Tuesday, November 25, 2008

धरती, अम्बर और सीपियां


कल दिन पूर्वाह्न १० बजे के लगभग अमृता प्रीतम की ये उपन्यास मुझे प्राप्त हुई। जहाँ तक याद है शायद रसीदी टिकट में ही इस उपन्यास का ज़िक्र पढ़ा था और साथ ये भी पढ़ा था कि १९७५ में इस उपन्यास पर शबाना आज़मी अभिनीत एक फिल्म कादम्बरी भी बनी थी...! (इण्टरनेट पर प्रदर्शन वर्ष १९७६ पता चला है और यूनुस जी के चिट्ठे पर १९७४ )।

अमृता प्रीतम जी की जिंदगी हो या उनकी किताबें उनका जो खास अंदाज़ है वो ये है कि उनके क़ुफ्र बड़े पाकीज़ा होते है। इसी पाक़ीज़ा क़ुफ्र की एक बानगी मैने और मेरी सखी शिवानी सक्सेना ने पढ़ी थी, जब इस पूरी पुस्तक को पढ़ने की उत्सुकता जाग उठी थी हमारे मन में। और जैसे ही उन्हे अमीरुद्दौला पुस्तकालय में ये किताब मिली वे तुरंत ले आईं हम दोनो के पढ़ने के लिये।

खैर मध्यम आकार के अक्षरो में छपी १८९ पन्नो की यह पुस्तक मेरे द्वारा रात भर में समाप्त कर दी गई। परंतु उपन्यास का जादू जिस दृश्य में समाहित था शायद उसको कई बार पहले ही पढ़ लेने के कारण जो सहज जिग्यासा उपन्यास को पढ़ने के बीच एक अनोखा भाव बनाये रखती है, उसकी कुछ कमी हो गई और एक अच्छी पुस्तक पढ़ने के बाद कुछ दिनो तक जो मीठा स्वाद मन को खुश किए रहता है उससे मैं वंचित रह गई।

उपन्यास तीन महिला किरदारों की प्रणय कथा पर आधारित है, जिनमें मुख्य किरदार चेतना है, जिसका नायक ईक़बाल अपनी माँ की नाजायज़ औलाद है और शादी न करने हेतु कृतसंकल्प है, इस असामान्य परिस्थिति मे पनपे प्रेम की एक असामान्य कथा है ये। अन्य दो पात्र है मिन्नी जो कि नरेश के प्रति अपने बचपन के प्रेम को कभी नही व्यक्त करती और परिस्थिति वश जग्गू के साथ जा मिलती है और होनी उसे खुद को खत्म करने पर मजबूर कर देती है। दूसरी है चम्पा जिसे चेतना का भाई जी जान से चाहता है, लेकिन होनी उसे सामर्थ्य पर गुरूर आजमाने के मनोरोग से भर देती है और जब तक वो पश्चाताप करे तब तक उसका प्रिय कहीं और रम चुका होता है

लेखिका पता नही क्या कहना चाह रही है इस उपन्यास में मगर मुझे जो लगा वो ये कि अन्य दोनो पात्र मिन्नी और चम्पा ये दोनो ही चेतना की सखी हैं, इनके प्रेम में सहजता होने के बावज़ूद ये दोनो पात्र अपने प्रणयी को स्वीकार नही कर पाते और दुखान्त को प्राप्त होते हैं, वहीं चेतना सब कुछ विपरीत होने के बावज़ूद अपने स्नेह को अपने जीवन में लाने की जुर्रत करती है और जिंदगी से बिना कुछ माँगे भी सब कुछ पा जाती है और सुखांत का हिस्सा बनती है।

इस उपन्यास के प्रति आकर्षण का एक मुख्य कारण इस पर बनी फिल्म का गीत बात क़ूफ्र की की है हमने भी है... जो कि अमृता जी की निजी जिंदगी से संबंध रखता है। इमरोज़ के साथ रहने का पक्का इरादा करने पर उन्हे जो कुछ सुनने को मिला उसके बाद उन्होने अपने पाक़ कुफ्र को जो शब्द दिये .....वो जि शब्दो में गाया वो यही गीत था। अमृता जी के उपन्यास का जो खास अंदाज़ होता है वो उनके नैरेशन में ही होता है और उस नैरेशन को कैसे पिक्चराईज़ किया गया होगा ये जानना अद्भूत होगा मेरे लिये लेकिन अभी तो फिलहाल इससे वंचित ही हूँ...!

जो भी हो आप सुनिये कादम्बरी फिल्म का आशा भोसले द्वारा गाया, उस्ताद विलायत खाँ द्वारा निदेशित ये गीत...!


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अंबर की एक पाक सुराही,
बादल का एक जाम उठाकर ,
घूंट चांदनी पी है हमने,

बात कुफ्र की..की है हमने ।

कैसे इसका क़र्ज़ चुकाएं,
मांग के अपनी मौत के हाथों
उम्र की सूली सी है हमने,
बात कुफ्र की..की है हमने ।

अंबर की एक पाक सुराही ।।
अपना इसमें कुछ भी नहीं है,
रोज़े-अज़ल से उसकी अमानत
उसको वही तो दी है हमने,
बात कुफ्र की.. की है हमने ।

लिरिक्स साभार यूनुस जी की ये पोस्ट

16 comments:

गौतम राजऋषि said...

