन्दगी की हर ज़ंग लड़ते है ,वे सक्षम है . आपका लिंक मैंने अपने ब्लॉग में दिया है और एक बात और मैं और आप हमपेशा है ........
नमस्कार कंचन जी,
बड़े दिनों के बाद आपके ब्लॉग पर आने का मौका मिला और एक साथ सब कुछ पढता ही चला गया. आपको पढ़ना हमेशा मेरे मन को नए जोशो-खरोश और जूनून से भर जाता है और शायद अकेला मैं ही नहीं मेरे जैसे कितने और होंगे जो आपके शब्दों में जिंदगी के मायने खोजते होंगे. नए साल में आपको परिवार सहित बहुत-बहुत शुभकामनाये!
अजीत
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