Wednesday, February 20, 2008

नारी बनाम पुरुष क्यों .....? क्यो नही नारी संग पुरुष...?

हाँ...! क्यों नही है हम साथ साथ...? जैसे शरीर के पाँच तत्व पूरक हैं एक दूसरे के उसी भाँति सृष्टि के पूरक इन दोनो तत्वों का ब्लॉग पर इतना विरोध क्यों...?

यूँ तो ब्लॉगिंग का मेरा अपना नियम यह है कि शांति से जब भावनाएं उफान मारे तो कुछ लिख लिया जाये...वो भी ऐसे जैसे डायरी ही थोड़ी टेक्निकली डेवलप्ड हो गई हो और जैसे दो चार दोस्त डायरी पढ़ कर समालोचना कर देते हैं वैसे यहाँ भी एक आध लोग चले आते हैं.... मुझे भी कुछ अच्छा लगता है तो वाह बोल देती हूँ , अन्यथा चुपचाप चल देती हूँ... बाकि मेरा हृदय जानता है कि ध्यान आकृष्ट करने या किसी का विरोध करने अथवा समर्थन पाने के लिये कभी कुछ नही लिखा..!

लेकिन ये जो आजकल चल रहा है..जो मैं काफी दिनों से देख रही हूँ... कभी नारी होने का रोना.. कभी नारी होने का ब्लेम...कबी अहम्... कभी कायरता..ये क्या हो रहा है..? और हो ही क्यों रहा है...?

सृष्टि में अगर पुरुष नही रहेंगे तो क्या होगा..? सारी महिलाओं को चैन मिल जायेगा..? या महिलाएं नही होंगी तो पुरुषों को चैन आ जायेगा ..? क्या हम आग के बिना सृष्टि की परिकल्पना कर सकते है...? या फिर पानी के बिना......? नही न..? आवश्यकता तो दोनो की ही है..! बस ज़रूरत है अपनी सीमाओं मे रहने की। जिसने भी अपनी मर्यादा त्यागी, वही असंतुलन का कारक बन गया। प्रकृति मे जितनी भी चीज़ें होती हैं सबका अपना महत्व है, तो स्त्री पुरुष तो प्रधान तत्व हैं।

आप जो नारी को छल की मूर्ति मान रहे हैं...सच बताइये क्या आपके जीवन में कोई भी महिला ऐसी नही है जिसका आपके हृदय में एक कोमल कोना है या हम जो पुरुष को अहम् का पुतला मान रहे है, उन्हे किसी भी रूप में एक पुरुष सहारा नही देता..? ऐसा कैसे हो सकता है..? माँ, बहन पत्नी, प्रेमिका या कोई भी अनाम रिश्ता और पिता, भाई, पति प्रेमी या कोई भी अनकहा रिश्ता सबके जीवन में है तो हम क्यों पूरी पूरी जाति को दोष दे रहे हैं...?

वो पति जो बीमारी में भी पत्नी से काम ले रहा है ज़रा उसके इर्द गिर्द के पुरुषों से पूँछिये, वो उनके लिये भी अच्छा नही होगा और वो महिला जो पति के लिये कर्कशा है वो किसी के लिये मृदुल नही होगी। ये सब व्यक्तिगत स्वभाव की बात है न कि स्त्रीत्व अथवा पुरुषत्व की।हम ब्लॉगर्स क्यों इतनी छोटी सी बात में फँस गए है.. और भी ग़म हैं ज़माने में मोहब्बत के शिवा। नही याद आ रहा मुझे कि इतनी ही तेजी से दो चार दस पोस्ट कई ब्लॉग पर निरक्षरता, बेरोजगारी, भुखमरी को ले कर आई हो.... जो हमारे राष्ट्र विकास को पीछे खींच रही हैं..क्या हमारे समाज में आज की सबसे बड़ी समस्या नर नारी वैमनस्य हो गई है..? जब कि व्यक्तिगत जिंदगी में हम कहीं न कहीं साथ ही हैं..!

