Tuesday, April 28, 2009

परिंदे हमसे कोई घोसला बना ना सके।


जहाँ तक याद है कि पिछले डेढ़ साल से गुरु जी की गज़ल क्लासेज़ ले रही हूँ, लेकिन सिवाय तहरी मुशायरों या होमवर्क के कभी भी गज़ल लिखने की खुद से हिम्मत नही पड़ी। हाँ ये ज़रूर है कि गज़ल समझ के जो लिखती थी उसे भी लिखना छोड़ दिया, क्योंकि पहले तो उतना ही जानती थी अब जानबूझ कर गलती करते नही बनता।
मगर पिछले दिनो थोड़ी अस्वस्थता में जब घर में रही तो हिमाक़त की और कल गुरू जी के पास भेजी तो पास भी हो गई। अब इसे मेरी पहली मुकम्मल गज़ल समझें। लीजिये आपसे भी बाँटती हूँ--

जैसा कि गुरू जी ने मेल में बताया ये

बहरे मुजतस मुसमन मखबून महजूफ
मुफाएलुन-फएलातुन-मुफाएलुन-फएलनु/फालुन

और मात्रा है 1212 1122 1212 112

कहीं कहीं अंत में ११२ की जगह २२ हुआ है, मैने गुरु जी से पूँछा हे कि क्या ये गज़ल का दोष माना जाता है जैसे ही उत्तर आया तुरंत आप लोगो से बाँटूगी, फिलहाल तो पढ़िये

ज़मीन छोड़ चले आसमान पा न सके
परिंदे हमसे कोई घोसला बना ना सके।


फक़त नसीब नही था कहीं पे हम भी थे,
हमी चराग तले का निशान पा न सके।


वज़ह हवा हि बता दूँ मगर ये मालुम है,
असल में पंख मिरे थि कि जो उड़ा ना सके।


तुम्हारे साथ बहुत दूर तलक जाना था,
तुम्हारे तेज़ क़दम से क़दम मिला न सके।

34 comments:

अनिल कान्त said...

भाई हमें तो बहुत अच्छी लगी

ताऊ रामपुरिया said...

ज़मीन छोड़ चले आसमान पा न सके
परिंदे हमसे कोई घोसला बना ना सके।

बहुत बधाई आपको गुरुजी से पूरे नम्बर प्राप्त करके पास होने के लिये.

बहुत लाजवाब रचना. शुभकामनाएं.

रामराम.

admin said...

बहुत प्यारा मतला कहा है आपने। और मतला ही क्या पूरी गजल ही खूबसूरत बन पडी है। आपके गुरूजी की मेहनत सफल रही है।
----------
TSALIIM.
-SBA-

के सी said...

आज जाना कि आप तो बड़ी उम्दा शायरा हैं, ग़ज़ल का हर शेर सम्पूर्ण लगा, बहर भी इतनी ही हज़म होती है, शास्त्रीय ज्ञान नही है बस दिल की आवाज़ को शब्दों में लिख रहा हूँ टूटा फूटा स्वीकार कर लें बाकी तो गुरु जी है ही न ....

Unknown said...

बधाई हो, हमें तो पता भी नहीं था कि आप गजल भी कहतीं है। बहुत खूब। गजल पढ़कर तो यही लगता है कि आपमें एक मुकम्मल गजलकार बनने की स‌ारी खासियतें मौजूद हैं। बाकी गुरुजी तो हैं ही मार्गदर्शन के लिए। बहुत-बहुत बधाई।

मोना परसाई said...

ज़मीन छोड़ चले आसमान पा न सके
परिंदे हमसे कोई घोसला बना ना सके।
bhut khub ,bhavon ki gahrai gajal ke niymon se bhi bdhkr hae.

रविकांत पाण्डेय said...

ज़मीन छोड़ चले आसमान पा न सके
परिंदे हमसे कोई घोसला बना ना सके

वाह! वाह! मतला तो गज़ब का है। अपनी गज़लों से रूबरू कराते रहें।

"अर्श" said...

aakhiri she'r ke kya kahane bahot gazab ka ban padaa hai... bahot hi mukammal she'r hai ye to aapne apna hak bhi bahot khub nibhaaya hai...

aap apni mail id de to achhaa hoga kuchh charchaa ke liye...

arsh

Anonymous said...