मुझे तो लग रहा था कि मैं अमृता समग्र पढ़ चुका हूँ...और तब आपने ये झटका दिया...मेरे पास हिंद पाकेट बुक्स से छपी अमृता जी की लगभग सारी कृतियाँ है...मगर जाने कैसे ये रचना छुटि रह गयी...
बहुत-बहुत शुक्रिया कंचन जी..."रसीदी टिकट" में इसका जिक्र है क्या?
और जरा इसका प्रकाशन भी बताओगी आप,प्लीज?

रंजू भाटिया said...

बढ़िया लिखा आपने इस के बारे में कंचन जी ..

कुश said...

उपन्यासो पर आपके रिव्यू रोचकता बढ़ा रहे है.. मैं 'मुझे चाँद चाहिए' लेने के लिए भी जा चुका हू एक बार. पर वाहा मिली नही.. प्रयास जारी है

Abhishek Ojha said...

धन्यवाद इस प्रस्तुति के लिए. लाइन में रखता हूँ इस किताब को भी... अभी तो कुछ नहीं पढ़ पा रहा. :(

राकेश जैन said...

189 page ek hi rat me na parha karen di.. thoda khayal..sehat ka bhi kariye !!!

मोहन वशिष्‍ठ said...

बहुत अच्‍छी है पढनी पडेगी अब बहुत ही अच्‍छी और ये गीत क्‍या बात है आपका शुक्रिया इसे पेश करने के लिए

Anonymous said...

sundar samiksha ke aath sundar geet shukran

नीरज गोस्वामी said...

बरसों पहले पढ़ा था ये उपन्यास...शायद "धरती सागर और सीपियाँ " के नाम से था...बहुत अच्छे से दृष्टान्त अब याद नहीं हैं...अमृता जी का क्या कहना... उनकी हर किताब विलक्षण हैं क्यूँ की उन जैसी संवेदना और कहीं देखने पढने को नहीं मिलती...शुक्रिया आप का एक बार फ़िर इस उपन्यास की याद ताजा कर दी...
नीरज

Manish Kumar said...

मेरा ये पसंदीदा नग्मा है। शुक्तिया इस किताब के बाते में बताने के लिए।

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

अच्छी पुस्तकोँ के बारे मेँ लिख रहीँ हैँ आप
और ये गीत मेरे पापाजी को भी पसँद था
स्नेह,
- लावण्या

डॉ .अनुराग said...

अमृता को बतोर शायरा ज्यादा पसंद करता हूँ ....उनको ओर शिवानी को शायद १२ क्लास में था तब से कई बार पढ़ा है .....उनकी ये नज़्म बेहद खूबसूरत है.....अपने आप में बहुत कुछ समेटे हुए

एस. बी. सिंह said...

बहुत बढिया। आलेख भी और आशा जी का गीत भी।

कंचन सिंह चौहान said...

मोहन जी, महक जी, नीरज जी, मनीष जी, लावण्या दी, अनुराग जी, एस.बी. जी शुक्रिया

गौतम जी कल तो शायद था लेकिन आज निश्चित हो चुका है कि मैने इसका ज़िक्र रसीदी टिकट में ही पढ़ा था...उसमे जिन उपन्यासों का जिक्र है, उन्हे पढ़ना और अमृता जी के अनुभवों से गुज़रना अधिक सुखकर होता है। हाँ प्रकाशक का नाम ना बताना मुझे कल ही थोड़ा अखर रहा था, लेकिन पोस्ट डालने की ललक में अवाईड कर गई थी..ये हिंद पॉकेट बुक्स का प्रकाशन है...! इसमे इमरोज़ जी के रेखाचित्रों को भी शामिल किया गया है।

रंजू दी आप तो खुद अमृता जी के विषय में इतना कुछ लिख रही हैं, हम सब भी उससे लाभांवित हो रहे हैं।

कुश जी जब ना मिले तो बताइयेगा मैं भेज दूँगी।

अभिषेक जी मै अभी खूब सारी किताबें पढ़ रही हूँ..आप सूची बढ़ाते जाइये।

राकेश तुम्हारी बातों पर बस ममता उमड़ती है.... एक भाई के दिमाग में यही सब से पहले आ भी सकता था..! लेकिन तुम चिंता मत करो..मैं अपने स्वास्थ्य पर ध्यान देते हुए ही काम करूँगी।

योगेन्द्र मौदगिल said...

बेहतरीन प्रस्तुति है कंचन जी
शुक्रिया
अमृता जी को रसीदी टिकट तक खूब पढ़ा

siddheshwar singh said...

ऐसा साफ लग रहा है आजकल खूब पढ़ रही हैं. बहुत बढ़िया. मुझे लगता है कि'रसीदी टिकट' जैसी किताबों ने एक पूरी पीढ़ी को संवेदनशील बनाया है, थोड़ा स्पष्ट करूँ तो यह कह सकता हूँ 'होशियार' बनने से बचाया.अब यह अच्छा हुआ या बुरा ,दीगर बात है -शायद नितान्त वैयक्तिक भी. खैर मुझे अच्छा यह लग रहा है कि आप पुस्तक समीक्षा नहीं बल्कि पाठकीय अनुभव को साखा कर रही है - वह भी बेहद सहजता से. बहुत कठिन काम होता है सहजता से लिखना. बधाई!

*इसी तरह दस बारह पसंदीदा किताबों पर लिख जाइए , एक किताब बन जाएगी.अगर भी तक 'कॄष्णकली'(शिवानी) नहीं पढ़ा है तो पढ़ा जाइए.(क्षमा करें- यह सुझाव यूँ ही बिन माँगे दे दिया-क्या करूँ हिन्दी का 'डाक्टर' जो हूँ)

Neetu Srivastava said...

hi

bahut acha likhti hai kanchan ji