अभी परसों एक पोस्ट में पढ़ रही थी कि स्त्रियाँ तभी मायने रखती हैं जब वे युवती हो जायें, अन्यथा क्यों नही राधा सीता का बचपन बताया गया...? अच्छी पोस्ट थी मेरा उनसे कोई विरोध नही है...! सबने उनका समर्थन भी किया, लेकिन ज़रा रामायण पढ़ें तो पाएँगे कि सीता का उल्लेख यदि युवती बनने के बाद के बाद आया होता तो हम कैसे जानते जानकी का जन्म जनक द्वारा सोने का हल चलाने पर टकराए घड़े से हुआ...कैसे पता चलता कि बाल्यावस्था में ही उन्होने शिव धनुष पिनाक खेल खेल में ही हटा दिया था। ये तो रीतिकाल में आकर राधा का नखशिख वर्णन और राधा कृष्ण की आड़ में श्रृंगार रस का फूहड़ चित्रण होने लगा अन्यथा यह प्रेम इतना पवित्र इसिलिये है...इसीलिये मंदिरों में पूज्य है क्योंकि ये बाल्यावस्था का प्रेम था..वासना रहित प्रेम....किशोरावस्था के साथ तो श्रीकृष्ण मथुरा और फिर गुरुकुल चले गए थे। और अगर स्त्री के यौवन को ही शास्त्रों में जगह मिलती तो यशोदा, देवकी, कौशल्या, सुमित्रा के वात्सल्य, ममता और त्याग को हम कैसे जान पाते...अपाला, गार्गी, लोपामुद्रा जैसी विदुषी महिलाओं के ग्यान से कैसे परिचित होते?

जब हमारे नायक मोहन दास कर्मचंद गाँधी होंगे तो कस्तूरबा उनके विवाह के बाद ही आएँगी ना...उनका बचपन हम कैसे जानेंगे..? और जब बात रानी लक्ष्मीबाई की होगी तो दामोदर राव का बचपन कहाँ मिलेगा..?

अच्छे बुरे लोग हर काल में हुए हैं, जब राम हुए तब रावण हुआ..जब सीता हुईं तब सूपनखा हुई..यदि सीता जैसी स्त्री को राम जैसे पुरुष के कारण वनवास मिला तो राम जैसे पुरुष को भी तो कैकेई जैसी स्त्री के कारण वनवास मिला..ये सब उनका स्वभाव था कैकेई का त्रियाचरित्र या राम अथवा उस धोबी का पुरुष अहम् नही।

अरे वो नारी जो पूज्य इसलिये है क्योंकि वो खुद मर्यादा और धैर्य दिखा कर आने वाली पीढ़ी को सुसंस्कारित बनाती है और समाज और राष्ट्र में अपना मूक योगदान देकर सब को ॠणी बना देती है वो कह रही है कि मुझे उन्नतशीलता नही पतनशीलता भा रही है। होड़ लग गई है पतित बनने की..! बड़ा कष्ट हो रहा है मुझे...! हम अपने राष्ट्र को २२वीं शताब्दी की ओर ले जाने का ये रास्ता अपना रहे हैं..?..उफ...!

मुझे पता है कि सब मेरा विरोध करेंगे, लेकिन मेरे अपने विचार थे कहे बिना नही रहा गया...! क्यों न हम दोनो मिलकर विरोध करे समाज के उन दोषों का जो हमारे राष्ट्र विकास को पीछे ले जा रहे हैं.....क्यो न हम पुरुषों की ताकत और नारी की संवेदान को मिला कर बनाएं एक अच्छा घर...फिर एक अच्छा समाज..फिर एक अच्छा ....फिर एक अच्छा राष्ट्र और फिर एक अच्छा विश्व.....क्यो नही..?

15 comments:

Anonymous said...

तुम्हीं तुम हो तो क्या तुम हो!
हमीं तो क्या हम हैं.

दिवाकर प्रताप सिंह said...

