Thursday, October 22, 2009

तुम्हारी खुशबू अभी भी यही पे बिखरी है,तुम्हारी मुस्कुराहटें हैं आस पास वही....




कुछ दिन हुए .....पता नही किस के ब्लॉग पर पढ़ा था "अग़र किसी जगह से आपकी मीठी यादे जुड़ी हों तो वहाँ दोबारा कभी नही जाना चाहिये... " बात सच थी क्योंकि यादे वहीं रह जाती हैं, और वक़्त आगे निकल जाता है। हम सब कुछ यादों के अनुसार ढूँढ़ते हैं... छोटी छोटी बातों को भी बिलकुल वैसे ही दोहराना चाहते हैं और ये अपने वश में होता नही....! वक़्त सब कुछ ले के आगे बढ़ गया होता है। मगर ऐसे में जब उस जगह मजबूरन पहुँचना ही पड़ जाये, तो जो होता है वो दिखता नही, जो दिखता है वो होता नही.....! दिखता है वो सब जो कभी हो चुका है....! ऐसे हालातों में लिख गई ये नज़्म.....!!!! ऐसी ही किसी सीढ़ी पर.....! जैसी ऊपर चित्र में है (साभारः गूगल)


बदल गये हैं सभी सड़के इमारत लेकिन,
शहर में आ के मेरे दिल का धड़कना है वही,
तुम्हारी खुशबू अभी भी यही पे बिखरी है
तुम्हारी मुस्कुराहटें हैं आस पास वही....

ज़रा सी दूरी बना कर यहीं पे बैठै हो,
कि बार बार हाथ, बढ़ के थम से जाते हैं,
कहीं से कोई कोई आ के झाँक जाता है,
औ आते आते सभी लब्ज़ ठहर जाते हैं।

तुम इर्द गिर्द हो के दूर बहुत लगते हो,
मै खुद को पाती हूँ मज़बूर बहुत फिर से यहाँ,
जहाँ भी देखूँ वहाँ तुम ही नज़र आते हो,
मगर मिलने के लिये तुम से जगह ढूढ़ूँ कहाँ ?


ये कैसे सारी की सारी अवाज़ें जिंदा हुईं,
ये कैसे सारे पुराने दरख्त फिर हैं हरे,
ये कैसे उठ के खड़े हैं वो पुराने मंज़र,
ये कैसे आँख में पुरनम से ख़ाब फिर हैं भरे।

नज़र मिला के बिना बोले कोई कहता है,
नज़र के सामने मेरे नज़र भरी फिर क्यों?
मैं साथ साथ हूँ तेरे, मैं इर्द गिर्द ही हूँ
औ मेरे रहते ये तनहाई की बातें फिर क्यों ?

तुम्हारी आँख के झोके जो छू के जाते हैं,
अब्र आँखों के हवा पा के बरस जाते हैं,
तुम हो बेचैन बहुत ज्यादा मगर बेबस हो,
तुम्हारे हाथ जो मुझ तक न पहुँच पाते हैं।

हँसी बेफिक्र वही और हमारी फिक्र वही,
तेरी शरीर निगाहों में मेरा ज़िक्र वही,
दिखाई देती न हो उसकी इबारत लेकिन,
है सारी बात फिज़ा में वही, हवा में वही...

तुम्हारी खुशबू अभी भी यही पे बिखरी है
तुम्हारी मुस्कुराहटें हैं आस पास वही....

44 comments:

डिम्पल मल्होत्रा said...

मैं साथ साथ हूँ तेरे, मैं इर्द गिर्द ही हूँ
औ मेरे रहते ये तनहाई की बातें फिर क्यों ?.....tun samne hai mere sath hai fir bhi teri yaad bahut ati hai....तुम हो बेचैन बहुत ज्यादा मगर बेबस हो,
तुम्हारे हाथ जो मुझ तक न पहुँच पाते हैं....ultimate....

अजय कुमार said...

कहीं से कोई कोई आ के झाँक जाता है,
औ आते आते सभी लब्ज़ ठहर जाते हैं।
bahut badhiya

पंकज सुबीर said...

हैरान हूं ............। कंचन क्‍या ये सचमुच तुमने लिखा है ? प्रश्‍न का शीघ्र उत्‍तर देना फिर आगे की बात करूंगा ।

दर्पण साह said...

