
शशि दी चली गईं .... सब के मुँह से यही निकला कि एक अध्याय का अंत हो गया और मुझे लगा कि एक इतिहास पूर्ण हुआ। सूरज बन के सारी दुनिया को रोशनी देना सब के वश की बात नही है लेकिन दीपक बन के एक छोटी सी दुनिया तो रोशन की ही जा सकती है न..! ये सिखाती थीं शशि दी....!
मेरे छोटे से मोहल्ले में निर्विवादित रूप से अच्छी मानी जाने वाली दी को जानती तो मैं पता नही कब से थी लेकिन उनके प्रभाव में आई १९८८ से जब मैने ९ वें दर्जे के लिये प्रवेश लिया और उन्होने कहा कि वैकल्पिक विषय के रूप में गायन ले लो, मैं तुम्हे सिखाऊँगी।
तीन बहन और एक भाई में दी सबसे बड़े भईया के बाद आती थीं, पिता जी बहुत जिम्मेदार व्यक्ति नही थे, लेकिन वे थीं.... बहुत कम उम्र से बहुत जिम्मेदार...! सबसे छोटी बहन यशी दीदी को फिट्स पड़ते थे, वो कहीं भी सुरक्षित नहीं थीं। दीदी ने निश्चित किया कि वे उनकी जिम्मेदारी उठाने के लिये आजीवन विवाह नही करेंगी। लोगो ने सलाह दी की इसी शर्त पर शादी की जा सकती है कि "आप अपनी बहन को अपने साथ रखेंगी तो उनका जवाब होता कि "लेकिन इस बात की क्या गारंटी है कि शर्त आजीवन निभाई ही जाएगी" बात अपने आप में बहुत व्यवहारिक थी।
दीदी ने अपने लिये जीवन का जो रूप चुना था उसमें अपने लिये कुछ नही था। सिर्फ दूसरों को देने की बात थी। बचपन में सुना करती थी लोगो से कि दीदी के पैसा बहुत है, इण्टर कॉलेज में लेक्चरर और फिर शाम को संगीत की जो कोचिंग चलती है उसमें कितने सारे बच्चे आते हैं..!ये तो जब मैं उस कोचिंग का हिस्सा बनी तब मुझे पता चला कि ७५ प्रतिशत लोगो की फीस माफ थी और जिनकी नही माफ थी उनके भी लेन देन का कोई हिसाब नही था।
वो दीदी का मंदिर था जहाँ शाम से वो साधना करती थीं, जहाँ जितने दुखी मिल सकते उन्हे बटोर कर कुछ खुशी देने की कोशिश की जाती थी...! शाम को प्रसाद चढ़ता, आरती होती, नवरात्र के नौ दिन वहाँ भंडारा होता और दीदी जो कुछ कॉलेज में कमाती इन्ही सब में लगा देती थी। कहीं किसी लड़की की शादी हो तो दीदी को ये नही सोचना पड़ता कि व्यवहार कितना देना है वो जितनी गरीब होती दीदी का गिफ्ट उतना मँहगा।
सोमनाथ सर जो कि होम्योपैथ के डॉक्टर हैं और समाजसेवा को उन्होने भी अपना धर्म चुना है, मेरे और दीदी के समान रूप से करीबी हैं। सबसे पहले उन्हे ही पता चली ये बात कि दीदी को लीवर कैंसर है। अब ये बात बताई किसे जाये..? और छिपाई कैसे जाये..? इस पशोपेश में उन्होने मुझसे ये बात बाँटी और कहा "लेकिन हम अपनी प्रार्थना से दीदी कि उम्र बढ़ा लेंगे।" आपरेशन के बाद सोमनाथ सर ने मुझसे कहा था कि दी का survival ४-५ साल तक भी हो सकता है, तब मैने ऐसा नही सोचा था कि इतनी जल्दी वो छूट जाएंगी। दीदी और उनके घर वालो से ये बात छिपा ली गई थी, क्यों कि उनकी ८५ वर्षीय माँ और यशी दी को ये बात बताई भी कैसे जाती।
