कमरे में घुसते हुए मैने पिंटू से आदेशात्मक स्वर में कहा,"बाहर निकलो मूझे काम है"... वो अपनी कॉपी किताबें समेटने लगा..."अरे ये सब बाद में कर लेना" मैने कहा तो अब उसे बाहर निकलना ही था। उसके निकलने के बाद मैं अलमारी से कपड़े निकाल कर बेड की तरफ मुड़ी तो देखा कि रज़िस्टर के पन्ने पर कुछ लिखा हुआ है, ये आज कौन सी पढ़ाई कर रहा है, देखने के लिये मैने कॉपी उठाई तो लिखा पायाटूटती शाख का एक हिस्सा हूँ, क्यों लिपटती है भला तू मुझसे,
कब गिरा देगी मुझको तेज़ हवा और बिछड़ जाऊँगा मैं खुद मुझसे।
बड़ा अच्छा सा लगा लेकिन आगे की लाइनें कुछ बेतरतीब सी थीं जो रिदम में नही आ रही थीं। ये अक्सर होता है उसके साथ, भाव तो अच्छे होते हैं लेकिन लय नही बन पाती... पर पहली पंक्ति मुझे इतनी छू रही थी कि मैं इसे अधूरा नही देखना चाह रही थी, मैने पास रखी पेन उठाई, थोड़ा सा दिमाग पिंटू की सोच की तरफ घुमाया कि किन भावनाओं के तहत उसने ये लिखा होगा और लिखने लगी.... विश्वास मानिये २० मिनट बाद जब मैने दरवाज़ा खोला तो कविता पूरी हो गई थी, ऐसा कम ही हो पाता है मेरे साथ लेकिन इस कविता के साथ ऐसा ही हुआ है कि मैने दूसरे के मन की बात उसे समझते हुए लिखने की कोशिश की है, मुझसे अधिक खुश तो पिंटू हुआ.... कविता आपके सामने है...
टूटती शाख का एक हिस्सा हूँ,
क्यों लिपटती है भला तू मुझसे,
कब गिरा देगी मुझको तेज़ हवा,
और बिछड़ जाऊँगा मैं खुद मुझसे।
और तू एक लता नाज़ुक सी,
कैसे मैं तेरा वो दरख़्त बनूँ,
जो सहारा दे तुझको बाँहों का,
और ले ले तेरी वफ़ा तुझसे।
चाहता मैं भी हूँ कि बाँहें तेरी,
सदा गले का मेरे हार बने,
मेरा सीना हो और तेरा सिर हो,
ये शमा रोज़ बार बार बने।
मै भी तो इतने दिन से तन्हा था,
खड़ा अकेला था इस जंगल में,
सोंचता था कि कोई अपना हो,
जो बाँध लेता मुझे बंधन में।
जब ये होता था तब नही थे तुम,
आज तुम हो तो पास वक़्त नही
आज जंगल को भला कौन कहे,
पास मेरे मेरा दरख़्त नही।
आज है पास मेरे आँधी ये,
जो अमादा है तोड़ने पे मुझे,
और नज़रों के सामने तू है,
जो टूटने भी नही देती मुझे!
मुझे गिरने दे तू सलामत रह,
लिपटना छोड़ परे हट मुझसे,
अगर फिर कोई कलम बन के फिर दरख़्त बना
ज़रूर आ के मिलूँगा तुझसे
आज लेकिन लिपट न तू मुझसे!
आज लेकिन लिपट न तू मुझसे!!
कब गिरा देगी मुझको तेज़ हवा और बिछड़ जाऊँगा मैं खुद मुझसे।
बड़ा अच्छा सा लगा लेकिन आगे की लाइनें कुछ बेतरतीब सी थीं जो रिदम में नही आ रही थीं। ये अक्सर होता है उसके साथ, भाव तो अच्छे होते हैं लेकिन लय नही बन पाती... पर पहली पंक्ति मुझे इतनी छू रही थी कि मैं इसे अधूरा नही देखना चाह रही थी, मैने पास रखी पेन उठाई, थोड़ा सा दिमाग पिंटू की सोच की तरफ घुमाया कि किन भावनाओं के तहत उसने ये लिखा होगा और लिखने लगी.... विश्वास मानिये २० मिनट बाद जब मैने दरवाज़ा खोला तो कविता पूरी हो गई थी, ऐसा कम ही हो पाता है मेरे साथ लेकिन इस कविता के साथ ऐसा ही हुआ है कि मैने दूसरे के मन की बात उसे समझते हुए लिखने की कोशिश की है, मुझसे अधिक खुश तो पिंटू हुआ.... कविता आपके सामने है...