तुम्हारी आँख के झोके जो छू के जाते हैं,
अब्र आँखों के हवा पा के बरस जाते हैं,
तुम हो बेचैन बहुत ज्यादा मगर बेबस हो,
तुम्हारे हाथ जो मुझ तक न पहुँच पाते हैं।
Hmmm...
accha hua main block nahi kiya gaya !!

waise kaha jaat hai na ki oorja hamesha upar se neeche ki taraf ko behti hai to seekhne ki potentiality to hai hi.

Guru to accha mila hai dekho shishyata ab.

Aur haan meri shikayat laga rahi ho ap Gautam sir se?
Gurrrrr... Kit... Kit...

"Miss Miss aapne mujhe maara par jab isne galti ki to aap kuch nahi kar rahe ho?"
hmmm...
Dekh liya jaiyega !!



Pranam.

रंजू भाटिया said...

मैं साथ साथ हूँ तेरे, मैं इर्द गिर्द ही हूँ
औ मेरे रहते ये तनहाई की बातें फिर क्यों ?

यही तो समझना बहुत मुश्किल होता है ...बहुत पसंद आई आपकी यह रचना ..अग़र किसी जगह से आपकी मीठी यादे जुड़ी हों तो वहाँ दोबारा कभी नही जाना चाहिये..सही लिखा है यह जिसने भी लिखा है

ghughutibasuti said...

बहुत सुन्दर कंचन! मैं न जाने कितनी बस्तियों को पीछे छोड़ आई हूँ। जानती हूँ कि अब वहाँ वापिस जाने पर सबकुछ होने पर भी कुछ भी नहीं मिलेगा। मेरे लिए केवल एक राख का ढेर ही बचा होगा।
घुघूती बासूती

संगीता पुरी said...

शुभकामनाएं !!

पारुल "पुखराज" said...

ये कैसे सारी की सारी अवाज़ें जिंदा हुईं,
ये कैसे सारे पुराने दरख्त फिर हैं हरे,

kaisey ?

करोगे याद तो हर बात याद आयेगी....

vandana gupta said...

sundar ahsason se labrej .....badhayi

कंचन सिंह चौहान said...

@गुरु जी... गुरु जी इसे प्रशंसा का नया अंदाज़ समझूँ या और कुछ.... ?? :)

@ दर्पण...ओये ये बिना कहे शिष्य बनने की कहानी तो सुनी थी एकलव्य की..ये बिना पूँछे ताछे गुरु बनने का तुम नया इतिहास बना रहे हो क्या ??.... तुम अपने कान संभाल के रखो..अभी आती हूँ, इन्हे गर्म करने...! :)

निर्मला कपिला said...

तुम्हारी आँख के झोके जो छू के जाते हैं,
अब्र आँखों के हवा पा के बरस जाते हैं,
तुम हो बेचैन बहुत ज्यादा मगर बेबस हो,
तुम्हारे हाथ जो मुझ तक न पहुँच पाते हैं।

लाजवाब, पाँच मि़ के लिये नेट पर आयी तो आते ही तुम्हारे भाई[अर्श] ने न मेरा हाल पूछा न कुछ और कहा बस कंचन दी का गीत पढो कितना सुन्दर है सो मैं भी लोभसंवरण नहीं कर पाई। पूरा गीत अद्भुत भावों को संजोये है एक एक पंक्ति दिल को छू गयी है । शुभकामनायें

Udan Tashtari said...

हँसी बेफिक्र वही और हमारी फिक्र वही,
तेरी शरीर निगाहों में मेरा ज़िक्र वही,
दिखाई देती न हो उसकी इबारत लेकिन,
है सारी बात फिज़ा में वही, हवा में वही..

-उन्हीं यादों को सहेजने समेटने की बात आज ही मैने भी की अपनी पोस्ट पर--हालांकि अंदाजे बयां आप सा कहाँ..बस, भाव कहीं मिलते से नजर आये!!

बहुत उम्दा!!

दिगम्बर नासवा said...

तुम्हारी खुशबू अभी भी यही पे बिखरी है
तुम्हारी मुस्कुराहटें हैं आस पास वही....

