यूनुस
जी की फेसबुक पोस्ट पर पढ़ा आज विविध भारती का जन्म दिन है।
हमारे
जाने की तैयारी में जो माँ ने दिया उससे इतर मेरी एक ही माँग थी। एक टू इन वन। जिसमें
विविध भारती सुना जा सके।
जब
से होश सभाला, माँ को जाना, बाबूजी को जाना, घर को जाना, तब से जाना विविध भारती को।
घर में एक बड़ा सा रेडियो आ चुका था। सुना बड़े भईया को दहेज के साथ मिला था। वो सुबह
भाभी के साथ किचेन में पाया जाता। दोपहर में बाउंड्री में। रात में पिता जी के साथ
होता था़ समाचार बाँचता हुआ।
मेरी
सुबह ढेर सारा दर्द देने वाली एक्सरसाइज़ से होती। नाश्ता करते समय सुनाई देता
"मैं अपने खून से आसमाँ को रंग दूँगा, क्रांति लिख दूँगा। क्राऽऽऽतिऽऽऽ"
ये सबसे पुरानी याद है विविध भारती की।
माँ
स्कूल जाने को तैयार हो रही होतीं, बाबूजी और दो भईया लोग आफिस, रसोई से आँगन तक दो
भाभियाँ और दीदियाँ चहल कदमी कर रही होतीं। नाश्ता बनाती, टिफिन पैक करती। माँ का सामान
जगह पर रखती, बाबूजी का पीढ़ा रखती। और पीछे से जाने कौन सुन रहा होता। संगीत सरिता,
भूले बिसरे गीत, चित्रलोक।
स्कूल
देर से जाना हुआ। चौथी कक्षा से। अब जब व्यक्तित्व निर्माण में अंजाने ही कोई आपका
रोलमॉडल बन जाता है, तब मेरे रोलमॉडल का सबसे प्रिय साथ था, विविध भारती।
अब
उसका क़फस छोटा हो गया था। छोटे भईया ने अप्रेंटिस से बचा कर मेरी रोलमॉडल, को वो रेडियो
ला कर दिया था।
स्कूल
जा रही होती, तो चट पट तैयार कर रहे हाथों, चाय के साथ रोटी दे रहे चिमटे और बस्ते
में टिफिन रख रहे हाथों के पीछे भूले बिसरे गीत बज रहा होता। स्कूल से लौट कर आती,
तो मेरी रोल मॉडल गुसलखाने मे अपने उसी साथी को ताखे पर रख कपड़े धुल रही होती। उसका
साथी उसे मनचाहे गीत सुना रहा होता।
घेर
में सबसे पीछे था गुसलखाना और गेट पर डाकिया मनी आर्डर, रजिस्ट्री, लेकर भड़भड़ भड़भड़
करता रहा जाता। मन चाहे गीत के आगे वो आवाज़ कहाँ सुनाई देती। कभी कभी कोई मेहमान भी....!!
अम्मा स्कूळ से लौट कर आतीं, जान पातीं कि आज फिर फलाँ आदमी वापस हो गया गेट से और
आग बबूला हो जातीं। शरमायी दीदी, सहमी दीदी। अम्मा का नाश्ता तैयार करने में जुटी होती।
शाम
को मेरा होमवर्क और उनके साथी का जयमाला।
रात
में उनका सहलाती, एड़ी दबाती हुई मेरे स्कूल की कथा गाथाएं और उनके साथी का छायागीत।
सुबह से काम में लगी वो जाने कब सो गयी होती। मैं गुस्सा हो कर बगल में लेट जाती और
रात बिरात आँखें खुलने पर सुनाई देता कि वो साथी भी बोल बोल कर हार चुका और अब घर्रर्रर्र
की आवाज़ आ रहौ होती शायद वो खर्राटें लेता था। मैं कुहनी मार कर बताती। तो पहिये सी
स्विच से उसे शांत किया जाता। कभी कभी तो सोने में हाथ लगता और वो बिस्तर के नीचे।
दो खानों मे बँटा हुआ....! डर के संभाला जाता। झट से बजा कर देखा जाता, वो भी एक बेशरम,
बज पड़ता और मेरी रोलमॉडल के चेहरे पर हँसी....!!
