घर की तामीर चाहे जैसी हो,
इसमें रोने की एक जगह रखना।
निदा फाज़ली
सच घर में एक कोना तो ऐसा होना चाहिये, जहाँ इंसान जी भर के रो सके। फूट फूट कर ज़ार ज़ार। जहाँ कोई ना हो। हम हों.... हमारे आँसू हों। हमें कोई चुप ना कराये बल्कि अंदर से कोई बार बार कहे, "और रो लो, जी भर के रो लो।" दुनिया के द्वारा दी गई क्लेश की गंदगी इस खारे पानी के साथ बहा लो.....! ऐसी जगह तो ऋर में होनी ही चाहिये।
इसमें रोने की एक जगह रखना।
निदा फाज़ली
सच घर में एक कोना तो ऐसा होना चाहिये, जहाँ इंसान जी भर के रो सके। फूट फूट कर ज़ार ज़ार। जहाँ कोई ना हो। हम हों.... हमारे आँसू हों। हमें कोई चुप ना कराये बल्कि अंदर से कोई बार बार कहे, "और रो लो, जी भर के रो लो।" दुनिया के द्वारा दी गई क्लेश की गंदगी इस खारे पानी के साथ बहा लो.....! ऐसी जगह तो ऋर में होनी ही चाहिये।
सबके सामने रोना मुझे भी अच्छा नही लगता। लोग कमजोर समझने लगते हैं। दया का पात्र मानाने लगते हैं और एक यही दया का भाव है, जिससे मुझे बचपन से घृणा है। पता नही कब से ऐसा होता है... शायद जब से मैने होश संभाला तभी से होता है ये मेरे साथ कि किसी के चेहरे पर मेरे लिये दया के भाव आये नही कि मन में अजीब सी वितृष्णा उठने लगती है, पता नही कैसा लगता है मुझे..! मैं खुद नही समझ पाती, लेकिन बहुत खराब लगता है.....! मगर अक्सर ये आँसू ऐसे समय पर आते हैं, जब इन्हे नही आना चाहिये। तब मुझे बहुत गुस्सा आता है अपने आप पर। क्यों रो देती हूँ मैं सबके सामने। बहुत से लोगो के मन में जो बात बात पर रोने वाली लड़की की छवि बनी है ना मेरी मुझे बिलकुल अच्छी नही लगती।
फिर भी मैं रोना चाहती हूँ। मुझे रो लेने के बाद बहुत शांति मिलती है। लेकिन रोना तब चाहती हूँ जब मैं ही रोऊँ, मैं ही सुनूँ और मैं ही सुनाऊँ और जी भर के रो लेने के बाद मैं ही स्वयं को चुप कराऊँ, स्वयं से ये कह कर कि " क्यों रो रही हो ? रोने से क्या होगा ? इस परेशानी का कुछ हल ढूँढ़ो..! कोई ना कोई रास्ता तो होगा जो मंजिल तक ले जायेगा। कोई रास्ता न दिखे, तो ईश्वर से प्रार्थना करो कि वो कोई रास्ता दिखाये। वो परमपिता है। तुम उसकी संतान हो। वो तुम्हारी खबर कब तक नही लेगा। कभी ना कभी, कोई ना कोई रास्ता वो अपने आप बनायेगा।" खुद से इतना कहने के बाद जब मैं आँसू पोंछती हूँ, तो एक नई शक्ति, एक नई आशा जागने लगती है। बहुत सुकून मिलता है।
यही कारण है कि बात बात पर रोने वाले लोग मुझे कम समझ आते है, जो लोग कभी रोते ही नही, वे मुझे बिलकुल समझ नही आते। मुझे पत्थर जैसे लगते हैं वो। और मुझे पत्थर नही अच्छे लगते। उनसे अच्छे तो वो पहाड़ होते हैं। पत्थरों को चाहे जितना तोड़ लो, उस पर सिर भी पटक लो तो बी कुछ नही मिलता। बहुत अधिक होगा, तो उसमे से चिंगारियाँ निकलने लगेंगी, जो बस जलाना जानती हैं। पत्थर सिर्फ राह चलते लोगो को गिराना जानते हैं, वे ना हँसना जानते हैं और ना रोना। मुझे पत्थर बिलकुल अच्छे नही लगते। और वहीं उन पहाड़ों को देखिये, कितना विशाल लगता है उनका अस्तित्व। यूँ तो पत्थर उनमे भी है, मगर उनमें बर्फ की शीतलता भी है, पेड़ों की हरीतिमा भी है, और पत्थरों की स्थिरता भी। जैसे लगता है कि कभी वे हँस रहे है...लोगो को सुख दे रहे है और कभी बस गंभीर से हो जाते हैं। उनके अंदर झाँक के देकौ तो एक नदी होती है उनके अंदर... भावनाओं की..संवेदनाओं की...! वो अपनी कहानि स्वयं कहते हैं, बिना कुछ कहे ही। वे लोगो को ऊँचाइयाँ देते हैं, वे हमेशा हँसते रहते हैं और अंदर से आँसुओं की नदी से भीगे रहते हैं। मुझे पहाड़ बहुत अच्छे लगते है...! बहुत अच्छे..!