किसी की यादों में डूबना इतना मधुर एहसास देता है की फिर किसी बात की परवा नहीं होती ........... बहुत ही गहरे एहसास में डूब कर लिखी है ये रचना ..........

M VERMA said...

तुम्हारी खुशबू अभी भी यही पे बिखरी है
तुम्हारी मुस्कुराहटें हैं आस पास वही....
एहसास की खुश्बू देशकाल और सीमाओ से परे जो है.

सुशील छौक्कर said...

"अग़र किसी जगह से आपकी मीठी यादे जुड़ी हों तो वहाँ दोबारा कभी नही जाना चाहिये"

और ये भी कही पढा था कि " यादें खट्ठी हो या मिठी हमेशा रुलाती है"

एक खूबसूरत रचना फिर से पढने को मिल गई।

तुम इर्द गिर्द हो के दूर बहुत लगते हो,
मै खुद को पाती हूँ मज़बूर बहुत फिर से यहाँ,
जहाँ भी देखूँ वहाँ तुम ही नज़र आते हो,
मगर मिलने के लिये तुम से जगह ढूढ़ूँ कहाँ ?

गहरे जज्बातों को सुन्दर शब्दों से कह दिया। बहुत सुन्दर।

पुनीत ओमर said...

यादों को जीना उतना बुरा नहीं होता जितना की यादों में जीना..

सचमुच आपका जवाब नहीं होता जब आप यादों के झरोखों से कुछ मोती निकाल कर लाती हो.
"तमन्ना तुझको अभी किसकी आस बाकी है" और ऐसी जाने कितनी पंक्तियाँ अभी भी जेहेन में हैं.

पंकज सुबीर said...

