और अब बारी है मेरी पसंद की...! यूँ तो बंदिनि फिल्म के सारे ही गीत बहुत ही अच्छे हैं, अतः भाग १ और भाग दो में भी मेरी ही पसंद के गीत थे, मगर कुछ गीत होते हैं, जो आपकी जिंदगी का हिस्सा होते हैं। उन्हे कितनी ही बार गुनगुना कर आप अकेले में रोते/हँसते है और सुकूँ पाते हैं। आज के तीनो गीत मेरे लिये उन्ही गीतों मे हैं।
सबसे पहले ज़िक्र करूँगी उस गीत का जिसने मुझे कितनी ही बार रुलाया है और अब भी अगर अकेले में मन से सुन लिया जाता है, तो रुला ही देता है। हमेशा के लिये छोड़ के जाने वाले से एक गुहार कि " हो सके तो लौट के आना.....!" एस०डी० वर्मन के संगीत और शैलेंद्र के शब्दों को जिस गीत में आवाज़ दी है मुकेश ने..... सुनिये
ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना,
ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना,
ये हाट तू ये बाट कहीं भूल ना जाना
ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना,
बचपन के तेरे मीत तेरे संग के सहारे,
ढूढ़ेंगे तुझे गली गली सब ये गम के मारे,
ढूँढ़ेगी हर इक आँख कल तेरा ठिकाना
ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना,
दे दे के ये आवाज़ कोई हर घड़ी बुलाये,
दे दे के ये आवाज़ कोई हर घड़ी बुलाये,
फिर जाये जो उस पार कभी लौट के ना आये,
है भेद ये कैसा कोई कुछ तो बताना
ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना!
और इसके बाद वो गीत जिसकी आवाज़ ही में मुझे बड़ी कशिश सी लगती है। एस०डी० वर्मन साहब की आवाज़, वो आवाज़ है, जिसमें मुझे रूहानियत महसूस होती है उनके सारे गीत मुझे बहुत अलग तरह से पसंद आते हैं। और ये गीत जिसमे एक ऐसी औरत की पश-ओ-पेश दिखायी गयी है जो कि बंदिनी पिया की है और संगिनी साजन की ...! इस का हर शब्द मुझे छूता है
मन की किताब से तू मेरा नाम ही मिटा देना
या
गुन तो ना था कोई भी अवगुन मेरे भुला देना
या
मुझे आज की विदा का मर के भी रहता इंतज़ार
या
मेरा खींचती है आँचल, मन मीत तेरी हर पिकार
सारी पंक्तियाँ एक दूसरे से जुड़ी हो कर भी अलग अलग भाती हैं, और हर पंक्ति में इतना दम कि आँख गीली कर दे। और साथ ही मेरे प्रिय कवि कबीर का आत्मा परमात्मा के मिलन की छटपटाहट को भी अपरोक्ष रूप से इस गीत में महसूस किया जा सकता है।
ओ रे माँझी, ओ रे माँझी, ओ मेरे माँझी,
मेरे साजन है उस पार, मैं मन मार, हूँ इस पार
ओ मेरे माँझी, अबकी बार, ले चल पार
ले चल पार
मेरे साजन है उस पार
मत खेल जल जायेगी, कहती है आग मेरे मन की,
मत खेऽऽल, मत खेऽऽल
मत खेल जल जायेगी, कहती है आग मेरे मन की,
मैं बंदिनी पिया की मैं संगिनी हूँ साजन की,
मेरा खींचती है आँचल, मेरा खींचती है आँचल,
मनमीत तेरी हर पुकार
मेरे साजन है उस पार, मैं मन मार, हूँ इस पार
ओ मेरे माँझी, अबकी बार, ले चल पार
ले चल पार
मेरे साजन है उस पार
और अंत में वो गीत जिसे मैं कितनी बार सुनती थी गुनती थी...सुनती हूँ, गुनती हूँ...!