नोटः आज सुबह अचानक याद आया कि आज वो दिन है, जिसने ८ साल पहले दुनिया की नज़र में मेरा अस्तित्व बनाया था। मैं इस दिन के पहले भी ऐसी ही थी। बल्कि और पवित्र .....और साफ .... और स्पष्ट...! मैं तब भी लिखती थी और अधिक लिखती थी...! संवेदनाएं शीघ्र असर करती थीं। तब मैं सोचती थी कि काश मैं कुछ कर पाती, दुनिया भर के लिये...! लेकिन तब मैं सब के लिये ऐसी नही थी। क्योंकि मुझे सर्टिफिकेट नही मिला था। आज जब लोगो को मैं सफल लगती हूँ, तब मुझे कभी कभी लगता है कि बहुत बड़ा मूल्य चुकाया मैने....! एक परिष्कृत आत्मा, जो ईश्वर के बहुत नज़दीक थी। एक ऐसा मन जो हमेशा दूसरों की सोच सकता था। साफ नदी सा..जैसे पहाड़ों से निकल के बस अब आई ही हो और अब जैसे मैदानों का कितना सारा कूड़ा कर्कट इकट्ठा हो गया।
मगर ज़रूरी था ये भी। बड़े लोगो के दाँव लगे थे। तो सुबह सुबह आठ साल पहले की आज की डायरी देख रही थी कि उस के कुछ ही दिन पहले के ये वैचारिक उतार चढ़ाव मिले। सोंचा कि आप से बाँटू उन दिनों को जब कोई बनावट नही होती थी....! और दुआएं लूँ आप से फिर से अपनी नैसर्गिकता बनाये रखने की।
44 comments:
कई बातों को कुरेदा इस पोस्ट ने.
जो कभी नहीं रोते वो हो सकता है पत्थर लगे लेकिन ये भी तो हो सकता है की वो किसी के सामने पत्थर दीखते हों? सबको खुश दीखते हों ! अपनी व्यथा से किसी को दुखी ना करना चाहते हो. किसके सामने रोये ये भी तो एक प्रश्न है ! 'रहिमन निज मन की व्यथा'... की तरह.
भगवान करे किसी को रोना ही न पड़े.
एक उम्र गुजरी तो मालूम हुआ कितने कम रह गए है हम.......
सारी जद्दोजहद इसी' भूतपूर्व "को जिलाए रखने की है कंचन..उम्र आपको रिफाइन करती है ..पुराने पन्ने उन ऊँचे आदर्शो की याद दिलाते है .ओर आप उनपे हंसते है....किसी भी भावुक इंसान की अलमारी टटोलोगे ....पुरानी डायरी उसमे से झांकती मिलेगी....सुक्तिया..रीडर्स डाईजेस्ट की सुक्तिया ...कुछ बड़े शेरो के शेर...कवियों की कविताएं चुनकर लिखी हुई.......पता चल जाता है ..ये नहीं सुधरेगा...सेंसिटिव बनेगा...पिक्चर देखकर रोयेगा....सड़क पे कुत्ते बिल्ली का दुःख देखकर दुखी होयेगा........पर दुनियादारी की गली के मुहाने पे बड़े बड़े साइन बोर्ड जब चमकते हुए इत्तिला देते है की "बेटे "आदर्शो का वक़्त ख़त्म हुआ ..चलो अब असल जिंदगी में दाखिल हो.....आप दाखिल हो जाते है.....सब हो गए है....लगता है तुम हो तो गयी हो...पर डायरी आज भी हाथ में है.....