कंचन जो भी व्‍यक्ति साहित्‍रू से जुड़ता है उसके लिये एक विधा विशेष होती है जिसमें वो अपना सर्वश्रेष्‍ठ देता है । भले ही वो सारी विधाओं में दखल रखे लेकिन एक विधा उसकी पहचान बनती है । जैसे मैं तुम्‍हारे बारे में यही सोचता था कि यदि तुम साहित्‍य की ओर आई हो तो नियति ने तुम्‍हारे लिये कौन सी दिशा तय कर रखी है । हालांकि एक विधा जिसको लेकर मैं सोचता था कि तुम उस विधा में काम करो तो वो तुम्‍हारे लिये ठीक है वो थी संस्‍मरण । किन्‍तु बात गद्य की हो जाती और तुम्‍हारा लगाव पद्य से जियादह है । पद्य में सच कहूं कि तुममें गंभीरता की कमी हमेशा मुझे खलती रही । गम्‍भीरता का मतलब ये नहीं है कि तुम्‍हारे काव्‍य में गंभीरता नहीं होती बल्कि ये कि तुममें गंभीरता नहीं होती एक प्रकार की लापरवाही होती है । यही लापरवाही तुम्‍हारे काव्‍य में उतर आती है ।
कंचन कविता दशमलव शून्‍य शून्‍य एक प्रतिशत लापरवाही भी बर्दाश्‍त नहीं कर पाती है । कविता तो कहती है कि या तो सब कुछ ही मुझे चाहिये या कुछ भी नहीं । कविता तो कहती है कि शेर अच्‍छा बुरा नहीं होता, या तो होता है या नहीं होता । तो मुझे हमेशा से ऐसा लगा कि तुम अपने काव्‍य के प्रति गंभीर नहीं हो । केवल लिखने के लिये लिखना ठीक नहीं है । जब लिखें तो कुछ तो ऐसा हो कि उस क़लम की स्‍याही, उस कागज और हमारे समय का प्रतिफल हो पाये ।
बात इतनी सारी इसलिये कि इस नज्‍म ने तुम्‍हारी दिशा इंगित हो रही है । और वो ये कि यही वो विधा है जो तुमको सबसे जियादह रास आने वाली है । मैंने जो पूर्व में एक टिप्‍पणी की थी कि क्‍या ये सचमुच तुमने लिखी है तो उसके पीछे कारण ये ही था कि मुझे विश्‍वास ही नहीं हुआ कि इतना सधा हुआ और ऐसा लेखन जिसमें कहीं लिखने वाली की अंशमात्र भी लापरवाही नहीं झलक रही हो, तुमने किया है । होता है कभी कभी ऐसा कि हम लेखन को इबादत में नहीं बदल पाते, हम लिखने को समय काटने का एक जरिया मान कर चलते हैं । तुम्‍हारे अब तक के लेखन में हमेशा मुझे ये ही लगा कि तुम लेखन को समय काटने के लिये कर रही हो, उसे इबादत के दर्जे तक पहुंचा नहीं पा रही हो । हो सकता है कि इसमें एक कारण ये भी हो कि तुम उस विधा तक नहीं पहुंच पा रही थीं जो तुम्‍हारे लिये बनी है । जहां आज तुम पहुंची हो । नज्‍म बहुत मेहनत मांगती है और एक नज्‍म दस ग़ज़लों के बराबर प्रभाव छोड़ती है । नज्‍म सुनने वाले और पढ़ने वाले पर जादू कर देती है । नज्‍म सुनते समय कोई दाद या वाह चाह नहीं होती, नज्‍म सुनने वाला आंखें बंद कर उसके प्रभाव में डूब जाता है ।
अब कहूंगा कि अमृता प्रीतम और मीनाकुमारी और गुलजार इनकी नज्‍में भी पढ़ना और खूब पढ़ना । तुम ने जिसे शैली में आज की नज्‍म को उठा कर जिस बखूबी से उसे पूरा किया है, उस शैली के ये गुणी लोग हैं ।
तुम्‍हारी इस नज्‍म के सातों ही बंद अद्भुत हैं । अभी हम बिल्‍कुल बात नहीं करें कि व्‍याकरण क्‍या कहती है और नज्‍म का छंद शास्‍त्र क्‍या कहता है । यदि हम केवल कहन की बात करें तो ये छंद हर बहर, हर व्‍याकरण से ऊपर निकल गये हैं । ये छंद कह रहे हैं कि हम उन सब से ऊपर हो गये हैं ।
बुखार के कारण गले की खराबी नहीं होती तो इसको तुरंत अपनी आवाज़ में रिकार्ड करके भेजता । क्‍योंकि नज्‍म को कहने का एक अंदाज होता है और वो इस नज्‍म के अंग अंग से छलक रहा है ।
नज्‍म और उस पर भी मंज़रकशी की नज्‍म लिखना दुरूह कार्य है । मंज़रकशी का मतलब कि आपको पूरा का पूरा दृष्‍य शब्‍दों से ही बनाना है । जो कुछ आप देख रहे हैं उसको शब्‍दों से व्‍यक्‍त करना । बहुत मुश्किल होता है । और व्‍यक्‍त भी ऐसे करना कि जब भी कोई उस नज्‍म को सुने तो उसके सामने भी वही दृष्‍य तैर जायें जो लेखक की आंखों के सामने थे । मतलब कि हमको शब्‍दों की प्राणप्रतिष्‍ठा करनी होती है ।
तुम इस नज्‍म में मंजरकशी करने में शतप्रतिशत सफल रही हो और शब्‍दों की प्राणप्रतिष्‍ठा इस प्रकार से की है कि ये शब्‍द स्‍वयं ही कहानी कहेंगें ।
कंचन एक रहस्‍य खोलता हूं कि मैंने वो प्रश्‍न सुबह के कमेंट में क्‍यों पूछा था । दरअसल कुछ सालों पहले जब मेरी कहानी हंस में छपी थी जिसका नाम था और कहानी मरती है । मेरे लिये ये किसी भी प्रतिष्ठित पत्रिका में छपने वाली पहली कहानी थी । जब वो कहानी मैंने अपने गुरू डॉ विजय बहादुर सिंह ( जो अब वागर्थ के संपादक हैं ) को पढ़वाई तो उन्‍होने ठीक यही प्रश्‍न मुझसे किया था ' ये कहानी सचमुच तुमने ही लिखी है ? ' इस प्रश्‍न ने मुझे सातवें आसमान पर पहुंचा दिया था । बाद में उस कहानी पर आयोजित कार्यक्रम में उन्‍होंने अपने भाषण में कहा था कि जब पंकज की ये कहानी मैंने पढ़ी तो मुझे लगा कि ये कहानी इसकी नहीं है, इतनी सुगठित कहानी ने मेरे मन में संशय पैदा कर दिया । वो मेरे लिये बड़ा काम्‍लीमेंट था ।
खैर नज्‍म के लिये बधाई । और जियादह लिखूंगा तो तुम्‍हारे भाई लोग शोर मचाने लगेंगें ।

ललितमोहन त्रिवेदी said...

