
अभिषेक बच्चन कुल मिला कर अच्छे ही लगते हैं हमको और कोशिश होती है कि उनकी फिल्में देख ही ली जाये, मगर ऐसा भी नही है कि सारी फिल्म उनकी देखी ही है मैने..!
फिलहाल भूमिका बना रही हूँ दिल्ली 6 की, जो कि मैने २१ फरवरी को निपटाई। रंग दे बसंती का जो राकेश ओम प्रकाश मेहरा प्रभाव था, उसके कारण देर नही करना चाह रही थी, फिल्म देखने में और ये भी जानती थी कि अगले हफ्ते शायद देख भी ना पाऊँ। यूँ बहुत अच्छे रिव्यू नही आ रहे हैं फिल्म के विषय में, पर मुझे पता नही क्यों बहुत अच्छी लगी।
शुरुआत में ही दिल्ली के मोहल्ले का जो माहौल दिखाया गया, वो शायद अब दिल्ली में भी न हो और कानपुर में भी नही। लेकिन मुझे अपने कानपुर का मोहल्ला याद आ गया।
रोशन कहता है कि यूँ तो दादी अपनो को छोड़ कर आ गई हैं, लेकिन यहाँ कौन अपना नही है ये पता नही चल रहा। वाक़ई यही माहौल तो होता है मोहल्लों का। जहाँ ज़रा ज़रा सी बात पर झगड़े भी जम कर होते हैं और जरा सा दुख पड़ने पर सब सबके लिये हाज़िर भी उसी शिद्दत से होते हैं। आज जब अपने ही शहर के रिश्तेदार खाना नही भेज पाते अपनी रफ्तार वाली जिंदगी में,तब वो माहौल याद आता है, जब पिता जी के न रहने पर हर घर से १० दिन तक चाय, पानी, खाना आता रहता था। हॉस्पिटल में रहने वालों का,खाना पहुँचाने वालों का ताँता। कोई भईया, कोई चाचा, कोई बुआ और सब में स्नेह। मुझे अपना कानपुर याद आ गया, जो अब ऐसा नही रहा। सब कुछ बदल गया, फिर भी औरो की अपेक्षा अच्छा है। अब में भी त्योहारों में ही पहुँचती हूँ और छूटे लोग भी, तो फिर उतने दिन वही माहौल हो जाता है।
इण्टरवल तक ये परिचय और छोटे छोटे घटनाक्रम ही चलते रहे। हालाँकि लंच में भाजे ने कहा कि मौसी अभी तक कुछ स्टोरी नही बनी। लेकिन मैं तो अब तक स्टोरी में पहुँची भी नही थी। फिर भी मैने कहा रंग दे बसंती में भी सेकंड हाफ में ही कहानी बनती है। अब शुरू होगी। और कहानी बाद में ही बनी भी।
फिल्म इस लिये भी बहुत पसंद आई, क्योंकि छोटे छोटे कई संदेश दे गई ये। छुआछूत....! जलेबी जो कहती है उसकी भाषा थोड़ी ठेठ हैलेकिन सच है। ठाकुर साहब या पंडित जी की मिस्ट्रेस भले नीच जाति की हो, लेकिन छूना वर्ज्य है उसका। ये बात बहुत बार मैं खुद भी सोच चुकी हूँ। अभी हाल में रास्ते की उस पागल औरत को देख कर भी जिसके शरीर के नुचे कपड़ों पर एक लिहाफ डालते सबको घृणा आ रही थी, मगर उसके कपड़े जब नुचे तब वो घृणा पता नही कहाँ थी। उस दिन आँखें बंद करो तो वही दृश्य घूम जाता, बंद आँखों में
धार्मिक दंगे....! पता नही कौन करता है, ये दंगे। जब दीवाली आती है, तब फुलझड़ियाँ मेंहदी हसन हमसे ज्यादा खरीदता है, जब होली आती है, तो हम अगर काम में व्यस्त हों तो तहसीन भाभी रंग लगाने पहले पहुँच जाती हैं। ईद पर हम अपनी सब से नई ड्रेस पहन कर सिंवईया खाने निकलते हैं...! मगर ये दंगे...??? ये एक दिन में ऐसा क्या कर देते हैं कि अपने घर में,अपनों के बीच हम असुरक्षित हो जाते हैं। हनुमान भक्त मंदू दादी के बीमार होने पर मुस्लिम होते हुए भी उन्हे हनुमान जी का झण्डा हाथ पर बाँधता है। मगर दंगा होने पर वो दोस्त जिसका कहना था कि मंदू की दुकान मेरी दुकान, वही आग लगा देता है....! मंदू का रिऐक्शन काबिल ए तारीफ है।
काला बंदर जैसी चीजें भी अक्सर आ ही जाती हैं। अभी हाल में मुँह नोचवा चला था सिद्धार्थनगर, बस्ती में जितने लोग उतनी अफवाह...!सब ने देखा लेकिन किसी ने भी नही देखा...!
