नित्य समय की आग में जलना, नित्य सिद्ध सच्चा होना है। माँ ने दिया नाम जब कंचन, मुझको और खरा होना है...!
Saturday, February 7, 2009
आफ्टर ट्वंटी ईयर्स आफ योर डिपार्चर आई स्टिल लव यू
पहले यूनियन लीडरशिप में और अपने सस्पेंशन में, फिर दीदी लोगो की शादी ढूँढ़ने में अक्सर ही तो बाहर जाना होता था उनका, गुड़िया के दिन पूरी तरह से जाते इससे पहले ही तो वो खुद चले गये। और मैं अब भी, आज बीस साल बाद भी यही कहती हूँ
चाहे गुड़िया ना लाना, पर पापा जल्दी आ जाना।
उस समय जब मैं छोटी थी बाबूजी कभी कोलकाता, कभी दिल्ली जाते थे और वापसी में गुड़िया भले ना हो कोई ना कोई खिलौना ज़रूर होता था उनके हाथ में।
कल से सोच रही हूँ, कहीं कोई रिमाइंडर तो नही लगा रखा है मोबाइल में फिर भी ये तारीख आने के पहले क्या क्या याद दिलाने लगती है। उनका हँसते हुए आना, मुझे देखते ही आह्लादित होना, सायकिल की गद्दी से उतरने से पहले ही मेरी तहकीकात. "सुबह कहा था, पेन लाने को लाये ???" और फिर शाम की सुइयों के साथ सड़क पर रखे कान..... मोपेड का हॉर्न....... और शिकायतों का पुलिंदा........! उनको देखते ही बातो में झगड़ालूपन अपने आप आ जाता था। मैं जितना लड़ के बोलती वो उतना मुस्कुराते। दुनिया की सबसे सुंदर, सबसे इंटेलीजेंट, सबसे वर्सेटाईल, सबसे विट्टी बेटी उनकी है ....ये उनकी आँखे बताती थीं। और मैं खुद में फूली नही समाती थी। सारी दुनिया मिल के उपेक्षा करे फिर भी, उनका प्यार मुझे उपेक्षित नही होने देता था।
हर बार याद आता है वो स्वप्न, जो मैने उनके जाने के १३ साल बाद देखा था और गोद में बैठ के उन्हे बार बार रोकते हुए कहा था कि after thirteen years of your departure I stiil love YOU ........दिनों की संख्या बदलती जाती है और मैं अब भी वही वाक्य उतनी ही शिद्दत से दोहराती हूँ कि after twenty years of your departure I stiil love YOU
पिछले दिनो नीरज जी की पोस्ट पढ़ी तो लगा कि आलोक श्रीवास्तव ने मेरे बाबू जी के लिये लिखी है ये कविता
घर की बुनियादें दीवारें बामों-दर थे बाबू जी
सबको बाँधे रखने वाला ख़ास हुनर थे बाबू जी
तीन मुहल्लों में उन जैसी कद काठी का कोई न था
अच्छे ख़ासे ऊँचे पूरे क़द्दावर थे बाबू जी
अब तो उस सूने माथे पर कोरेपन की चादर है
अम्मा जी की सारी सजधज सब ज़ेवर थे बाबू जी
भीतर से ख़ालिस जज़बाती और ऊपर से ठेठ पिता
अलग अनूठा अनबूझा सा इक तेवर थे बाबू जी
कभी बड़ा सा हाथ खर्च थे कभी हथेली की सूजन
मेरे मन का आधा साहस आधा डर थे बाबू जी
बस हथेली की सूजन का वायस कभी नही बने मेरे लिये, ...!
अनुराग जी का बरगद का पेड़ जैसे मेरे ही मन की आवाज़ थी, बस फर्क इतना था कि मैं अक्सर ही उन्हे I Love YOU बोल लेती हूँ। उस समय का ऐसा कुछ असर था उनके ऊपर कि अंग्रेजी जितनी अच्छी व्यक्ति उतना ही प्रभावशाली। याद नही कब से तो उनसे अंग्रेजी बोलने लगी थी। और आज भी जब वो सपने में आते हैं तो मेरा वो स्वप्न इंग्लिश मे ही होता है।
लावण्या दी जब जब अपने पिता जी के विषय में बात करती हैं तो लगता है, कि भले मेरे बाबूजी को इतने सारे लोग ना जानते हों लेकिन बातें तो सब उन्ही की करती हैं दी ......!!!