कंचन जी !
अक्सर अच्छे पद्य लेखक अच्छा गद्य नहीं लिख पाते और अच्छे गद्य लेखक पद्य के साथ एकाकार नहीं हो पाते,परन्तु ईश्वर ने आपको दौनों में ही लिखने की विलक्षण प्रतिभा सौपी है ! आपकी इस रचना की तन्मयता पाठक को भी उसी गहराई में खींच ले जाती है जिस गहराई में डूबकर यह लिखी गयी है ! इसके किसी भी बंद को उद्धृत करके मैं अपनी प्रशंसा को छोटी नहीं करना चाहता ,अद्भुत है ये नज़्म !

गौतम राजऋषि said...

सच तो ये है कि गुरूदेव पंकज सुबीर जी के इस टिप्पणी के बाद, तुम्हें तमाम टिप्पणियां ब्लौक कर देनी चाहिये। कम-से-कम मैं होता तो ऐसा ही करता। कुछ कहने को शेष नहीं रहता अब तो....आज मेरे लिये जाने कितनी सारी खुशियों का दिन है। पहले गुरूजी की एक अनूठी कहानी "महुआ घटवारिन" को लेकर उठा तारीफों का तूफ़ान, फिर अपनी ही ग़ज़ल पर गुरूजी का वो "i am proud of you" लिखना{अब देख लो अनुजा, तुम्हारी नज़्म की इतनी तारीफ़ के बाद भी proud वो मुझे लेकर ही feel कर रहे हैं}, और अब तुम्हारी इस नज़्म को देखना, जिस नज़्म का जन्मोत्सव शायद हमदोनों के आँसुओं ने संग मनाया था। हाँ, शायद पहली बार किसी कविता को पढ़कर इतना रोया था। अब गुरूजी का ये कहना कि "तुम्‍हारे अब तक के लेखन में हमेशा मुझे ये ही लगा कि तुम लेखन को समय काटने के लिये कर रही हो, उसे इबादत के दर्जे तक पहुंचा नहीं पा रही हो"...अब मैं ही जानता हूँ कि इबादत को लिखे से प्रकट करना, जोड़ना तो मैंने तुमसे ही सीखा है, तुममें ही देखा है। कभी बताऊँगा गुरूजी को इस इबादत की कहानी भी...

कभी दर्पण की लिखी "संदूक" थी और उस फ़ेहरिश्त में दूसरा नाम जुड़ गया है अब।

god bless you sis with all his choicest blessings

"अर्श" said...