रोने पर देता विश्व हृदय का
कोहिनूर उपहार नहीं
रोओ कवि दैवी व्यथा विश्व में
पा सकती उपचार नहीं
रोओ रोना वरदान यहां
प्राणों का आठों याम हुआ
रोओ धरणि का मथित हलाहल
पीकर ही नभ श्याम हुआ
खारी लहरों पर स्यात कहीं
आशा का तिरता कोक मिले
रोओ कवि आंसू बीच स्यात
धरणि को नव-आलोक मिले
दिनकर
रोने के फायदे तो होते ही हैं .. औरते इसका फायदा उठाती हैं .. यह उनके स्वास्थ्य के लिए अच्छा हो जाता है .. पुरूष तो रो भी नहीं पाते .. सबकुछ वैसे ही झेलते रहते हैं।
aapne bilkul sahaj bhav se apni manovyatha pragat kar di........rona insan ki fitrat mein shumar hai.......phir chahe koi kitna bhi kathor ya patthar dil kyun na ho.
रोते रोते आंसू भी थक जाए तो नीर अब कैसे कहाँ बहाए ..बहुत कुछ आपकी इस पोस्ट में ..कुछ कहा कुछ अनकहा ..ज़िन्दगी का सफ़र है ..तय करना है बस .
पुष्पा I hate tears... अच्छी संवेदनशील प्रविष्टि
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चाँद, बादल और शाम । गुलाबी कोंपलें
कंचन जी आपकी पोस्ट और अनुराग जी की टिपण्णी...दोनों बेजोड़...वाह मजा आ गया...
नीरज
जिंदगी के रंग हैं ये तो. बहुत समग्रता से चली आपकी लेखनी. बधाई.
रामराम.
बहुत चुपचाप से कान में कह रहा हूं किसी से कहियेगा नहीं मैं तो ढेर टसुए बहा बहा के आज भी रोता हूं । अभी कल ही की बात है किसी बात पर खूब रोया । मालूम है जब मेरे इंस्टीट्यूट से स्टूडेंट्स का कोर्स खत्म हो जात है तो जो आखिरी कक्षा में लेता हूं उसमें भी अक्सर रो पड़ता हूं । मगर हां एक बात है मैं कमजोर होकर नहीं रोता भावुक होकर रोता हूं । कमजोर होकर रोना कायरता है और भावुक होकर रोना शक्ति है । और कहते हैं न कि रोने से तो आंखें सुंदर होती है और तभी महिलाओं की आंखें सुंदर होती है । मैं भी खूब रोता हूं पता नहीं मेरी आंखें सुंदर हैं या नहीं ।
कंचन जी क्या कहूँ मैं खुद ही इतना भावुक हूँ। कि .......। एक बार आपकी पोस्ट पढकर बगैर कमेंट करे चला गया। सोचा था कि कुछ देर बाद आकर कुछ लिख पाऊँगा पर अब भी कुछ समझ नही आ रहा कि क्या लिखूँ। आपने उस पहलू पर लिखा है जिस पर शायद ही कोई लिखे। और लिखना भी रोने जैसा ही होता है। सुकून सा मिलता है। पंकज जी ने सही कहा"कमजोर होकर रोना कायरता है और भावुक होकर रोना शक्ति है।"
बहुत अच्छा लगा यहाँ आकर........
jald hi ek ghazal rone par likhataa hoo...intzaar kare....
बहुत अच्छा लगा यहाँ आकर........
jald hi ek ghazal rone par likhataa hoo...intzaar kare....
गुरु बहन,
जैसा की गुरु जी ने कहा के सिर्फ रोना कायरता है और भऊक होकर रोना शक्ति ये बात पूरी तरह से सत्य है.. मैंने कहीं एक शे'र पढा था हलाकि शे'र तो याद नहीं मगर कुछ ऐसे था के ... जब आँखे चालक जाती है तो यूं लगता है ,,.. वो चमकता हुआ बूंद कमल लगता है...
कभी कभी जी भर के रोना चाहिए दिल को सुकून मिलता है ...
मगर ख़ुशी के आशुं ..
जब भी जी चाहे रो लेना .. वरना ये कमबख्त दुनिया रोने भी नहीं देती....