मैने इधर कानपुर की विजिट बढ़ा दी थी। थोड़े दिन पहले सर ने फोन कर के बताया कि दीदी एड्मिट हैं और अब कोई निश्चित नही कि वे कब हमारा साथ छोड़ देंगी। मैं रोज सोने के पहले सर से उनका हाल लेती। दीदी जिस दिन एड्मिट हुईं उसके एक दिन पहले उन्होने खूब गीत गाये। उसमें एक गीत था "ये शाम की तन्हाइयाँ ऐसे में तेरा गम" सर लगभग रोज फोन रखने के पहले ये गीत सुनते,
"जिस राह से तुम आने को थे,
इसके निशाँ भी मिटने लगे"
और फिर कहते बस करो।
३ तारीख की रात भी ऐसा ही हुआ। मैने दीदी का हाल लेने को फोन किया। दीदी का हाल पूँछा ये गीत और कुछ और गीत जो उस समय परिस्थिति सम्यक थे, सर को बताया कि दीदी तो मना कर रही हैं लेकिन मैं शनिवार की सुबह आ रही हूँ। लाइट चली गई थी शायद १ बजे सोई होऊँगी.... तभी एक अद्भुत स्वप्न देखा जो कि दूसरे दिन पारुल से बाँटा भी ( मेरा प्रोग्राम संडे को पारुल से मिलते हुए कानपुर जाने का था।) मैने देखा कि भयंकर आँधी तूफान में फँसी मैं दीदी के पास जब नही पहुँच पाती तो एक व्यक्ति सहारा दे कर मुझे वहाँ पहुँचा देता है। वहाँ दीदी के ऊपर खूब ठंडा पानी डाला जा रहा है और वहीं ढेर सारे रंगबिरंगे कागज उड़ रहे हैं जिनमें लिखा है " हे ईश्वर धरती के इस मोती को अपनी करुणा की सीप में सम्हाल कर रखना" ..और अचानक मेरी नींद खुल जाती है... समय देखा तो ३.३० बज रहे थे...कैसा स्वप्न था ये, थोड़ी देर को हिला गया।
सुबह उठ कर सोचा कि सर को बताऊँ लेकिन आफिस जाने की हौच पौच में समय नही मिला। कैलीपर्स पहन ही रही थी कि सर का फोन बज गया और उन्होने बताया कि दीदी की हालत कल रात ३ बजे से गंभीर हो गई है। दिन कैसे बीता बता नही सकती, हर पल डर कही कुछ खबर ना आ जाए। दूसरे दिन दीदी के पास पहुँच गई। दीदी अब बहुत खास लोगो को ही पहचान पा रही थीं। लेकिन मेरी आवाज सुनते ही बोलीं "उसे मिल लेने दो मुझसे" और पास पहुँचते ही बोली " तुम्हें अभी बहुत ऊँचाई पर जाना है।"फिर चलते समय बोलीं "अब तुम मत आना हम ही आ जाएंगे जल्द ही।" मेरे आँसू दीदी की गज़ल गान चाहते थे
आओगे कहाँ लौट के जो जा रहे हो तुम,
नाहक ही मेरे सर की कसम खा रहे हो तुम
७ मई की रात ११.३० बजे सर का फोन आ गया कि "दीदी साँस नही ले रहीं" और मैने आँख बंद कर के कहा "हे ईश्वर ....! धरती के इस मोती को अपनी करुणा की सीप में सम्हाल कर रखना...!"
दीदी अपनी अगली यात्रा पर जा रहीं थी। कोई बूढ़ी महिला चिल्लाती हुई आतीं "अरे तुम तो कहती थी कि हम तो हैं, अब हमसे ये कौन कहेगा।" कोई गरीब औरत चिल्ला रही थी "कहती थी कि किसी से कुछ ना माँगा करो हमसे बताया करो जो जरूरत हो" कितने लोग खड़े ऐसी ही कतनी चीखें निकाल रहे थे। किसी को नही पता कि वो शशि दी के कौन थे लेकिन उनको पता था कि शशि दी उनकी अपनी थीं।
17 comments:
कुछ रिश्ते भावनाओ से बुने जाते है.. जिन शब्दो में आपने शशि दी के बारे में लिखा है... उस से स्पष्ट है की शशि दी जैसी सख्सियत हमेशा ज़िंदा रहेगी.. सबकी प्रार्थनाओ में.. दुआओ में.. ईश्वर उनकी आत्मा को शांति प्रदान करे...
शशि दी जैसे लोग अमर होते है.
ना ये मर सकती है ना इनकी यादें मिटाई जा सकती हैं.
अनगिनत लोगों का प्यार,स्नेह, आशीष इनके साथ रहता है.