बढ़िया लिखा है आपने , वैसे सच्चाई भी यही है कि पुरुष और नारी दोनों आपस में एक दूसरे के अनुपूरक होते हैं ,विरोधी नहीं ! इस सकारात्मक ब्लॉग हेतु आप बधाई और आगे के लेख हेतु शुभकामनाओं सहित.....

ghughutibasuti said...

बहुत बढ़िया लिखा है आपने ! परन्तु हमें संवेदनाएँ ही नहीं चाहिये, शक्ति भी चाहिये। आपको केवल संवेदनाएँ से चलता हो तो अवश्य रखिये उन्हें ही ! यही तो हम भी चाह रहे हैं और पाने के यत्न में भी हैं कि सबको अपनी राह चुनने का अधिकार हो । उम्र के इस पड़ाव पर आकर जानती हूँ कि ये संवेदनाएँ वेदनाएँ भी लाती हैं और यह त्याग व पूज्या बनना अपने को एक मूर्ति सा बना देता है । और मूर्ति एक तरह की गुड़िया ही होती है । मर्यादा और धैर्य ! क्षमा कीजिये, कुछ ओवरडोज हो गई है इनकी ! समय आ गया है कि जरा धैर्य को छोड़ अधीर भी बनें ।
जानती हैं क्या होता है यह धैर्य? यह प्रतीक्षा , अनन्त प्रतीक्षा ? यह प्रतीक्षा बस एक दिन केवल मृत्यु की प्रतीक्षा भर लगने लगती है । मर्यादाएँ पिंजरे सी लगने लगती हैं । मन केवल यही चाहता है कि बंधे पंखों को फड़फड़ा कर खुले आकाश में उड़ा जाए । जिसके पंख ही ना रहे हों उसे शायद यह नहीं लगेगा परन्तु जिसके पंख कभी खुलते थे व उड़ना जानते थे उसे तो पृ्थ्वी से बंधा रहना असह्य हो जाएगा । यहाँ तक कि जब प्रेम हो, अथाह प्रेम हो तब भी । क्योंकि बंधा मनुष्य प्रेम भी बंधा बंधा दे सकेगा और पा सकेगा।
आप कहती हैं कि आप बहुत दिनों से देख रही हैं ! मैं कहती हूँ कि मुझे लगता है मैं युगों युगों से देख रही हूँ । काकेश जी की परुली भी मैं ही हूँ । प्रेमचन्द की निर्मला भी मैं हूँ । त्यागी और बिसूरती हुई सीता भी मैं ही थी । हाँ, कैकई भी मैं ही थी । मंथरा भी । परन्तु कैकई कैकई क्यों थी ? कभी सोचा? यदि कैकई दशरथ की अकेली पत्नी होती तो क्या उसे कैकई बनने की आवश्यकता पड़ती ? यदि पुरुषों को ही साम्राज्य विरासत में ना मिलता और कैकई भी इस विरासत को पा सकती होती तो उसे कोप गृह की आवश्यकता ना पड़ती । यदि द्रोपदी के चीरहरण को कोई नहीं रोक सकता था तो यदि कुन्ती, गान्धारी व हस्तिनापुर की सारी स्त्रियाँ आकर अपने ही चीर उतार देतीं तो कृष्ण के बिना ही द्रोपदी अनादर से बच जाती । अरे यदि तुम एक के वस्त्र उतार उसे हीनता का बोध कराना चाहते थे, पुरुष की निगाहों से उसका भक्षण करना चाहते थे तो क्या केवल द्रोपदी पर नजरें टिका सकते जब कुन्ती व गान्धारी व सब हस्तिनापुरवासिनें अपने वस्त्र त्याग देतीं ?
