वो जिंदगी की तरह उलझने ही देता है,
पर उसके छूटने के नाम से जी डरता है।
इसी आदत पे उसे जिंदगी है नाम दिया,
वो अपना हो के भी बस दुश्मनी निभाता है।
ये जिंदगी अपनी, जिंदगी में वो अपना,
मैने उम्मीद बड़ी रखी है इन दोनो से।
मुझे पल भर की खुशी देके बाँध रखा है,
अजब बंधन है छूट सकते नही दोनो से।
ये खुशियाँ लम्हों को देते हैं, दर्द सालों को,
ये नाउम्मीद मुझे बार.बार करते हैं।
मुझे मालूम है ये दोनो मेरे हैं ही नही,
अपनी चीजों में इनका क्यूँ शुमार करते हैं।
वो जिंदगी की तरह मेरे है करीब बहोत,
पर इनकी दीद की खतिर भी जी तरसता है।
वो जिंदगी में, मेरी जिंदगी उसमें गुम है,
मेरा वजूद इन्ही दोनो में भटकता है।
7 comments:
सुन्दर रचना है.. कुछ व्याकरण की त्रुटियों को छोड कर...
यह उम्मीद ही दुनिया में हमें हैरान और परेशान करती है... चाहे ये :वो: से हो या किसी और से :)
बहुत अच्छा लिखा है कंचन तुमने!
मुझे मालूम है ये दोनो मेरे हैं ही नही,
अपनी चीजों में इनका क्यूँ शुमार करते हैं।
ये पंक्तियां विशेष पसंद आईं। अच्छी रचना है।
@ मोहिन्दर जी! बहुत अच्छा लगी स्पष्ट विवेचना और भी अच्छा लगे यदि त्रुटियों का उल्लेख कर दिया जाए!
@ नाम में क्या रखा है एवं रवीन्द्र जी! बहुत बहुत धन्यवाद
सीख नम्बर एक...अब आपकी रचनाएँ समय दे कर पढ़नी पड़ेंगी। शिक्षक तो एक बार ही बताएगा, अगली बार तो डाँट का डर रहेगा:)
समय दे कर पढ़िये वो तो ठीक है, परंतु मेरे स्पष्टीकरण को शिक्षा का नाम मत दीजिये! यद्यपि आपने प्रशंसा नही की है तथापि धन्यवाद! टिप्पणी देने के लिये!
बहुत सुंदर ...
Post a Comment