टूटती शाख का एक हिस्सा हूँ,
क्यों लिपटती है भला तू मुझसे,
कब गिरा देगी मुझको तेज़ हवा,
और बिछड़ जाऊँगा मैं खुद मुझसे।
और तू एक लता नाज़ुक सी,
कैसे मैं तेरा वो दरख़्त बनूँ,
जो सहारा दे तुझको बाँहों का,
और ले ले तेरी वफ़ा तुझसे।
चाहता मैं भी हूँ कि बाँहें तेरी,
सदा गले का मेरे हार बने,
मेरा सीना हो और तेरा सिर हो,
ये शमा रोज़ बार बार बने।
मै भी तो इतने दिन से तन्हा था,
खड़ा अकेला था इस जंगल में,
सोंचता था कि कोई अपना हो,
जो बाँध लेता मुझे बंधन में।
जब ये होता था तब नही थे तुम,
आज तुम हो तो पास वक़्त नही
आज जंगल को भला कौन कहे,
पास मेरे मेरा दरख़्त नही।
आज है पास मेरे आँधी ये,
जो अमादा है तोड़ने पे मुझे,
और नज़रों के सामने तू है,
जो टूटने भी नही देती मुझे!
मुझे गिरने दे तू सलामत रह,
लिपटना छोड़ परे हट मुझसे,
अगर फिर कोई कलम बन के फिर दरख़्त बना
ज़रूर आ के मिलूँगा तुझसे
आज लेकिन लिपट न तू मुझसे!
आज लेकिन लिपट न तू मुझसे!!
7 comments:
सुन्दर और उम्दा ख्याल...इन्हीं रास्तों पर कभी मैने लिखने का प्रयास किया था:
मेरा वजूद
मेरा वजूद
एक सूखा दरख्त
तू
मेरा सहारा ना ले.
मेरे
नसीब मे तो
एक दिन गिर
जाना है
मगर
मै
तुझको गिरते
नहीं देख सकता,
प्रिये.
---समीर लाल
--अच्छा लगा पढ़कर.
पिंटू तो बहुत अच्छा सोचता है। उसकी चार पंक्तियों में आपका हाथ लगने से यह कविता वाकई में अच्छी बन पड़ी है। निम्न पंक्तियां मुझे विशेष तौर पर पसंद आईं....
आज जंगल को भला कौन कहे,
पास मेरे मेरा दरख़्त नही।
आज है पास मेरे आँधी ये,
जो अमादा है तोड़ने पे मुझे,
और नज़रों के सामने तू है,
जो टूटने भी नही देती मुझे!
बहुत अच्छी तरह आगे बढ़ा कर पूर्ण किया है आपने इस कविता को !
पर लगता है आपके सानिध्य का असर पिंटू पर भी पड़ रहा है। :)
ज्यादा गहराई से लिखी कविता है। पसंद आई।
क्या बात है समीर जी! खूबसूरत! बहुत ही सुंदर! इतनी बड़ाई इसलिये भी कर रही हूँ कि शुक्र है कि आपने मेरि मौलिकता पर प्रश्नचिह्न नही लगाया, वर्ना तो अभी हम सफाई ही दे रहे होते!
रवींन्द्र जी एवं अतुल जी धन्यवाद!
धन्यवाद मनीष जी लेकिन ऐसा कुछ नही है कि मेरे सान्निध्य ने कुछ किया है, ये कीड़े उसमें प्राकृतिक रूप से हैं, हाँ बहुत अधिक विकसित नही हो पाए हैं।
टूटती शाख का एक हिस्सा हूँ, क्यों लिपटती है भला तू मुझसे,
कब गिरा देगी मुझको तेज़ हवा और बिछड़ जाऊँगा मैं खुद मुझसे।
वाह वाह वाह वाह
कंचन जी ,बहुत ही ख़ूबसूरत है आपका अंदाज़े बयाँ ...बहुत ही अच्छा लगा आपको पढना ....जल्दी ही फिर आना होगा ...आपका भी हमारे चिटठा पे स्वागत है ,
likhte rahe kanchan ji.bahut achha likhne ke lie tnirantarta jaruri hai.
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