संवेदनशीलता शायद इसे ही कहते हैं और उससे भी ऊपर ये बात के उस संवेदनशीलता को शब्द आप किस तरह से नाप तौल कर अपनी गधऔर पध लेखन में किस सलीके से सजाते हैं यह नायाब नज़्म उसी का एक पूरी तरह से उदहारण है ... गुरु जी ने मेरे लिए किसी ब्लॉग पे कहा था के मैं संवेदनशील इंसान हूँ इस बात को शायद भलीभांति समझ नहीं पाया था के आखिर अगर मैं हूँ तो वो किस तरह से हूँ आज आपकी यह नज़्म पढ़ कर समझ आ रहा है के आखिर संवेदनशीलता किसे कहते हैं,...वाकई गुरु जी ने अपने टिपण्णी में सारी बातें कह डाली है बहुत कुछ सीखा भी दिया है हमें... मुमकिन नहीं है हो सकता है अब आप इससे बेहतर नज़्म अछे शब्दों से सजा कर लिख सकती हैं मगर जो भाव आपने इसमें डाले हैं , डाले क्या है जो खुद डाल दिया गया है माँ सरस्वती की तरफ से , आप शायद ऐसी बात और किसी में नहीं लिख पायें... शायद इसे कहा जाता है के माँ सरस्वती खुद आपके कलम की नोक पर उस समय विराज मान थीं... सच में गुरु जी की टिपण्णी के बाद आपको टिप्पणी बंद कर देनी चाहिए थी, इससे बेहतर और खुछ हो ही नहीं सकता है ,.. और ऐसी जगह पर हम कुछ कहने जैसा है ही नहीं ... दोपहर में जब आपकी नज़्म पढ़ी थी उस समय मैं ये पूछ बैठा था के ये किस बह'र या मात्र पे आपने लिखने की कोशिश की है , सच में गुरु जी ने जो बात कही है के इस नज़्म के भाव खुद ये कह रहे हैं के हम सबसे ऊपर है हमें मत्रवों में मत गिनना ... मेरी उस गलती को क्षमा करें ... आपने पूछा था न के मैं और मेरे तेवर बदले बदले जैसे हैं उसका सही जवाब यही है के उसके तुंरत पहले मैंने आपकी यह नज़्म पढ़ी थी ... क्या कर देला रे बाप .. आती क्या ... :) हा हा हा
कमाल कर दिया है आपने ... वेसे गुरु जी आप ज़रा भी चिंता ना करें के हम शोर मचाएंगे .. हमारी एक ही तो आश्रम में लाडली बहन है जिसे हम दिल-ओ-जान से प्यार करते हैं ... आप दिल खोल के इन्हें प्यार दें अगर हो सके तो हमारे हिस्से का और न तो मेरे हिस्से का तो बगैर पूछे आप दे सकते हैं...
मैं आपसे बगैर पूछे इनको आश्रम का मॉनिटर घोषित कर चुका हूँ इसके लिए क्षमा गुरु देव ....
अब कुछ कहने के लिए आपके पास शब्द धुन्धने आना पड़ेगा ....


आपका
अर्श

neera said...

दो बार पढ़ी कहीं प्रेम, कहीं जुदाई, कहीं विरह, कहीं वेदना... इतने सारे भावो का संगम...

कंचन सिंह चौहान said...

@ गुरु जी स्तब्ध और निश्शब्द....!

@ वीर जी अभ गुरु जिस पर भी प्राउड करे, मैं खुद पर प्राउड फील कर रही हूँ फिलहाल...!

@ अर्श अपने हिस्से का प्यार देने का शुक्रिया...! मागर मानव स्वभाव जिन चीजों से मिलकर बना है वो थोड़ा थोड़ा होना ज़रूरी भी है....! थोड़ी सी जलन रिश्तों को कूल बनाये रखती है...! मुझे तो होती है भाई..! :) :)

रंजना said...

तुम्हारी रचना.........और उसपर प्रबुद्ध जानो के ये कमेन्ट.......इसके बाद अब और क्या कहूँ......जियो बस जियो !!!

ऐसे ही विलक्षण लिखती रहो....

जिस वाक्यांश का तुमने जिक्र किया है....." जिस स्थान से मधुर स्मृतियाँ जुडी हों.........." मैंने अपपनी एक पोस्ट में लिखा था..पर यह सिर्फ लिखा नहीं था...इसे गहराई से अनुभूत किया और सत्य पाया हमेशा.....

Ankit said...

नमस्ते दीदी,
गुरु जी ने इतना प्यार दे दिया है आपको की अब कुछ कहने के लिए अल्फाज़ ही नहीं है.

नीरज गोस्वामी said...

कंचन यूँ तो गुरुदेव के लिखने के बाद कुछ लिखने को शेष नहीं रह जाता...तुमने जो ये जो नज़्म लिखी है वो मुझे लगता है तुम्हें अभी नहीं लिखनी चाहिए थी...जिस लेखन की शुरुआत शिखर से हो उसके आगे बढ़ने के रास्ते बहुत दुरूह हो जाते हैं...एक शिखर को छू कर वहां रुका नहीं जाता...उससे ऊंचे शिखर की और बढ़ना होता है...और ये काम आसान नहीं...जिस शिखर को छूने में लोग उम्र बिता देते हैं वो शिखर तुमने अनायास ही छू लिया है...अब तुम्हारा प्रतिद्वंदी और कोई नहीं सिर्फ तुम ही हो...तुम्हें अपने ही बनाये मापदंडो पर लगातार विजय प्राप्त करनी होगी...इश्वर इस पथ पर तुम्हारा हमेशा साथ दे इसी कामना के साथ...