साथ में एक सीख कि काला बंदर हम में ही कहीं है....! मेरी व्तक्तिगत रॉय है कि फिल्म का समाज पर असर पड़ता है। आज जब फिल्मों में रिआलिटी के नाम पर सब सब कुछ जायज जैसी चीजें चीजें दिखाते हैं तब आम जनता पर कहीं न कहीं असर ये आता है कि "यार ये तो ह्यूमन साईकॉलॉजी है, फलाँ फिल्म मे देखो कितना सही दिखाया गया था।"
फिल्म के दो गीत जो मुझे बहुत पसंद आये। दोनो ही बिलकुल अलग मूड के हैं। एकभक्ति भावना से सराबोर...! दूसरा ससुराल पहुँची नवोढ़ा की चुहल...! पहले सुनिये ये गीत जिसमें आवाज़े हैं जावेद अली, कैलाश खेर और कोरस की और संगीत रहमान का, स्वर शायद प्रसून जोशी ने दिया है लेकिन इस विषय में मैं बहुत निश्चित नही हूँ, यदि कोई सज्जन जाने तो कृपया सही कर दें। इस गीत को सुनने के बाद सच में बहुत सुकूँ मिलता है मुझे।
अर्जियाँ सारी चेहरे पे मै लिख के लाया हूँ,
तुम से क्या माँगूँ मैं.
तुम खुद ही समझ लो मौला
मौला मौला मौला मेरे मौला
मौला मौला मौला मेरे मौला
मौला मौला मौला मेरे मौला
मौला मौला मौला मेरे मौला
दरारें दरारें है माथे पे मौला
मरम्मत मुकद्दर की कर दो मौला
तेरे दर पे झुका हूं मिटा हूँ, बना हूँ
मरम्मत मुकद्दर की कर दो मौला
मरम्मत मुकद्दर की कर दो मौला
(जो भी तेरे दर आया,झुकने जो भी सर आया,
मस्तियाँ पिये सबको झूमता नज़र आया ) -2
प्यास ले के आया था, दरिया वो भर लाया
नूर की बारिश में भीगता सा तर आया
नूर की बारिश में भीगता सा तर आया
मौला मौला मौला मेरे मौला
मौला मौला मौला मेरे मौला
मौला मौला मौला मेरे मौला
दरारें दरारें है माथे पे मौला
मरम्मत मुकद्दर की कर दो मौला
(जो भी तेरे दर आया,झुकने जो भी सर आया,
मस्तियाँ पिये सबको झूमता नज़र आया ) -2
(एक खुशबू आती थी)-2
मैं भटकता जाता था, रेशमी सी माया थी
और मैं भटकता जाता था
(जब तेरी गली आया, सच तब ही नज़र आया)-2
मुझमे वो खुशबू थी, जिससे तूने मिलवाया
मौला मौला मौला मेरे मौला
मौला मौला मौला मेरे मौला
मौला मौला मौला मेरे मौला
दरारें दरारें है माथे पे मौला
मरम्मत मुकद्दर की कर दो मौला
टूट के बिखरना मुझको ज़रूर आता है
टूट के बिखरना मुझको ज़रूर आता है
पर ना इबादत वाला शऊर आता है
सज़दे में रहने दो, अब कहीं ना जाऊँगा
अब जो तुमने ठुकराया तो सँवर ना पाऊँगा
मौला मौला मौला मेरे मौला
मौला मौला मौला मेरे मौला
मौला मौला मौला मेरे मौला
दरारें दरारें है माथे पे मौला