जिस कायरता पर कटाक्ष कर रही हैं उस कायरता की कविता हवा में नहीं लिखी गई है । जानती हो ऐसी पीड़ा क्या होती है जब कोई अग्नि को गले लगाना कम कष्टप्रद समझे ? जानती हो वह पीड़ा क्या होती है जब जिसके साथ पाणि ग्रहण किया गया था वह ही आपके ऊपर तेल डालकर माचिस जलाता होगा ? कल्पना कीजिये उस दृष्य की ! कर सकेंगी आप ? मैं कर सकती हूँ , मैं उस आग की लपटों को भी महसूस कर सकती हूँ । और हरदिन महसूस करती हूँ । और कितने त्याग चाहेंगी आप हमसे ? अबतक तो हमने त्याग के समुद्र भर दिये हैं । यदि त्याग जल होता तो विश्व के समस्त समुद्र भी उसे अपने में ना समेट पाते । और आपको अभी और त्याग चाहिये ? क्षमा कीजिये, आपको करने हैं तो दिल खोलकर कीजिये । परन्तु हमसे करने की आशा मत रखिये । एक स्त्री जलती है या जलाई जाती है तो वह अकेली मरती है । दूसरी को जब तीली लगाई जाती है तो वह अपने रक्षक/भक्षक, स्वामी,आततायी/tormentor को भी अपने बाहुपाश में जकड़कर अपने साथ ले जाती है । मैं कहती हूँ hats off to her quick thinking mind in such a situation too! आखिर पी एच डी कर बच्चे जन्मकर नौकरी व घर संभालने वाली इतनी बड़ी मूर्खा तो न रही होगी कि अकेले चली जाती ।
हमें उपदेश देने वाली शान्त चित्ता,धेर्यवाना,मर्यादिते, तब क्या करोगी जब अपनी बहनों, सखियों,माताओं, सबकी चीखें या न निकली चीखें आपके कानों में भी सुनाई देने लगें? क्या वह धैर्य कम था जो एक जली स्त्री मरने से पहले दिखाती है? ना अपने लिए रोती है ना आँसू बहाती है । उसे अपनी संतान की चिन्ता होती है कि उसके लिए किसके हाथ अधिक सुरक्षित होंगे । अभी और त्याग की गुँजाइश बाकी है ?
सृष्टि में पुरुष नहीं होने के भय का समय नहीं आया अभी। अभी तो जो पुरुष हैं उनके नाम की एक एक स्त्री भी नहीं बची है । अभी तो इन प्रिय लाड़ले, पुरुषों के लिए एक अदद पत्नी लाने के जुगाड़ की चिन्ता करिये । फिर हम कौन सा हाथ में तलवार ले उन्हें मारने निकल पड़ीं हैं ? यदि निकल भी पड़ीं हैं तो भी पुरुषों को तब तक निश्चिन्त रहना चाहिये जब तक आप जैसी ढाल हैं उनके लिए ।
हम तो केवल अपने अपने तरीके से संसार के स्त्री पुरुषों की स्त्रियों के प्रति खोई संवेदनाओं,सहमानवता व सहअस्तित्व की ही भावना जगाने का यत्न कर रहे हैं । अभी तो हमने मुँह खोला ही है और इतनी पीड़ा ?
अब मुँह खोला है तो खोलते ही रहेंगे । मिलते रहेंगे ।
एक बात और, मुझे नहीं लगता कि किसी भी आत्मविश्वासी,बुद्धिमान पुरुष को काठ की गुड़िया भायेगी । उसे भी किसी ऐसी ही स्त्री का साथ सम्पूर्णता का बोध कराएगा जो स्वयं एक सम्पूर्ण मानव हो ना कि त्याग की मूर्ति।
घुघूती बासूती