आपका
अर्श
आज वो दिन है, जिसने ८ साल पहले दुनिया की नज़र में मेरा अस्तित्व बनाया था। मैं इस दिन के पहले भी ऐसी ही थी। बल्कि और पवित्र .....और साफ .... और स्पष्ट...! मैं तब भी लिखती थी और अधिक लिखती थी...! संवेदनाएं शीघ्र असर करती थीं। तब मैं सोचती थी कि काश मैं कुछ कर पाती, दुनिया भर के लिये...! लेकिन तब मैं सब के लिये ऐसी नही थी। क्योंकि मुझे सर्टिफिकेट नही मिला था। आज जब लोगो को मैं सफल लगती हूँ, तब मुझे कभी कभी लगता है कि बहुत बड़ा मूल्य चुकाया मैने....! एक परिष्कृत आत्मा, जो ईश्वर के बहुत नज़दीक थी।
शायद इसको ही ज़िन्दगी कहते हैं.
रोना तब चाहती हूँ जब मैं ही रोऊँ, मैं ही सुनूँ और मैं ही सुनाऊँ और जी भर के रो लेने के बाद मैं ही स्वयं को चुप कराऊँ, स्वयं से ये कह कर कि " क्यों रो रही हो ? रोने से क्या होगा ? इस परेशानी का कुछ हल ढूँढ़ो..! कोई ना कोई रास्ता तो होगा जो मंजिल तक ले जायेगा। कोई रास्ता न दिखे, तो ईश्वर से प्रार्थना करो कि वो कोई रास्ता दिखाये।
बहुत ही उत्साहवर्धक विचार.....!!
सुन्दर। सम्वेदनशील पोस्ट। आठ साल पहले की सफ़लता की याद आने के लिये बधाई। रोना कोई कमजोरी नहीं। नंदनजी की एक कविता का अंश है:शायद इसीलिए जब दर्द उठता है
तो मैं शरमाता नहीं, खुलकर रोता हूं
भरपूर चिल्लाता हूं
और इस तरह निष्पंदता की मौत से बच कर निकल जाता हूं
बहुत अच्छा लिखा है। परन्तु सब रो नहीं पाते। रो पाना भी एक गुण है जो सबके पास नहीं होता। बहुत से लोग तब रोना चाहते हैं जब कोई चुप कराने वाला हो।
घुघूती बासूती
अच्छा लगा पढ़ कर। कुछ और कहने को नहीं है क्योंकि अनुराग भाई और सुबीर जी ने मेरे दिल की बात कह दी। रविकांत जी की उद्धृत कविता भी पसंद आई।
कंचन जी आप रो लेती है इस लिए उनका दर्द नहीं जानती शायद जो रो नहीं पाते खैर,
आज तो बहुत ज्यादा भावपूर्ण बात कही आपने
रगर ज्यादा रोने वालों का भी लोगों की निगाह में मान घाट जाता है मेरा एक दोस्त है जो बहुत रोता है उसके लिए मैंने दो लाइन लिखी थी
एक सवाल है जो आज आपसे भी पूछ रहा हूँ
रो के मिलना हर किसी से
क्या गिला है जिन्दगी से ?
वीनस केसरी
जिसमे मेरे रोने का किस्सा है
उम्र का बेहतरीन हिस्सा है...
ऊपर संगीता जी की टिप्पणी कि पुरूष तो रो भी नहीं पाते....और फिर गुरूदेव के वक्तव्य ने पोस्ट की रही-सही कसर पूरी कर दी...
और फिर किसी कवि ने कहा भी तो है कि ये आँसो मेरे दिल की जुबान है....
अपना ख्याल रखो, अनुजा!
rone ke lie na ho kona, koi baat nahi,
kisi ke kaandhe pe sir rakh kar ro leejie.
karuna pe uski na jayiega,
man me jugupsa na laiyega,
usko karne do uska karam,
aap khar apne bahaate jaiye..
kyun sochte ho waisa,
jaisa, koi aur aur sochta hai,
apna jahan kuchh alag banaiye..aansuon ki bhi hai daulat badi,
isko bhi to auron pe kabhi lutaiye.
usko ho kar ke gafil, samjhne do kabil.
mera kahaa kabhi ajmaiye..
पंकज सुबीर जी की बात से शत प्रतिशत सहमत...!सालों तक हम भी रोएँ है बिछुडने पर...मिलने पर.... छुप छुप कर... सबके सामने...धूप छाँव जैसे आँखें रोती है तो होंठ हँसते हैं..