तुम्हारे साथ बहुत दूर तलक जाना था,
तुम्हारे तेज़ क़दम से क़दम मिला न सके।

bahut khub kanchan

vandana gupta said...

bhaut khoobsoorat gazal

पारुल "पुखराज" said...

ज़मीन छोड़ चले आसमान पा न सके
परिंदे हमसे कोई घोसला बना ना सके।
bahut khuub ...bahut badhiyaa..

mehek said...

ज़मीन छोड़ चले आसमान पा न सके
परिंदे हमसे कोई घोसला बना ना सके।

फक़त नसीब नही था कहीं पे हम भी थे,
हमी चराग तले का निशान पा न सके।

bahut sunder gazal,ye do sher khas pasand aaye.

सुशील छौक्कर said...

ग़ज़ल खूबसूरत बन गई है। हमें तो जी इस ग़ज़ल के चारों शेर अच्छे लगे।
ज़मीन छोड़ चले आसमान पा न सके
परिंदे हमसे कोई घोसला बना ना सके।

ये कुछ ज्यादा ही भाया जी। हमें तो जो दिल को छू जाए वही प्यारा लगता है चाहे वह ग़ज़ल हो या कुछ ओर। हमे ना फार्मूले पता है ना ही इनमें रह कर लिख पाते है। बस इतना पता है ये मन को भाया तो अच्छा, ना भाया तो नही अच्छा। और आपकी पहली कोशिश कामयाब रही। बधाई।

पुनीत ओमर said...

आपकी पहली ही गजल भावुक हो चली..
ढेरों शुभकामनाये आपको और गुरु जी को भी.
पर जो भी हो, आपकी पिछली कविताएं पढ़कर इतना तो मुझे लगता है की मात्राओं की गिनती आपकी भावनाओं को ज्यादा दिन तक बाँध नहीं पाएंगी.

रंजू भाटिया said...

फक़त नसीब नही था कहीं पे हम भी थे,
हमी चराग तले का निशान पा न सके।

बहुत बढ़िया लगी आपकी यह गजल ...

पंकज सुबीर said...

ये तो मुझे भी पता नहीं था कि ये आपकी पहली ग़ज़ल है । अगर सचमुच है तो मैं आश्‍चर्यचकित हूं । जहां तक दोष की बात है तो वो कोई दोष नहीं है वो जायज माना जाता है ।

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

खूबसुरत गज़ल के लिये आपको बधाई देती हूँ कँचन बेटे ..लिखती रहेँ ..

डॉ .अनुराग said...

"बाँध के रखो इन ख्यालो को
कम्बखत आसमान तक उडान भरते है "

गोया के कुछ अहसास हम गजल की बंदिशों में नहीं बांधते ...चूंके शायर नहीं है .अलबत्ता मिजाज़ कभी कभी धोखा दे जाता है..पार आपका पहला शेर गजब का है....तो ख्यालो को उड़ने दीजिये अपनी उडान.....
.

Ajeet Shrivastava said...

कंचन जी, बहुत खूब.... बहुत सुन्दर भाव और साथ में पंक्तियाँ भी.

अमिताभ मीत said...

कमाल है कंचन ! ये तो लाजवाब है !! क्या शेर हैं ....

वज़ह हवा हि बता दूँ मगर ये मालुम है,
असल में पंख मिरे थि कि जो उड़ा ना सके।

और ये शेर तो ...वाह !

Abhishek Ojha said...

तकनिकी गलती तो गुरुजी ही बता पायेंगे. हमें तो वैसे ही उससे फर्क नहीं पड़ेगा :-)
पर भावनाएं तो गजब की हैं !

गौतम राजऋषि said...

क्या कहूं कंचन, गुरू जी के खुद कुछ कह लेने के बाद तो सब बेमानी हो जाता है..
किंतु "परिंदे हमसे कोई घोसला बना ना सके" इस मिस्‍रे पर सब निछावर है...
एक कठिन बहर पर अद्‍भुत प्रयास

कुश said...