मीनाक्षी said...

बहुत खूब.. स्त्री पुरुष एक दूसरे के पूरक हैं, सब जानते हैं लेकिन शायद कभी कभी एक दूसरे का अहम जब टकराने लगता है तो ...हलचल होने लगती है.

Unknown said...

बहुत अच्छा लिखा है आपने। शत-प्रतिशत सहमत हूं। थोड़ा तुम थोड़ा हम की तर्ज पर अगर दोनों अपनी खामियों को सुधार लें तो नि:संदेह वो एक दूसरे के पूरक हैं। यकीनन एक के बिना दूसरे का काम नहीं चल सकता।

Anonymous said...

prush aur strii ek dusare kae purak haen samajh aaya per kyaa samaaj mae purush aur strii ekhee ohdae par haen . mae avivahit strii hun , mujeh nahin lagta mujeh koi purak chaheyae , to kyaa samaj is baat ko swikaar kartaa hean agar karta haen to avivahit purush kae liyae yae kyon kehaa jaata haen ki usaney shaadi nahin kii aur avivahit stri kae liyae yae kyon kehaa jaata haen uski shaadi nahin hui. yae dohri mansiktaa kyon haen ??

दिवाकर प्रताप सिंह said...

पूरक का मतलब बराबर नहीं होता , याद रहे मैंने पूरक कहा है ,कभी एक छोटा तो कभी दूसरा ! और यह भी याद रहे कि आप से समाज है समाज से आप नहीं ! इकाई से दहाई या सैकड़ा होता है दहाई या सैकड़े से इकाई नहीं और हाँ दुनियाँ शक्ति से चलती तो का आप शक्तिसम्पन्न हैं ? यदि नहीं तो पहले शक्ति का अर्जन करें फिर समाज को चुनौती दें ! क्या आप ने कभी रामायण ( राम चरित मानस) पढ़ा है ? तात वैर कीजिय ताही सों ! बुद्धि बल जीत सकिय जग जाहि ........

Manish Kumar said...

हमें उपदेश देने वाली शान्त चित्ता,धेर्यवाना,मर्यादिते, ............. यदि निकल भी पड़ीं हैं तो भी पुरुषों को तब तक निश्चिन्त रहना चाहिये जब तक आप जैसी ढाल हैं उनके लिए ।

वाह वाह घुघूति बासुति जी इस ये आप लिख रही हैं। अचंभित हूँ मैं ! इतनी अच्छी बहस कर रही थीं , इतने अच्छे तर्क प्रस्तुत किए पर मूल विषय को छोड़कर आप भी व्यक्तिगत छीटाकशीं से नहीं बच सकीं। कम से कम आपसे ऍसी तल्खी की उम्मीद नहीं थी।

ghughutibasuti said...

मनीष जी, आपका अचंभित होना सही है । कभी कभी कई बातें इतनी दुखदायी होती हैं कि मनुष्य ऐसी गलती कर बैठता है । सोचने की बात यह है कि इस चर्चा में स्त्रियाँ पुरुष के विरुद्ध नहीं बोल रहीं हैं , समाज की एक सोच के विरुद्ध बोल रही हैं । यह सोच बदलेगी तो स्त्री पुरुष दोनों को ही लाभ होगा । जो कुछ अधिक कह गई या अपनी बात कहने का लहजा गलत रहा उसके लिए क्षमा प्रार्थी हूँ, आपसे भी और कंचन जी से भी ।
घुघूती बासूती

कंचन सिंह चौहान said...

आदरणीया बसूती जी
सादर प्रणाम

सर्वप्रथम तो क्षमा प्रार्थी हूँ यदि आपको मेरे विचारों ने किसी भी प्रकार से आहत किया...! ऐसा कोई भी उद्देश्य नही था मेरा...खासकर आप....आप तो मुझे तब से बेहद पसंद हैं जब मैं ब्लॉग की दुनिया से अनभिग्य ही महफिल में आपकी कविताएँ पढ़ा करती थी...!

आपकी टिप्पणी मुझे हृदय से पसंद आ रही थी, ऐसे जैसे कोई बड़ी बहन छोटी को समझा रही हो कि अभी तुमने दुनिया देखी ही कहाँ है... अनुभव नही हैं तुमको इस समाज के...तभी तो तुम बात कर रही हो आदर्शवादिता की....! और पूरी तरह उसे समझने का प्रयास भी कर रही थी...!