लोग रोने को कंधा खोजते हैं ..तुम अकेले रोना चाहती हो दिलेर लड़की ?
रोना एक स्वभाविक प्रक्रिया है। मेरे खयास से इसे किसी की कमजोरी से जोड़कर नहीं देखना चाहिए। अगर कोई व्यक्ति की परेशानी देखकर दुखी होता है या फिर अपनी परेशानी जाहिर कर रो देता है, तो इसका मतलब यह नहीं कि वह कमजोर है। मेरे खयाल से रोने का संबंध संवेदनशीलता और दिल साफ होने से ज्यादा है। मैंने महसूस किया है कि जिसका दिल साफ होता है वह जब किसी अपने को अपनी परेशानी बताता है तो उसके आंसू छलक जाते हैं। वह रोने लगता है। इसका यह मतलब कतई नहीं कि वह कमजोर है। अगर सामने वाला आपके इमोशन को समझता है तो उसके सामने रोने में कोई बुराई नहीं। वैसे भी रोना कोई सोच-समझकर नहीं होता। यह स्वभाविक रूप से होता है। दिल से होता है। दिल की गहराइयों से होता है। रोने को कमजोरी से जोड़ दिया गया है लेकिन यह गलत है। बिल्कुल गलत।
दूसरो के सामने खुद को हमेशा मजबूत दिखने वाले हमेशा पत्थर नहीं होते.. वैसे भी बात बात पर रो देना भावुकता नहीं बल्कि कमजोरी है. हर किसी की जिंदगी में कुछ बातें ऐसी होती हैं जिन्हें वो दुनिया से छुपा कर रखना चाहता है.. हर किसी के घर में ना सही, पर दिल में जरुर एक कोना होता है जिसमे तमाम ऐसी यादें छुपी हुई होती हैं. कोई जाने अनजाने अगर उन्हें छू दे तो आखों में आंसू कभी कभी आ ही जाते हैं.
aaj y padhkar apne rone ka afsos jo aksar hota h kam hogaya h , m bhi jinhe bahoot apna manti hu unke samne anshu nahi rokpatki hu.jabki rokna chauti hu achhha likha h apne bahoot.....or baki view padkhr fir confusiton ho gaya ki kamjori ya bahvukta h ham jesae logo m ....
हम चाहें या न चाहें पर आंख में आंसू तो आ ही जाते हैं।
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SBAI TSALIIM
बहुत संवेदनशील पोस्ट...
अच्छा लगा इस भाव में तुमको पढ़ना. ऐसे ही डायरी के पन्ने कभी कभी पलटाती रहो, पढ़ाती रहो.
रोना-मत रोना: तुम तो खुद इतनी समझदार हो. शुभकामनाऐं.
अकेले मे रो लेना ताक़त देता है और भीड मे रोना कमज़ोर करता है।
Rone ke liye ghar ke kisi kone ki jarurat nahin, dil ka kona chahiye. Dhyan(meditation) men agar vishwas ho to karke dekhen.Dhyan men jab ishta se mulaqat hoti hai to rone ke sivay aur kuchh sujhata hi nahin.Us samay bas tu aur ishta bas. Us rone ka aanand hivishishta hai. Karke dekhen.
असमंजस में हूँ कि यह किसके ब्लॉग पे
आ गया ! यह कंचन जी का ही ब्लॉग है ? यकीन नहीं होता ......
वो बात-बात पर उन्मुक्त ठहाके लगाने वाली
कंचन ..........हंसने-हसाने वाली कंचन कौन है , जिसे मैं जानता हूँ !
वैसे तो रोना कोई गलत बात नहीं है ......... अच्छे-अच्छे पत्थर दिल वालों को भी रोते
देखा है ! आप तो खुशनसीब हैं कि आपके पास ऐसे कंधे तो हैं जिनके ऊपर सिर रखकर रो सकती हैं ......... बहुतों को तो यह भी मयस्सर नहीं होता ! रोने का मजा क्या जब कोई चुप कराने वाला ही न हो !
जब मैं कानपुर में अकेला था तो यही कहता था "अब क्या बीमार पडूँ जब कोई मान-मन्नौवल करके दवा खिलाने वाला ही नहीं है" !
जरा दुनिया के करीब जाकर तो देखिये ....
आप भी यही कहेंगी - दुनिया में कितना गम है ,,,, अपना गम कितना कम है !