यूनुस जी की पोस्ट से कितने लोग जुड़े, मुझे नही पता, लेकिन मैं उससे टूटी ही नही थी......! फिर सुनती हूँ...फिर सुनती हूँ.....! और फिर सुनती हूँ...!
<
सात समंदर पार से,
गुडियों के बाज़ार से,
अच्छी सी गुड़िया लाना,
गुड़िया चाहे ना लाना
पापा जल्दी आ जाना,
तुम परदेस गये जब से,
बस ये हाल हुआ तब से
दिल दीवाना लगता है,
घर वीराना लगता है,
झिलमिल चांद-सितारों ने,
दरवाज़ों दीवारो ने
सबने पूछा है हमसे,
कब जी छूटेगा हमसे,
कब होगा उनका आना,
पप्पा जल्दी आ जाना ।।
मां भी लोरी नहीं गाती,
हमको नींद नहीं आती,
खेल-खिलौने टूट गए,
संगी-साथी छूट गये,
जेब हमारी ख़ाली है,
और आती दीवाली है,
हम सबको ना तड़पाओ,
अपने घर वापस आओ और
कभी फिर ना जाना,
पप्पा जल्दी आ जाना ।।
ख़त ना समझो तार है ये,
काग़ज़ नहीं है प्यार है,
ये दूरी और इतनी दूरी,
ऐसी भी क्या मजबूरी,
तुम कोई नादान नहीं,
तुम इससे अंजान नहीं,
इस जीवन के सपने हो,
एक तुम्हीं तो अपने हो,
सारा जग है बेगाना,
पप्पा जल्दी आ जाना ।।
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
28 comments:
हर पंक्ति पर नम होती आंखों से पढ़ पाया हूँ आप की इस पोस्ट हो...आप की पीड़ा समझ में आती है...पिता होते ही ऐसे हैं...जैसे अलोक जी ने लिखा...
मार्मिक लेखन .
नीरज
आपकी इस पोस्ट से एक आत्मीयता लगी.. अनुराग जी की बरगद का पेड़ वाली पोस्ट भी दिल तक उतर गयी थी
तिथियां महत्वपूर्ण होनी चाहिए.....चाहे अच्छी या बुरी जो भी हों ......रिमांइडर या अलार्म की जरूरत नहीं पडती ..... खुद ही गुदगुदा या रूला जाती हैं......अपनी धुंधली पडती याद को भी सलीके से प्रस्तुत किया है....उन्हें मेरा नमन।
ये क्या आपने तो रुला दिया बहुत ही मार्मिक पोस्ट है1 अब और नेट पर नहीं बैठा जायेगा1उन्हं मेरा नमन है
भावुक लेख...रुला दिया आपने।
वाह....
आलोक श्रीवास्तव की ये कविता जब पहली बार पढ़ी थी तबसे आज भी मेरे दिल में अपना असर बरकरार रखे हुए है ...ओर उन कविताओं में से है जो कविता को पूर्ण करती है .ऐसा कविता जो सबको लगे मेरी है....
..पर ये सच है की होस्टल जाने से पहले तेज आवाज में पिता से नाराज रहने वाले लड़के होस्टल में जाने के बाद कितने बदल जाते है ये उनके दिलो से पूछिए ....'दिल चाहता है " या लक्ष्य के वे दो सीन जिसमे पिता से फोन पर संवाद है.....आज भी हम सबके फेवरेट है.....आप की ये टिपण्णी करते करते बीच में दो मरीज देखे है .एक सात महीने का बच्चा था ..एक बार गौर से देखो तो मुस्करा देता था ...कड़वी दवाई काट दी मैंने ....
बुजुर्ग होने के बाद माता -पिता भी बच्चे ही हो जाते है......
आज आपने सेंटी कर दिया कंचन जी
कंचन जी, बाबू जी की स्मृति को प्रणाम.....
