एक शख्स की मौत हुई थी, सारी दुनिया की खातिर,
लेकिन कुछ लोगो की दुनिया, उससे बसती थी आखिर |
आसमान रोया है तो, धरती का मान क्यों भीगा है,
इतने दूर बसे लोगों को, कौन जोड़ता है आखिर ?
पता तुम्हारा पूँछ रहे हैं, बस ये पता लगाने को,
मेरी आह निकलती है तो कहाँ पहुँचती है आखिर ?
कौन कह रहा हर मिट्टी को, मिल जाते हैं काँधे चार,
लावारिस बैरक में इतनी लाशें सड़ती क्यों आखिर ?
किसकी रातें फिर तन्हा हैं ? मेरी नींद उड़ी है क्यों ?
बिना छुए, दिल के तारों को कौन छेड़ता है आखिर ?
वैलेंटाइन डे का, सेलीब्रेशन था इक होटल में,
बाहर श्यामू रोटी ढूँढ़े, अपनी रधिया की खातिर !
तुम चाहो तो झूठ समझ लो, मेरी तो सच्चाई है,
हमको नित मरना पड़ता है, जिन्दा रहने की खातिर|
13 comments:
बहुत सुन्दर लिखा है कंचन जी,
पता तुम्हारा पूँछ रहे हैं, बस ये पता लगाने को,
मेरी आह निकलती है तो कहाँ पहुँचती है आखिर ?
आह में क्या है असर सब जानते हैं. सच है जिन्दा रहने के लिये बहुत बडी कीमत चुकानी पडती है.
मोहिंदर जी! मेरी पूरी कविता से भी सुंदर आपकी टिप्पणी की अंतिम पंक्ति हैं! इतनी सुंदरता से प्रोत्साहित करने के लिये धन्यवाद !
बढ़िया!!
पहली बार देखी आपकी कविताएं, अच्छा लिखती हैं आप, बधाई स्वीकार करें!!
man ko cho jati hain aapki rachnayein , humesha hi ..
बहुत सुंदर कविता है, हृदय को छू जाने वाली।
हमको नित 'मरना' पड़ता है, 'जिन्दा' रहने की खातिर।'
'विरोधाभास' का सुंदर प्रयोग है।
मनीष जी एवं मोहिन्दर जी बहुत बहुत धन्यवाद
कंचन जी आज शास्त्री जी के चिट्ठे से आपके चिट्ठे तक आ ही गये...बहुत ही सुन्दर विचारो से ओत-प्रोत रचना है...सचमुच अच्छा लिखती है आप...:)
सुनीता(शानू)
सुनीता जी! मेरे गवाक्ष की तरफ आने का धन्यवाद, बड़े दिनो से प्रतीक्षा थी आपकी!
तुम चाहो तो झूठ समझ लो, मेरी तो सच्चाई है,
हमको नित मरना पड़ता है, जिन्दा रहने की खातिर|
सच, दिल को छू गई आपकी ये कविता। बहुत अच्छा लिखा है। बधाई स्वीकार करें।
कंचन जी सारथी के जरिये आपको पढ़ा। इतनी सुंदर रचना के लिये बहुत-बहुत बधाई।
सुन्दर रचना ! सारथी के माध्यम से पहली बार आपको पढ़ रहे है और अब आगे भी पढ़ते रहेंगे।
रवीन्द्र रंजन जी, भावना जी, एवं ममता जी! उत्साह वर्द्धन के लिये धन्यवाद! उम्मीद है कि आगे भी प्रोत्साहन मिलता रहेगा।
सारथी को विशेष धन्यवाद जिसके माध्यम से कविता एक साथ इतने लोगों तक पहुँची!
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