जिसके ऊपर अपनेपन से हाथ फेरो वही सुबकने लगता है !
आप से मैं सिर्फ इतना ही कहना चाहूँगा -
"दुःख तुमको क्या तोड़ेगा
तुम खुद दुःख को तोड़ दो
केवल अपनी ही आँखों को
औरों के स्वप्नों से जोड़ दो !!"
आज की आवाज़
दो शेर सुनिए ......
जब हंसने हँसाने के दिन थे,
हम आठ पहर रोते ही रहे
अब वक़्त जो आया रोने का,
hum अश्क बहाना भूल गए .
और
आप कहते थे कि रोने से न बदलेंगे नसीब
उम्र भर आपकी इस बात ने रोने न दिया
खुश रहिये .
---मुफलिस---
किसी शायर ने कहा है " वज़ा है ज़ब्ते -गम लेकिन मुहब्बत में कभी रो ले ,दबाने के लिए हर दर्द ओ नादाँ नहीं होता "! बस आपके आंसू आपकी कमजोरी प्रकट न करें क्योंकि उससे लाभ लेने वाले बहुतायत में बिखरे पड़े हैं !
संवेदना और करुणा पर रो लें ,सभी ऐसे सौभाग्यशाली नहीं होते कंचन जी !
bahut hi sundar likha hai aapne.Badhaai.
भावुकता से लबालब पोस्ट
महादेवी जी कह गईँ " मैँ दुख की नीर भरी बदली " आपकी डायरी के पन्ने पसँद आये सँवेदनाओँ से ही एक उत्तम इन्सान की रचना होती है
स स्नेह,
- लावण्या
कंचन जीआपके ब्लॉग पर बहुत समय बाद आई
कुछ व्यस्त होने के कारण ब्लॉग नही देख सकी
यूँ तो दीवारों से मिलकर रोना बड़ी अच्छी बात है
वाकाई सुकून मिलता है अकेले कमरे मे तकिये
को गीला करने मे बड़ा मज़ा आता है.....जी हल्का
हो जाता है ....रोने से पता चलता है हम अभी भी
जिंदा हैं ....कुछ सेंटिमेंट्स बाकी हैं.....
पर आपने कहा पहाड़
आपको अच्छे नही लगते ...उनमे कोई जीवन के
लक्षण नही दीखाई देते .. पर ऐसा नही है ....
नज़रिया बदलें तो उन पर खिली हरियाली को देखो
तो वो हंसते नज़र आएँगे .....उनसे फूटे झरनो को देखो वो रोते नज़र आएँगे ....उनसे टकराकर जब
हवा हम तक आती है तो लगता है वो हमसे बातें
कर रहे हैं .....और जिंदा होने के लिए और कौन
सी शर्तें हैं ...सजीवों मे तो जीवन होता ही है
निर्जीओों मे जीवन ढूढ़ें तो कोई बात हो ....
डियर कंचन जी ,
आपने सही कहा मे जल्दी मे तो नही पर अपने आस पास अन्य लोगो की मौजूदगी
की वजह से कुछ ग़लत समझ बैठी ....आज मैने आपका ब्लॉग पढ़ने मे थोड़ा और वक़्त दिया ....
आपकी कविताएँ ' वो भला कौन है , किसकी तलाश बाकी है , कि तुम हो मेरे गिर्द, मुझे मदद
चाहिए तुम्हारी , ऐसा भी हो पाया काई दीनो बाद , वो कोई भी रात हो साजन वो दीवाली बन जाएगी ....
इसके अलावा और भी , जैसे बंदिनी के गीत जो की मुझे भी बहुत पसंद हैं ....पढ़ते पढ़ते म उसका
गीत ' मोरा गोरा रंग लाई ले ' याद कर ही रही थी की आपने सुना ही दिया ....इतनी अच्छी कविताएँ
लिखने के लिए बधाई स्वीकार करें ....आशा है मेरे पिछले कॉमेंट को नज़रअंदाज़ कर देंगी....
और आगे भी पुखराज पर कॉमेंट करती रहेंगी .....
good
हर एक के दिल में एक संवेदनशील व्यक्ति छुपा होता है...जो कभी अकेले में कभी सबके सामने बाहर आ जाता है!आज की आपकी पोस्ट एकदम दिल से लिखी हुई है...अच्छी लगी!
दिल से लिखी हुई एक अच्छी लेख
its a great narration, great writing...
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