वो गीत जो पिता के घर जाने को बेचैन एक ऐसी लड़की की पीड़ा है, जिसे अपना बचपन नही भूलता। फिल्म में चक्की पीसती ये महिला और उस पर लता जी का ये स्वर..द्रवित कर देता है।
बाबूजी के जाने के बाद, क्यारी के बगल में बैठ कर उनके लगाये फूलों को देखती हुई, इसी गीत की धुन पर मैं गुनगुनाती थी
कितने भये दिन तुम को ना देखा
आ जाओ बेटी बुलाये रे,
पहले तो बाबुल इतने निरदयी ना थे,
कहाँ गई वो ममता हाय रे
और टेप रिकॉर्डे पर रिवर्स कर कर के एख लाईन बार बार सुनती थी
बाबुल थी मैं तेरी नाजों की पाली,
फिर क्यों हुई मैं पराई रे
बीते रे जुग कोई, चिठिया ना पतिया,
ना कोई नैहर से आये रे
सुनिये...!
अब के बरस भेज भईया को बाबुल
सावन में लीजो बुलाय रे
लौटेंगी जब मेरे बचपन की सखियाँ
दीजो संदेसवा भिजाय रे।
अब के बरस भेज भईया को बाबुल
अमवा तले फिर से झूले पड़ेगे,
रिमझिम पड़ेगी फुहारें
लौटेंगी फिर तेरे आँगन में बाबुल,
सावन की ठंडी बहारे,
छलके नयन, मोरा कसके रे जियरा
बचपन की जब आये याद रे
अब के बरस भेज भईया को बाबुल
सावन में लीजो बुलाय रे
बैरन जवानी ने छीने खिलौने और मेरी गुड़िया चुराई
बाबुल थी मैं तेरे नाजों की पाली,
फिर क्यों हुई मैं पराई रे,
बीते रे जुग कोई चिठिया न पतिया,
ना कोई नैहर से आये रे
अब के बरस भेज भईया को बाबुल
सावन में लीजो बुलाय रे
26 comments:
ऑफिस में हूँ तो ये गाने सुन तो नहीं पाउँगा पर 'हो सके तो लौट के आना,' मुझे बेहद पसंद है..
सचमुच जो कशिश और आकर्षण पुराने फ़िल्मी गानों में है और जिन्हें बार बार सुनने और गुनगुनाने का मन करता है वह आज के संगीत में नदारद है.. इतने सुन्दर गीत सुनवाने / पढवाने के लिये आभार
ये गीत किसी को पसंद नहीं होंगे...............ऐसा होना तो मुमकिन ही नहीं ...........
लाजवाब पोस्ट बंदिनी की पूरी kadi yaadgaar बन गयी
तीनों ही गीत प्यारे और सुन्दर है। अभी तो सुन नही पाऊँगा। पर मुझे ज्यादा पसंद ये गाना है "ओ रे माँझी"
मन की किताब से तू मेरा नाम ही मिटा देना
या
गुन तो ना था कोई भी अवगुन मेरे भुला देना ...khubbsurat panktiyaan hai ye kanchan...AB KE BARAS ..ka to javab hi nahi...bandini pe bahut behtareen post hai tumari...thx
अब के बरस...ऐसा गीत है जिसे सुन कर आँखें भर आती हैं....आपने बंदनी के सभी गीत सुनवा डाले हैं...ये मेरी बहुत पसंद दीदा फिल्मों में से एक है और जिसे मैं अक्सर देखता हूँ... बहुत बहुत शुक्रिया आपका...
नीरज
अनमोल गाने हैं ! बेहद पसंद भी.
बड़ा इंतेजार करना पड़ा अपने पसंदीदा गीतों को सुनने के लिये । आनंद आ गया । मन की किताब से तुम मेरा नाम ही मिटा देना ।
सारे ही एक से बढकर एक, बहुत धन्यवाद और शुभकामनाएं आपको.
रामराम.
नित्य समय की आग में जलना, नित्य सिद्ध सच्चा होना है.....!
आपकी पोस्ट ने अच्छा खासा मनोरंजन किया, इंतजार बना रहा और मिठास भी.