नीरज

Randhir Singh Suman said...

तुम्हारी खुशबू अभी भी यही पे बिखरी है
तुम्हारी मुस्कुराहटें हैं आस पास वही.... nice

शरद कोकास said...

आपकी नज़्म के बाद इस सफ़े तक पहुँचने की राह मे कई लोग मिले और उन्हे भी सुनता चला आया । क्या कहूँ, यही की ज़्यादा तारीफ भी नुकसान करती है और ज़्यादा बुराई भी ..। यह कितनी अच्छी बात है कि इस तरह आपका नुकसान चाहने वाले लोग आपको नहीं मिल रहे हैं ।लिखने में कोई प्रतिद्वन्दी नहीं होता अपने आप के सिवाय ..पहला आलोचक कवि खुद होता है । अपने लिखे की निर्मम होकर आलोचना करें ।

Manoshi Chatterjee मानोशी चटर्जी said...

अलग से कुछ नहीं कहूँगी, बस इतना कि बहुत दिल से लिखा है इसे तुमने कंचन। सुबीर जी की विनम्रता और बड़ों को सही सम्मान दे सकने की तारीफ़ सुनती रहती हूँ महावीर जी से। ऐसे गुरु से मार्गदर्शन मिल रहा है, तुम बहुत भग्यशाली हो। लिखती रहो यूँ ही-

मानसी (जीजी)

Manish Kumar said...

हँसी बेफिक्र वही और हमारी फिक्र वही,
तेरी शरीर निगाहों में मेरा ज़िक्र वही,
दिखाई देती न हो उसकी इबारत लेकिन,
है सारी बात फिज़ा में वही, हवा में वही...

तुम्हारी खुशबू अभी भी यही पे बिखरी है
तुम्हारी मुस्कुराहटें हैं आस पास वही.


रूमानियत के अहसास से सराबोर एक प्यारी नज़्म !

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

हँसी बेफिक्र वही और हमारी फिक्र वही,
तेरी शरीर निगाहों में मेरा ज़िक्र वही,
दिखाई देती न हो उसकी इबारत लेकिन,
है सारी बात फिज़ा में वही, हवा में वही...
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
शरीर कहीं की ...
;-)
प्यार से कह दिया जो भी ,
खूब कह दिया है आपने
जीते रहो खुश रहो,
ऐसा ही लिखा करो ...

बहुत स्नेह के साथ ,
- लावण्या

Shardula said...

"किसी की बात सुन ये आँखें नम जो हो जायें
रूके-झुके दिलो-जां, जिद्द करें, वो ही गायें
तो समझना लगी है फेरी आज खुद की गली
जो तूने बोला लगा बात यहाँ मेरी चली !"

कंचन , ये तुम्हारे नज़्म के लिए लिखा गया है अभी-अभी.
और कुछ नहीं कहूंगी! सुबीर भैया ने जो कहा है उस से बढ़ कर कोई कुछ कह नहीं सकता इस नज़्म के लिए!
सुन्दर, ख़ूबसूरत कह के इसे तोलुंगी नहीं. कुछ उद्धृत भी नहीं कर पा रही हूँ, पूरी नज़्म थोड़ी उतार पाऊँगी यहाँ !
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ढेर सा प्यार और शुभाशीष ! अब आज गौतम जी के ब्लॉग पे भी जाती हूँ , "proud of you" वाली ग़ज़ल को छोड़ने का कुफ्र नहीं करूँगी!
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तुमसे नाराजगी है. तुम्हें याद है, मैंने कहा था कि ब्लोग्स पे नहीं आ-जा पाती ( एक-दो को छोड़ के), और तुम कुछ भी ऐसा लिखो जो तुम्हें लगे कि दीदी के साथ ज़रूर share करना चाहिए, तो तुम मुझे लिख भेजोगी. तुमने मुझे इस लायक नहीं समझा कि मैं ये नज़्म पढूं :( :(
गुच्छा हूँ, आ के मना लो :(
शार्दुला दीदी

daanish said...

