Friday, July 20, 2007

कुछ सत्य

सारा जीवन टिका हुआ है, बड़े खोखले खंभों से,
कब तक आखिर दिल बहलाएं हम बिंबों प्रतिबिंबों से।

मन तो करता है कि हम भी कुछ परसेवा कर जाएं,
समय नही मिल पाता है बस अपने झूठे दंभों से।

घटती जाती मानव संख्या, जनसंख्या बढ़ती जाती,
जनजीवन में उथल पुथल है, इन्ही चंद हड़कंपों से।

दर्द दिया जिसने जिसने भी, वो सब थे हमदर्द मेरे,
हमने बड़ी ठोकरें पाईं जीवन के अवलंबों से।

पीर पराई राई जैसी, दर्द हमारा पर्वत सा,
सबको अपना दर्द लगे है गहरा दूजे ज़ख्मों से।

कौन पराए आँसू पोंछे, कौन बँटाए दर्द भला,
किसे यहाँ छुट्टी मिलती है अपने गोरखधंधों से।

राम बने तो वन वन भटके, कृष्ण बने रणछोड़ हुए,
ईश्वर भी तो बच न पाया, जीवन के संघर्षों से।

प्रगतिवाद के मूल्य और हैं, इस मन की कुछ रीत है और,
हमको नित लड़ना पड़ता है अपने ही आदर्शों से।

6 comments:

अनुनाद सिंह said...

अति सुन्दर!

भाव-सौन्दर्य के साथ-साथ शब्द-सौन्दर्य भी भरपूर है।

Rachna Singh said...

सारा जीवन टिका हुआ है, बड़े खोखले खंभों से,
कब तक आखिर दिल बहलाएं हम बिंबों प्रतिबिंबों से।

अति सुन्दर है।

Manish Kumar said...

राम बने तो वन वन भटके, कृष्ण बने रणछोड़ हुए,
ईश्वर भी तो बच न पाया, जीवन के संघर्षों से।
बहुत खूब !


पीर पराई राई जैसी, दर्द हमारा पर्वत सा,
सबको अपना दर्द लगे है गहरा दूजे ज़ख्मों से।


ये पंक्तियाँ सबसे अच्छी लगीं।

घटती जाती मानव संख्या, जनसंख्या बढ़ती जाती,
जनजीवन में उथल पुथल है, इन्ही चंद हड़कंपों से।

हड़कंप वाली पंक्ति मन को भा नहीं पाई।

बाकी तो अच्छा लिखा ही है

कंचन सिंह चौहान said...

अनुनाद जी एवं रचना जी, धन्यवाद! मनीष जी बहुत अच्छी लगी आपकी स्पष्ट राय, कृपया इतनी ही पारदर्शिता बनाये रखें

Unknown said...

दर्द दिया जिसने जिसने भी, वो सब थे हमदर्द मेरे,हमने बड़ी ठोकरें पाईं जीवन के अवलंबों से।
---ये पंक्तियाँ विशेष अच्छी लगीं। एक और अच्छी रचना के लिये बधाई।

कंचन सिंह चौहान said...

धन्यवाद राजीव जी