लेकिन दी.... आपकी कुछ चीजों ने मुझे भी आहत किया..... किसी के विचारों से मतैक्य न होने का मतलब ये तो नही कि उसे आप चोट पहुँचाने लगें।

आपने चीरहरण की बात कही मैं सहमत हूँ...आपने कैकेई वाला तर्क दिया मुझे सचमुच समझ में आया...लेकिन
तब क्या करोगी जब अपनी बहनों, सखियों,माताओं, सबकी चीखें या न निकली चीखें आपके कानों में भी सुनाई देने लगें?
ये बात थोड़ी कम समझ में आई.... ये शाप देने के पहले ये तो सोचा होता कि जिस समाज में आप रह रही हैं मेरे लिये उससे अलग समाज नही बना है...... सामंजस्य की सोच रखने का ऐसा मतलब कदापि नही है कि मैंने वो सब पीड़ा नही झेली होगी....कैसे जानती हैं आप कि मेरी बहनों, सखियों,माताओं ने कभी ये नही झेला ...!
हाँ..... शायद मेरे सरस्वती पूजन में कोई कमी रह गई जिसके कारण मेरे शब्द मेरी भावनाओं की सही अभिव्यक्ति नही कर पाए और आपको मैं पुरुषों की ढाल सी लगने लगी....! मैने कहाँ कहा कि पुरुषों के न रहने से ही मात्र स्त्रियों को कष्ट होगा.... मैं तो उन्हे भी साथ में ले रही हूँ..!

मैने कब कहा कि विश्वास से जिस हाथ का पाणिग्रहण हुआ वो जब आग लगा देता है..तो शरीर के साथ मन नही जल जाता....लेकिन दी...! उस एक पुरुष के साथ क्या सास ननद के रूप में हम दो स्त्रियाँ नही होतीं...? मैं शायद ये बात नही समझा पा रही हूँ कि मेरे कहने का मतलब सिर्फ इतना है कि मात्र स्त्री या पुरुष होना गलत नही है... दोष स्वभावगत होते हैं...!

फिर मैं कौन होती हूँ आप जैसी वरिष्ठ महिला को सलाह देने वाली कि आप धैर्य और त्याग से काम लें ये तो एक आदर्श सामज के लिये मेरी एक सुखद कल्पना थी..... इतना ही विरोध पुरुष भी कर सकते है... क्योंकि मैने बात सिर्फ कैकेई की नही राम की भी की है..!
एक और बात स्पष्ट कर दूँ जैसा आपने लिखा
जिस कायरता पर कटाक्ष कर रही हैं उस कायरता की कविता हवा में नहीं लिखी गई है
तो मैने ऐसी कोई कविता पढ़ी ही नही है जिसके लिये साभिप्राय मैने यह बात की हो.... मैं वहाँ भी यही कहना चाहती थी कि कभी हम कायर हो कर अपने स्त्री होने का रोना रोते है..... तो कभी पुरुषों की तरफ से हमें त्रिया होने का ब्लेम मिलता है...!
इसके बावजूद यदि लग रहा है कि मैं पुरुषों के खेमे में हूँ तो, मैं वीणापाणि से प्रार्थना करूँगी कि वे मेरी लेखनी में रह गई कमियों को शीघ्र दूर कर मुझे अभिव्यक्ति की सही क्षमता प्रदान करे...!
यह पत्र मैं लिख रही हूँ ईसी के साथ मेरे ब्लॉग पर आपकी दूसरी टिप्पणी आ गई है..तथापि अपना स्पष्टीकरण देने हेतु मै यह पत्र चस्पा कर रही हू....!
सादर
आपकी छोटी बहन
कंचन

दिनेशराय द्विवेदी said...