तुम्हारी आँख के झोके जो छू के जाते हैं,
अब्र आँखों के हवा पा के बरस जाते हैं,
तुम हो बेचैन बहुत ज्यादा मगर बेबस हो,
तुम्हारे हाथ जो मुझ तक न पहुँच पाते हैं।

ab iske aage kehne ko
kuchh reh jata hai bhalaa..!?!

bahut hi achhee
utkrisht nayaab rachnaa
Neeraj ji ki baat se to
sehmat hooN hi . . .

Devi Nangrani said...

Bahut Hi Sunder gulisttan mein aa pahunchi hoon. Mushkaboo hi mushkaboo.
Bahut Hi mehkati daad ho Kanchanji

ssneh
Devi Nangrani

योगेन्द्र मौदगिल said...

बधाई और बहुत बधाई...
बेहतरीन भावाभिव्यक्ति.. साधुवाद....

वैसे गौतम की सलाह मान लेनी चाहिये थी...

के सी said...

एक आदमी के भीतर छिपे होते हैं दस बीस आदमी... बस ऐसा ही लगा रहा है इसे पढ़ते हुए, एक संस्मरण था पारुल सखी से मुलाक़ात का और दूसरी ये रचना, बाकी सब इनसे पीछे छूट चुके हैं बहुत पीछे.

श्रद्धा जैन said...

हँसी बेफिक्र वही और हमारी फिक्र वही,
तेरी शरीर निगाहों में मेरा ज़िक्र वही,
दिखाई देती न हो उसकी इबारत लेकिन,
है सारी बात फिज़ा में वही, हवा में वही...


waah waah bahut kuch kah gayi aap

अमिताभ श्रीवास्तव said...

oho, pankaj subirji..ne jo likhaa..is aashirvaad se me hatprabh hu...aour kyaa chahiye ji aapko kanchanji.../ bahut kam rachnakaar he jin par unke aashirvaad he...me to aapse bas yahi kahunga..aap safal ho gai he/ fir arshji ki tippani.../
me apani baat likh hi nahi sakta sirf yahi kahunga...aapse irshyaa hone lagi he../ bhagvaan yah irshya aour badhaye..aap achchaa likhe aour naam kamaye.../ shubhkamnaye..

PD said...

कुछ शहर से अपना भी रिश्ता नाता कुछ ऐसा ही है, और मैं वहां नहीं जाना चाहता हूं.. आपकी इस नज्म के लालच से खुद को रोक नहीं पा रहा हूं.. अगर मैं इसे पर्सनली प्रयोग में लाऊं तो आपको कोई समस्या तो नहीं? :)

प्रकाश पाखी said...

कंचन जी,
बहुत दिनों बाद मन को छू लेने वाली अपने आप में सम्पूर्ण रचना पढ़ी है..आदरणीय गुरुदेव के कमेन्ट के बाद अब कुछ भी कहना शेष नहीं रहा है...सच तो यह है कि रचना पढ़कर ऐसा लगता है कि किसी महान लेखक की श्रेष्ठ कृति है...सोचा तो था कि एक एक पंक्ति पर कैसा लगा लिख दूं ..पर गुरु देव और अन्य प्रबुद्ध साथियों की टिप्पणियों के बाद इतना ही कहता हूँ कि बेहतर रचना की बधाई!

डॉ .अनुराग said...

रफी का एक गाना है न कंचन....तू इस तरह से मेरी जिंदगी में शामिल है .....कुछ वैसा सा अहसास दे रही है ....इधर आप बहुती रोमांटिक हो रही है .... ???

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) said...

dil ko chhoo le gayi yeh rachna......

महेंद्र मिश्र said...

बहुत खूब!!

manu said...

गुडिया,
सब तुझ पे गर्व कर रहे हैं इस नज़्म के लिए... और मुझे जाने कैसा लग रहा है......

परेशान सा हो गया आज तेरे ब्लॉग पर आकर..

Unknown said...

रचना की तारीफ में काफी कुछ कहा जा चुका है। पंकज सुबीर जी का मार्गदर्शन रूपी लेक्चर बहुत अच्छा लगा जिससे नवोदित साहित्यकार, रचनाकार निश्‍चित रूप से लाभान्वित होंगे। धन्यवाद, शुक्रिया साधुवाद।