हर शब्द के साथ पापा याद आते गए! कविता बहुत ही सुन्दर है!सचमुच मन भारी हो गया!
पिता की दुलारी
सुन्दर सौभाग्यवती , अमिशीखा नारी
प्रियतम की ड्योढी से पित्रुग्रुह सिधारी
माता मुख भ्राता कि पितुमुखी भगिनि
शिष्या है माता की पिता की दुलारी !
पँ. नरेन्द्र शर्मा
[ यह कविता आज ही मुझे दीखलाई दी ! कुछ पुराने कागजात देख रही थी ...और ...इसे पढ कर आश्चार्य हुआ ! ]
आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे ?
- प. नरेन्द्र शर्मा
आपके पापा आपके ह्र्दय मेँ रहते हैँ कँचन बेटे ..बहुत मार्मिक लिखा है
आँखेँ नम हो जातीँ हैँ ऐसा पढकर - आलोक जी की कविता भी बहुत अच्छी लगी
बहुत स्नेह सहित,
- लावण्या
आलोक जी की कविता दिल को छू लेती है। आशा है पिता की स्मृतियाँ जीवन में सतत संघर्ष की प्रेरणा आपको आगे भी देती रहेंगी।
बहुत भावुक कर देने वाली पोस्ट है ..निशब्द कर दिया है इस ने ..
कितना भावुक करोगी...?!
नम हो आयी आँखों को शब्दों में ढ़ालना कितना मुश्किल....
god bless you....
padhate hi aankhen nam ho gai,aapke pita ji ke smriti ko salaam....
arsh
कुछ यादें भले ही दुख पहुंचाती हों, पर उन्हें याद करने में जो दिली सुकून मिलता है, वह हमेशा उन यादों को याद करने के लिए प्रेरित करता है।
bahut achcha likha hai aapne
baav gahare hai
एक एक लफ्ज़ में अपनापन झलक रहा है
पिता के सम्मान के प्रति समर्पित बेटी की पावन भावनाओं को नमन कहता हूँ
और... नम आंखों से उस प्रतिभा-संपन्न व्यक्तित्व के लिया श्रद्धा-सुमन अर्पित करते हुए आपको अभिवादन कहता हूँ
---मुफलिस---
पढकर आखे भर आईं। बेटियां होती ही शायद इसीलिए हैं।
आपने याद दिलाया तो मुझे याद आया कि मेरे दिल पे भी पड़ा था कोई ग़म का साया . अगले महीने की सात तारीख को मुझे मेरे पिता को खोये हुए एक साल हो जाएगा और आपकी पोस्ट ने मेरी इस स्थिति को बलवती किया है कि हम बीस तो क्या शायद आखरी साँस तक नही भूल पाएंगे ... कुछ आंसू
कविता और पिता जी के प्रति आपके उद्गार - बस दोनों ही दिल को छू गए। आपने तो मुझे ७२ वर्षों के पुराने टाईम जोन में पहुंचा दिया जब साढ़े केवल साढ़े तीन वर्ष का था। बाबू जी दफ़्तर से आते थे और मैं कहा करता था-'बाबू जी, लाम लाम!' (राम राम)। उस वर्ष के बाद मुझे लाम लाम कहने का अवसर ही ना मिला।
कंचन, आपकी कलम को नमन करता हूं।
मेरे बलॉग का बदल गया हैः
http://mahavirsharma.blogspot.com/
महावीर शर्मा
behad bhav purn rachna aankhen nam ho jaana swabhavik hai.
बहुत अच्छे दिल की मालकिन हैं आप ! शुभकामनायें !
नमस्ते कन्चन!
आशा है तुम बहुत अच्छी ही होगी.:) तुम्हारा लेख, कविता और गाना.. सब कुछ बहुत उम्दा ... मैने फ़िर पढा, फ़िर सुना, फ़िर पढा, फ़िर सुना....
मुझ जैसे कठकरेज को भी रुला दिया आपने …
Bhauk kar diya aapne. Acchi baat nahin hai yeh.
आप ने आँखे नम कर दी बहुत ही भावनात्मक लिखा है धन्यवाद !
very nice ...
Post a Comment