Tuesday, October 9, 2007

फिर कही हमराज बनने का मेरे दावा करो तुम।


पंद्रह वर्ष की अवस्था में लिखी गई मेरी यह कविता मेरी पहली कविता तो नही है लेकिन कुछ मायनो में यह मुझे अपनी पहली ही कविता लगती है, इससे पहले की कविताएं यदि घर‌-परिवार या सामाजिक विषयों पर नही होती थी और कविता लिखने का आवेग आ ही जाता था तो किसी पुराने पन्ने पर लिख कर कही छुपा दी जाती थी और दो चार बार पढ़ कर फाड़ दी जाती थी, इस डर से कि बड़े लोग जो कि मेरी दूसरी कविताओं की पुरजोर प्रशंसा करते थे, वे क्या सोचेंगे मेरे विषय में कि मैने किसके लिये लिखी है ये कविता.....? बहुत से प्रश्न जिनका मेरे पास कोई उत्तर नही था आ जाएंगे और मै कटघरे मे खड़ी हो जाऊँगी।

इन्ही परिस्थितियों मे मुझे मेरी दीदी ने एक डायरी दी, यह कहते हुए कि तुम इसमें अपनी कविताएं लिखा करना और मैने डरते डरते उसके पहले पन्ने पर ये कविता लिख दी, बहुत दिनों तक प्रतीक्षा करती रही कि अब शायद डाँट पड़ेगी... अब शायद मुकदमा चलेगा.....! लेकिन किसी ने बहुत अधिक ध्यान ही नही दिया। और मेरी डायरी के पन्ने भरते चले गये.....! वो मुकदमा मुझ पर आज भी नही चला....!

ये कविता मैने जब लिखी तब मेरे बाबू जी जिनसे मैं जीवन में सबसे अधिक जुड़ी हुई थी का आकस्मिक निधन हो गया था teen age वैसे भी बहुत सारे बदलाव ले कर आती है और मेरी जिंदगी में वो कुछ अधिक ही बदलाव ले कर आई थी। ऐसे में जब मैं दिन रात दुःखी रहती थी, मुझे कक्षा की सबसे अधिक खुश रहने वाली लड़की माना जाता था.......... और मेरे मन में यही आता था कि........


खिलखिलाहट की सुबह में ढूँढ़ लो अश्कों की शबनम,
फिर कही हमराज बनने का मेरे दावा करो तुम।

आज मेरी मुस्कुराहट ने तुम्हें मोहित किया है,
मोतियों से दंत की आभा ने आकर्षित किया है,
गौर से देखो ज़रा इन चक्षुओं को किन्तु मेरे,
वेदना की ज्योति ने ही यूँ इन्हे दीपित किया है ।

ढूँढ़ लो मेरे नयन में उस छिपी सी इक अवलि को,
उस दिवस से दम भरो फिर मित्र बनने का मेरे तुम ।।

संग मेरे मुस्कुराने को मुझे लाखों मिलेंगे,
सुख मेरे सारे बँटाने को मुझे लाखों मिलेंगे।
गाऊँगी मेहफिल में जब मैं गीत इक रोमांचकारी,
संग मेरे गुनगुनाने को मुझे लाखों मिलेंगे।

जिंदगी की क्रूरता छूते हुए नग्मे को मेरे,
शांत से वातावरण में गुनगुना हमदम बनो तुम ।।


लोग कहते हैं कि वो जब मुस्कुराये अश्रु निकले,
हम तो तब तब मुस्कुराये, जब भी अपने अश्रु निकले।
और उस मेहफिल में जा के तब ही हमने गीत गाये,
जब अकेले में हुआ महसूस कि अब अश्रु निकले।

बाँध रखा हे कई वर्षों से हमने अश्रु-सरि को,
टूटने पर बाँध के, गर भीग लो तो संग चलो तुम़ ।।


तुम गये कल बाग में जिस हम भी उस बगिया में थे,
तुम हुए कोयल से आकर्षित और हम पपिहा से थे।
नापते थे तुम तरंगों की उँचाई उस दिवस,
जिस दिवस हा मग्न हो, गहराइयों को मापते थे।

हैं मुझे सहने हमेशा, वक्त के ज़ालिम थपेड़े,
साथ रह कर तुम भी उनको सह सको तो संग चलो तुम।।

अश्रु इतने मिल गये कि खिलखिला कर हँस दिये हम,
दाग इतने मिल गये बेदाग जिनसे हो गये हम़
मिल गये आनंद के विलोम हम में हाय जबसे,
क्या कहे आनंद का पर्याय तब से हो गये हम।

इस विरोधाभास को सुन खिलखिला कर हँसने वाले,
खाक समझोगे मेरे अंदर छुपे जज़्बात को तुम।।

11 comments:

परमजीत सिहँ बाली said...