आज देखा वह संग्राम जिसकी जरुरत है। स्त्रियाँ स्त्रियों से और पुरुष पुरुषों से संवाद करें। दोनों अपनी अपनी कमजोरियों को दूर करें। इस पोस्ट में कंचन जी ने पुरुषों की कमजोरियों को लीपा यह उन की कमजोरी थी, उसे घुघूती जी ने लीप दिया।
पुरुषों के बीच भी ऐसा ही होना चाहिए।
वैसे घुघूती जी ने पोस्ट के उत्तर में पोस्ट को ही टिप्पणी बना डाला। उन से एक निवेदन है कि हम उन की टिप्पणी को उन के मायर्ड मिराज पर देखना चाहते हैं। जिस से उस पर कुछ कहना आसान हो जाए।

कंचन सिंह चौहान said...

पिछला पूरा पत्र था घुघूती दी के नाम...इसके अतिरिक्त मैं अब पुरुषों की तरफ से आई प्रशंसा पर तो प्रसन्न हो ही नही सकती क्योंकि जैसे महिलाओं को लग रहा है कि उनके विरोध में लिखा गया लेख है वैसे ही पुरुषों को उनके समर्थन में लग रहा होगा...!

लेकिन आज तो मैं अर्जुन सी हो गई हूँ हर विरोधी खेमे में सब अपने ही खड़े हैं..... रचना जी... इनकी भी मैं कायल ही हूँ....! जैसा कि आपने कहा तो अविवाहित मैं भी हूँ...! यदि पूरक से अर्थ पति का है तो आवश्यकता मुझे भी नही लगती...लेकिन भाई, पिता, मित्र के रूप में कोई न कोई तो साथ है ही....! हाँ ये बात कि दोनो को दो रूप में लिया जाता है.. वो कहीं गलत ज़रूर है लेकिन अविवाहित होने पर जितनी छीटाकशी जयललिता को मिलती है..उतनी ही अटल जी को भी मिलती है..!

नीरज गोस्वामी said...

कंचन जी
"क्यो न हम पुरुषों की ताकत और नारी की संवेदान को मिला कर बनाएं एक अच्छा घर...फिर एक अच्छा समाज..फिर एक अच्छा ....फिर एक अच्छा राष्ट्र और फिर एक अच्छा विश्व.....क्यो नही..?"
बहुत शाश्वत प्रशन उठाया है आपने...इसका जवाब नकारात्मक हो ही नहीं सकता..बहुत सारगर्भित लेख लिखा है आपने. साधुवाद. मेरा निवेदन है की आप दूसरों की टिप्पणियों से आहत न हुआ करें , जरूरी नहीं होता की हमारे विचारों से किसी दूसरे के विचार मिले ही और न ही हमें अपने विचारों से सहमत होने के लिए किसी से अपेक्षा करनी चाहिए. आप ये मान के चलें की आप ने जो लिखा है वो ही सही है उसके लिए किसी को भी स्पष्टीकरण देने की ज़रूरत नहीं .
पुनश्चः :
आप का मेरे ब्लॉग पर आने और ग़ज़ल पसंद करने का तहे दिल से शुक्रिया.
नीरज

राकेश जैन said...

Di,

Bahut zururat thi is script ki...

apke upar jo tippadi nari jagat ki hi kisi vidushi ne kee, wah bhi is andaz me sarthak thi ki, nari- hi nari ke ade aa jati hai..apne unka pratiuttr jis andaz me likha hai usme satyagrah hai par yahan satyagrah ki avasyakta nahi thi, ye khula manch hai, ap ko bhi utni hi talkhi se likhna hoga jis talkhi se arop aap par prekshepit hua hai. Namrta humara swabhav hai par jhukna humari niyati nahi hai khas tab jab hum ghalat na hon..aur agar apni bhavnaon ke upar dusro ke parde hi dalne hain to vimarsh ke uprant hi chize is manch tak aa payengi.apke apne vichar khone lagenge ya badla jayenge... ..apne jo bhi likha wo shat pratishat shuddh aur sarthak pahal hai..ab agr is par bhi santvana ki vajah chheente pade to is grahya patrya ka durbhagya samjhe apni koi truti nahi... All the best...

रश्मि प्रभा... said...

काश!ऐसा हो.....सोच में दम है,पर काश!