यकीनन, शशि जी जैसे लोग हमेशा के लिए हमारी यादों में बस जाते हैं। जेहन में हमेशा के लिए चस्पा हो जाती है उनकी तस्वीर।
Vinamra shraddhanjali..
shashvat chetan samyak rath par, pahunche nij sthan.
Param labdhi ko labh kar woh chetan, bane mahaan.
कंचन जी
काश शशि दी जैसे लोगों से ये धरती पट जाए तो शायद कहीं किसी को कोई कष्ट ना रहे...भगवान भी ऐसे लोगों को क्यों जल्दी ही अपने पास बुला लेता है समझ नहीं आता...मृतक की आत्मा की शान्ति के लिए प्रार्थना करते हुए इश्वर से बिनती करते हैं की हमारी दुनिया को कभी शशि दी जैसों की कमी ना होने दे.
नीरज
अपनो के विछोह का दुख कोई बांट नही सकता- उस दिन मै कानपुर मे थी एक मन हुआ कि तुम्हे फोन कर के हाल पूछूं - शशी दी का जीवन हम सबके लिये अनुकरणीय है
इस दुनिया मे ऐसे कितने unsung hero असली दुनिया की इन्ही गलियों मे छिपे पड़े है...ओर कभी कभी लगता है की इश्वर का गणित भी गड़-बड़ा जाता है जो ऐसे लोगो को कष्ट दे देता है..आपकी पीड़ा समझ सकता हूँ..लेकिन कही न कही ऐसा कुछ है जहाँ इंसान अपने को विवश महसूस करता है.....
कंचन शायद आपने भी भीगी आंखों से, रुंधे गले से और कांपती उँगलियों से लिखा होगा...तभी हमारी आँखें भी नम हो गयी... विश्वास रखो धरती का मोती ईश्वर के करुणा के सीप में सुरक्षित होगा...
कँचन बेटे,
दीदी की आत्मा का प्रकाश
ईश्वर के तेज पूँज मेँ समा गया है वहाँ रोशनी ही रोशनी है
उनके कहे को याद रखना
अपने को सँभालना .
स्नेह,
- लावण्या
ऐसे लोग मरा नहीं करते, अमर हो जाते हैं.
शायद उस जग को ऐसे लोगों की कमी महसूस हुई होगी.
उनके कार्यों को और उनकी याद को नमन करता हूँ.
ईश्वर आपकी प्रार्थना जरुर सुन रहा होगा.
कभी कभी कुछ ऐसे रिश्ते बनते हैं जो अपने से ज्यादा अपने हो जाते हैं।
ये कमबख्त ऊपर वाला भी बड़ा स्वार्थी और मतलबी है ये अच्छे लोगों को पृथ्वी पर नहीं रहने देता तुरंत अपने पास बुला लेता है । शायद उसके स्वर्ग में हालात पृथ्वी से भी बदतर हैं तभी तो उसको अच्छे लोगों की ज्यादा जरूरत होती है । जीवन की लम्बाई से कभी पता नहीं लगता व्यक्ति कैसा था, जीवन कैसे जिया गया उससे पता लगता है कि व्यक्ति कैसा था । मेरी तरफ से भावांजलि ।
शशी दी को विनम्र श्रधांजलि ।
कंचन शशि दी को हम जानते तो नही थे पर आपकी पोस्ट पढ़ते-पढ़ते उनके बारे मे जाना । उनके बारे मे पढ़ते-पढ़ते दिल भर आया।
जिस संवेदनशीलता से आपने अपनी संगीत शिक्षिका को याद किया है, वो पढ़कर मन उनके प्रति श्रृद्धा से भर आया। बहुत सही कहा उन्होंने..
सूरज बन के सारी दुनिया को रोशनी देना सब के वश की बात नही है लेकिन दीपक बन के एक छोटी सी दुनिया तो रोशन की ही जा सकती है न..!
हम अगर इस बात को थोड़ा थोड़ा भी अपने जीवन में उतारें तो ये दुनिया रौशन हो जाए..
काश, शशि दी जैसे लोग आपको, हमको, हम सबको बार-बार मिलें।
आपकी ऐसी रचना पढ़कर बस आह! निकल जाती है। भावों को शब्दों में उतारना बहुत मुश्किल हो जाता है। ईश्वर उनकी आत्मा को शांति दे।
''किसी को नही पता कि वो शशि दी के कौन थे लेकिन उनको पता था कि शशि दी उनकी अपनी थीं।''
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