बंदिनी के सारे गीत में कुछ ना कुछ बात जरूर है। पर जैसा मैंने पहले भी कहा मेरे साजन है उस पार मुझे अत्यंत प्रिय है।
"अब के बरस भेज भईया को बाबुल" तो सुनकर मेरी आंखों में हमेशा आंसू आ जाते हैं और दिल भीग जाता है
मन की किताब से तू मेरा नाम ही मिटा देना
या
गुन तो ना था कोई भी अवगुन मेरे भुला देना
या
मुझे आज की विदा का मर के भी रहता इंतज़ार
या
मेरा खींचती है आँचल, मन मीत तेरी हर पिकार
मेरी मनपसंद फिल्म ...जितनी बार सुनती देखती हूँ रो पड़ती हूँ ....आपने व्याख्या अच्छी की है ...बधाई
कंचन जी ,आखिर आपने मेरी पसंद का गीत दे ही दिया " अबके बरस भेज भैया को बाबुल ...." इसके बारे में मैं पहले ही टिप्पणी
कर चुका हूँ और हाँ इस गीत को स्वर दिया है आशा जी ने ! बहुत मार्मिक रचना है शैलेन्द्र जी की !अच्छे गीत सुनवाने के लिए धन्यवाद की पात्र हैं आप !
मुझे आज की विदा का.....
....मर के भी रहता इंतजार
मेरा भी हमेशा से फेवरिट
kanchan jee samajh saktee hain ki kitna aanand aaya hoga . bandinee mere man aur kala dono ke bahut kareeb lagtee hai . kayee bar dekh chuka hoon .par ek alag tarah ka anand, ki charcha karna sunna aur sabhee kee tippaniyon me bandini ke bare me mehsoos karna .ise main ek achcha sajha prayog manta hoon .
asha hai ki aage bhee aisa hee sukhad ,aanand milega .
एस डी बर्मन ओर नदी....एक दूसरे की छाया बन गए थे ....मेरे साजन है उस पार.....मुझे बेहद पसंद है ..शायद अपनी तरह के पहले संगीतकार थे जो अपना उपयोग वही करते थे जहाँ उनसे बेहतर कोई नहीं कर सकता था....
bahut hi achchee pasand hai aap ki.
ya sabhi geet apne aap mein nayab gems hain.
कँचन बेटे "बँदिनी " फिल्म की पूरी षृँखला लाजवाब लगी -
सारे गीत माहौल को उभारते हुए
मन मेँ बस गये हैँ
- लावण्या
इस सुन्दर प्रस्तुति के लिए हार्दिक आभार।
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जादू की छड़ी चाहिए?
नाज्का रेखाएँ कौन सी बला हैं?
ये मांझी-गीत मुझे बेहद पसंद है। शुक्रिया अपका ऐसे सुमधुर गाने सुनवाने का।
aaj pahli baar aapke blog par aayi hun.
aapne jitne bhi geeton ke bare mein kaha,sab meri pasand ke hain,jaan hain meri ye sab geet.har geet dil kheench kar le jata hai.
jo madhurta aur jo kashish purane songs mein hai wo aaj door door tak sunne ko nhi milti.
शब्दों और स्वरों का
सारा कंचन
खरा खरा है
हृदय गवाक्ष पर
भरा भरा है।
सचिन दा के संगीत के साथ-साथ उनकी आवाज़ के कद्रदानों की संख्या बहुत बड़ी है। इसमें ही कहीं हम जैसे लोग भी हैं जो संगीत की कुछ विशेष समझ तो नहीं रखते पर अच्छा संगीत सुनना पसंद करते हैं।
आप की पसंद के ये तीनों ही गीत मुझे बहुत पसंद रहे हैं और "मेरे साजन है उस पार" तो अक्सर गुनगुनाते हुये मुझे ज़बानी याद हो चुका है।
शुक्रिया!
काश! ये बोल सुनकर लौट आते जाने वाले!
ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना...
'बंदिनी के गीत' प्रस्तुति बहुत ही अच्छी लगी आपकी हरेक पोस्ट की भाँति। बधाई! साधुवाद!
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