Wednesday, January 21, 2015

आज तुम्हारे ना आने से...

45 दिन का प्लास्टर चढ़ाया था डॉ ने. मैंने 45x60x60 कर के सारे दिनों को सेकंडों में बदल दिया था. थोड़ी थोड़ी देर में उन ढेर सारे सेकंड्स में कुछ सेकंड्स कम कर के सोचती, बस अब इतने ही बचे. प्लास्टर कटा, और जब कैलीपर्स लगने के बाद चलना हुआ तो जब तक दीदी रहती, मैं चलती जैसे ही दीदी छोडती, मुझे लगता मैं गिर जाऊँगी और मैं रुक जाती. दीदी फिर चलातीं और हिम्मत देतीं, “नहीं गिरोगी”. मैं फिर चलती और फिर जब दीदी छोड़ देतीं तब फिर रुक जाती. दीदी मुझे छोड़ कर थोड़ी से दूरी बना कर खड़ी हो गयीं, “अच्छा तुम खुद से चलो, अगर गिरोगी भी, तो हम हैं.” मैंने बहुत कोशिश की लेकिन मेरे कदम उठे ही नहीं.

13-14 साल पहले कब चली थी, यह तो वही लोग जानते थे, जिन्होंने देखा था. मुझे तो नहीं याद था ना कि कैसे चला जाता है ? मैं तो लड़खड़ाते बच्चे की तरह पहली बात चल रही थी. दीदी घंटों कोशिश करती रही,लेकिन जैसे हो वह मुझे छोड़ती, मैं हिम्मत छोड़ देती.आख़िर दीदी की ही हिम्मत जवाब दे गयी. उन्होंने बस इतना कहा “ तुम मेरी सारी मेहनत बेकार कर दोगी लगता है” कहते हुए उनकी आँख गीलीं हो गयी और खुद को सँभालते हुए वह मुझे छोड़ कर किचेन में चली गयी. हारी हुई सी बरतन माँजने लगी.

दीदी का डाँटना उतना नहीं डराता था, जितना उनका चुप होना. मैं क्या करती ? चलना तो मैं भी चाहती थी न ! लेकिन दीदी समझती नहीं, एक कदम आगे बढाया नहीं कि मुँह के बल गिर जाऊँगी. मैं वहीँ खड़ी रही. दीदी नहीं लौटी. मैंने धीरे से स्टिक पर जोर दिया और एक कदम उठाया, मैं नहीं गिरी, फिर दूसरी स्टिक पर ज़ोर डाला और दूसरा कदम उठाया. मैं अपनी जगह  एक कदम आगे आ चुकी थी... ओह्ह मैंने फिर ज़ोर डाला, मैं थोडा और आगे आ गयी... मैं चीख पड़ी “दीदी ! जल्दी आओ, देखो हम चलने लगे.” दीदी दौड़ कर आ गयी. “ये देखो, चलने लगे हम” दीदी कमरे के दरवाजे पर खड़ी होंठ से मुस्कुरा रही थी और आँख से रो रही थी. मैं चलती जा रही थी, पूरे कमरे का एक चक्कर, दो चक्कर.

फिर जब स्कूटी चलाने की प्रैक्टिस करनी हुई तब लड़ती भिड़ती स्कूटी के पीछे बैठी रहती. मान लो कहीं गिर जाओ तो उठायेगा कौन ?

और फिर एक दिन कहा, “ तुम बिलकुल परेशान न होना. तुमको जितना साथ चाहिए था मिल गया. अब तुम खुद कर सकती हो सब. तुम बहुत ऊंचाइयों पर जाना. तुम्हे बहुत आगे जाना है.”
मैंने कहा,”हम तुम्हारे बिना नहीं चल पाएंगे दीदी. तुम मेरी बैसाखी हो.”
उन्होंने कहा, “नहीं तुम सब कर लोगी. तुम बिलकुल उदास मत होना, ऐसे तो तुम मेरी सारी मेहनत बेकार कर दोगी.”


फिर एक हफ्ते या दस दी बाद वो चली गयी, मैं बहुत देर तक रुकी रही. दीदी नहीं लौटी. मैंने कहा न दीदी का डांटना उतना नहीं अखरता जितना उसका चुप होना. मैंने हिम्मत कर के एक कदम उठाया, फिर दूसरा... मैं कहती हूँ कि तुम्हारी मेहनत बर्बाद नहीं कर रही, देखो मैं चलने लगी हूँ. मैं चलती जा रही हूँ. एक चक्कर.. दो चक्कर... ! कोई तो दौड़ कर आये और होंठों से मुस्कुरा कर आँख से रोने लेगे....!!

5 comments:

निर्मला कपिला said...

हमें भी रुलायोगी?

निर्मला कपिला said...

हमें भी रुलायोगी?

Shekhar Suman said...

सच में रुलाईएगा क्या ?? :(

Ankit said...

आज भी दीदी कोने में खड़े आपको देखकर मुस्कुरा रही है और अब उनकी आँखों से आँसू नहीं ख़ुशी झर रही है कि कैसे आप उन उंचाइयों की तरफ बढ़ रही हो जिनका पहला सपना उन्होंने संजोया था।

Abhishek Ojha said...

...