मरम्मत मुकद्दर की कर दो मौला
सर उठा के मैने तो कितनी ख्वाहिशें की थीं
कितने ख्वाब देखे थे, कितनी कोशिशें की थीं
जब तू रूबरू आया
जब तू रूबरू आया, नज़रें ना मिला पाया
सर झुका के एक पल में ओऽऽऽऽऽऽ
सर झुका के एक पल में मैने क्या नही पाया
मौला मौला मौला मेरे मौला
मौला मौला मौला मेरे मौला
मौला मौला मौला मेरे मौला
दरारें दरारें है माथे पे मौला
मरम्मत मुकद्दर की कर दो मौला
(मोरा पिया घर आया, मोरा पिया घर आया)-2
मौला मौला मौला मेरे मौला
मौला मौला मौला मेरे मौला
मौला मौला मौला मेरे मौला
दरारें दरारें है माथे पे मौला
मरम्मत मुकद्दर की कर दो मौला
और दूसरा ये गीत जो कि माटी की खुशबू लिये हुए है और मुझे इस तरह के लोकगीत पसंद भी बहुत हैं। इस गीत के लिरिक्स का श्रेय कैसेट में किसी को नही दिया गया है। ये एक लोकगीत है जिसमें रहमान जी ने संगीत की थोड़ी बहुत फेरबदल के बाद बहुर सुंदर बना दिया है। इसक खूबी ये भी है कि बड़ी बिटिया नेहा की शादी तय होने के बाद छोटी सौम्या इसे गा कर दिन भर उसे छेड़ती है और बड़ी को जबर्दस्ती शर्माने की ऐक्टिंग करनी पड़ती है :) इस में आवाजें रेखा भारद्वाज, श्रद्धा पंडित, सुजाता मजूमदार और कोरस की है

ओओ ओओ ओओ ओओ
ओय होय होय ओय होय होय
ओय होय होय ओय होय होय
सईयाँ छैड़ देवै, ननद जी चुटकी लेवै
ससुराल गेंदा फूल
सास गारी देवै, देवर समझा लेवै
ससुराल गेंदा फूल
छोड़ा बाबुल का आँगन भावे डेरा पिया का होऽऽऽ
सास गारी देवै, देवर समझा लेवै
ससुराल गेंदा फूल
सईयाँ है व्यापारी, चले हैं परदेस,
सुरतिया निहारूँ, जियरा भारी होवे
ससुराल गेंदा फूल
सास गारी देवै, देवर समझा लेवै
ससुराल गेंदा फूल
सईयाँ छैड़ देवै, ननद जी चुटकी लेवै
ससुराल गेंदा फूल
छोड़ा बाबुल का आँगन भावे डेरा पिया का होऽऽऽ
बुशट पहिने खाइ के बीड़ा पान
पूरे रायपुर से अलग है सईयाँ जी की शान
ससुराल गेंदा फूल
सास गारी देवै, देवर समझा लेवै
ससुराल गेंदा फूल
सईयाँ छैड़ देवै, ननद जी चुटकी लेवै
ससुराल गेंदा फूल
छोड़ा बाबुल का आँगन भावे डेरा पिया का होऽऽऽ
ओय होय होय ओय होय होय
ओय होय होय ओय होय होय
ओय होय होय ओय होय होय
ओय होय होय ओय होय होय
ओओ ओओ ओओ ओओ
मुझे पता है इस गीत को सुनने में बहुत समय देना पड़ेगा. ऐसा कोई ज़रूरी भी नही है कि आप सुनें जरूर। कभी फिर सुन लीजियेगा, जब समय हो या कहीं और सुनाई दे रहा हो। मैने तो बस अपनी डायरी मेनटेन की है, ताकि सनद रहे :)