ऐसी हिमाकत भी होनी ही चाहिए..

अनूप शुक्ल said...

बढ़िया है लेकिन हम तो इसका मतलब समझने की कोशिश कर रहें हैं परिंदे हमसे कोई घोसला बना ना सके

दिगम्बर नासवा said...

लाजवाब बनी है ग़ज़ल इस ग़ज़ल के चारों शेर अच्छे लगे,
gungunaane में जो cheej sundar है.............vahi gazal है, vahi achaa है

Manish Kumar said...

वज़ह हवा हि बता दूँ मगर ये मालुम है,
असल में पंख मिरे थि कि जो उड़ा ना सके।

ye sher khas taur par pasand aaya.

योगेन्द्र मौदगिल said...

रदीफ के साथ पूरा न्याय... वाह मज़ा आया.

mark rai said...

नमस्ते!
इस पोस्ट के लिये बहुत आभार....
एक श्वेत श्याम सपना । जिंदगी के भाग दौड़ से बहुत दूर । जीवन के अन्तिम छोर पर । रंगीन का निशान तक नही । उस श्वेत श्याम ने मेरी जिंदगी बदल दी । रंगीन सपने ....अब अच्छे नही लगते । सादगी ही ठीक है ।

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' said...

रचना बहुत अच्छी लगी।
आप का ब्लाग बहुत अच्छा लगा।आप मेरे ब्लाग
पर आएं,आप को यकीनन अच्छा लगेगा।

वीनस केसरी said...

कंचन जी,
जो मतला आपने निकला है वास्तव में आपकी शायरी का "गोल्डन आइटम" है
मुझे आपकी गजल का मक्ता बहुत कुछ कहता हुआ जान पड़ा, जैसे इन लफ्जों से आपने कह रखा हो "जो तुम्हें पढ़े तुम उसके हो जाना "

और हाँ बहर बहुत कठिन है पहली गजल तो क्या हम तो आज भी इस बहर पर नहीं लिख सकते
आपका वीनस केसरी

नीरज गोस्वामी said...

जो इंसान अपनी पहली ही कोशिश में चाँद छू ले वो आगे जा कर क्या करेगा...समझ नहीं आ रहा...पहली बार एक मुश्किल बहर में इतनी खूबसूरत ग़ज़ल...वल्लाह क्या बात है...बहुत खूब कंचन जी...लिखती रहिये...क्रिकेट की भाषा में इसे पहली बाल पर छक्का मारना कहते हैं...
नीरज

अनूप शुक्ल said...

देर से ही सही अब सब समझ में आ गया। बधाई। अपनी एक बहुत पसंदीदा गजल याद आ गयी:

जहां भी खायी है ठोकर निशान छोड आये,
हम अपने दर्द का एक तर्जुमान छोड आये.

हमारी उम्र तो शायद सफर में गुजरेगी,
जमीं के इश्क में हम आसमान छोड आये.

किसी के इश्क में इतना भी तुमको होश नहीं
बला की धूप थी और सायबान छोड आये.

हमारे घर के दरो-बाम रात भर जागे,
अधूरी आप जो वो दास्तान छोड आये.

फजा में जहर हवाओं ने ऐसे घोल दिया,
कई परिन्दे तो अबके उडान छोड आये.

ख्यालों-ख्वाब की दुनिया उजड गयी 'शाहिद'
बुरा हुआ जो उन्हें बदगुमान छोड आये.
-शाहिद रजा

RAJ SINH said...

कन्चन जी आपने तो अच्छोन को लाजबाब कर दिया मेरी क्या बिसात ? फ़िर ्भी ......यही तेवर और साज अपने मन मे बनाये रखिये हम सब को उम्दा सुनने को मिलता रहेगा !
बधायी हो !

Priyanka Singh said...

तुम्हारे साथ बहुत दूर तलक जाना था,
तुम्हारे तेज़ क़दम से क़दम मिला न सके।

wah kitna sach kaha.... yahi to hota hai ......