कंचन जी,सब से पहले तो आप की टिप्पणी के लिए धन्यवाद। उसी लिकं से मै यहाँ पहुँचा और एक कवित्री की बढिया रचना पढ़ने को मिल गई। आप के बारे में उपर लिखी बातों को पढ कर सच मुच दुख हुआ। पिता का हाथ जब सिर से हटता है तो कैसा महसूस होता है ,यह मै भी जानता हूँ। इसे मै भी भोग चुका हूँ।लेकिन होनी को कोई नही टाल सकता।
आप की रचना बेहद पसंद आई\खास कर ये पंक्तियाँ-

अश्रु इतने मिल गये कि खिलखिला कर हँस दिये हम,
दाग इतने मिल गये बेदाग जिनसे हो गये हम़
मिल गये आनंद के विलोम हम में हाय जबसे,
क्या कहे आनंद का पर्याय तब से हो गये हम।

Anil Arya said...

बहुत सुंदर रचना...

हैं मुझे सहने हमेशा, वक्त के ज़ालिम थपेड़े,
रह कर तुम भी उनको सह सको तो संग चलो तुम....

aarsee said...

ये नर्म से ज़ज़्बात दिल में चुभ गये!
सच इन्सान कितना अकेला है!

Udan Tashtari said...

बहुत ही सुन्दर रचना है. बहुत अच्छा लगा इसे पढ़ना:

अश्रु इतने मिल गये कि खिलखिला कर हँस दिये हम,
दाग इतने मिल गये बेदाग जिनसे हो गये हम़
मिल गये आनंद के विलोम हम में हाय जबसे,
क्या कहे आनंद का पर्याय तब से हो गये हम।

इस विरोधाभास को सुन खिलखिला कर हँसने वाले,
खाक समझोगे मेरे अंदर छुपे जज़्बात को तुम।।

-वाह, बहुत खूब.

Manish Kumar said...

कविता की आरंभिक दो पंक्तियाँ और फिर आखिरी पैरा तो इतना अच्छा हे कि आज भी गर आपने लिखा होता तो दाद के काबिल होता...ये सब सिर्फ १५ की उम्र में..क्या बात है!

कंचन सिंह चौहान said...

परमजीत जी! भावनाओं को समझने का शुक्रिया!

धन्यवाद अनिल जी!

प्रभाकर जी! कविता पर जब भी इतने खूबसूरत लब्ज़ों मे टिप्पणी मिलती है बहुत अच्छा लगता है! धन्यवाद !

मेरे गवाक्ष तक उड़न तश्तरी कि पहली उड़ान का स्वागत एवं धन्यवाद! प्रतीक्षा थी आपकी!

१५ की उम्र से लिखती या ५ से सब कुछ मेरी डायरी के पन्नों तक ही सीमित रहता यदि आप मार्गदर्शन ना करते! ससम्मान धन्यवाद !

Sharma ,Amit said...

अमूमन इन भावनाओं को शब्द देना आसान नही होता और उस पर इतने अच्छे से बयां करना आसान नही। बहुत ही सुंदर।

Sharma ,Amit said...

अमूमन इन भावनाओं को शब्द देना आसान नही होता और उस पर इतने अच्छे से बयां करना आसान नही। बहुत ही सुंदर।

Unknown said...

महज १५ बरस की उम्र में आप इतनी अच्छी रचनायें लिखती थीं यह जानकर और आपकी रचना पढ़कर बेहद सुखद अनुभूति हुई। अपेक्षा है कि आपकी अन्य पुरानी रचनायें भी पढ़ने को मिलेंगी। फिलहाल इस सुंदर सी रचना के लिये मेरी तरफ से बधाई।

कंचन सिंह चौहान said...

अमित जी एवं रवीन्द्र जी बहुत बहुत धन्यवाद! आप लोगो का इसी तरह सहयोग मिला तो गवाक्ष के पट खुलने से कैसे रुक सकते हैं।

मीनाक्षी said...

अश्रु इतने मिल गये कि खिलखिला कर हँस दिये हम,
--- बहुत मर्मस्पर्शी !