मेरी
टीन एज आई और दीदी विदा हो गयीं। उनके रिश्ते, नाते, चिट्ठियों वाली पोटली, ज्वेलरी
बॉक्स, लंबे लंबे सूट, डायरी सब मेरी अनकही विरासत में आ गये। उनका साथी भी, अब वो
मेरे साथ होता गुसलखाने में कपड़े धोते समय।
ऊबती
दोपहरों में मनचाहे गीत सुनाता। दीदी ने एक रूलदार कॉपी में १० १५ गाने लिखे होंगे।
मैने चार डायरियाँ भरी थीं। विविध भारती से सुने गानो से। बुझी बत्ती में कान के पास
चलता छायागीत। तब दिमाग का मेमोरी कार्ड भरा नही था। अँधेरे में सुनायी देता वो मनपसंद
गीत, हर अंतरे के साथ दिमाग में फीड हो जाता। सुबह समय मिलते ही डायरी में दर्ज़ और
फ्री पीरियड में सहेलियों के साथ गुनगुनाहट।
एम०ए०
कंप्लीट हुआ और मेरे पैर का आपरेशन हुआ। कॉर्बन रिंग्स पड़ी थीं। दर्द से रिश्ता पुराना
था। लेकिन उतना दर्द कभी नही झेला था। मैने लिखा
"छत
की ईँटे कम पड़ती हैं, रातें लंबी होती हैं, सोने वालों तुम क्या जानो, ये बातें क्या
होती हैं।"
रात
भर दर्द, नींद का नाम नही। उस कमरे प्लास्टर नही हुआ था। यहाँ से वहाँ, तक की ईँटे
गिन जाती थी और फिर से शूरू करती थी।
दीदी
की एक सहेली ढेर सारी किताबें दे जातीं और भइया ले आये थे नया रेडियो। ढेर सारे बैंड
वाला। क़फस और अधिक कॉपैक्ट था इस बार। और जाने कितने बैंड थे उसमें।
मैं,
दर्द, दवा, छत की ईँटे, नयी दोस्त किताबें और पुराना साथी विविध भारती।
वहाँ
से निकली तो कंपटीशन की तैयारी में जुट गई। ढेर ढेर किताबे और उनके बीच विविध भारती़।
पढ़ते पढ़ते थक जाती, तो उस साथी की सुन लेती और फिर से रिचार्ज हो कर लग जाती अपने लक्ष्य
की ओर।
इस
बीच लड्डूलाल जी से इश्क़ भी हो चुका था। लड्डूलाल जी तीसरा इश्क़ थे। उनसे पहले गोपालदास
नीरज और अटल जी के आशिक हो चुके थे हम। लड्डूलाल जी से आवाज़ का रिश्ता था। अपने खयालों
मे किसी ट्रेन में बैठी मैं (जबकि तब तक भूल भी चुकी थी कि ट्रेन कैसी होती है, सफर
ही कितना करना होता था और जो करना होता वो बस से करती, क्योंकि ट्रेन के प्लेटफॉर्म
में लिये सुविधाजनक नही थे।) सामने की सिट पर बैठे लड्डूलाल जी। वो कुछ बोलते और मैं पहचान जाती। मुग्ध सी पूछती
"आप लड्डूलाल जी हैं।"
वो मुस्कुरा कर अपनी दिल ले लेने वाली आवाज़ में कहते
"आपको कैसे पता।"
और मैं निहाल सी कहती
"आपकी आवाज़ कोई भूल सकता है क्या
?"
खैर
लड्डूलाल जी तो ना मिले आज तक। यूनुस जी मिल गये इसी ब्लॉगिंग के गलियारे में।
वो
भी दिन आया, जब कंपटीशन की किताबों ने हमें हमारी मंजिल तक पहुँचा दिया। लेकिन मंजिल
बड़ी दूर थी। घर से २००० किमी दूर। द्क्षिण भारत का एक क्षेत्र। कभी सोचा भी नही था।
सोचा क्या जाना ही नही था कि इसी देश के किसी भूभाग में भौगोलिक, सांस्कृतिक भिन्नता
ऐसी होगी कि हमें लगेगा कि हम विदेश आ गये।
आफिस
में दिन भर एकड़ा, वेकड़ा सुन कर थके कान २४ घंटे में तीन बार ही सही लेकिन अपनी भाषा
सुन पाते थे तो विविध भारती से। चित्रलोक उतना मोहक नही था। कुछ ही गाने रिपीट हो कर
सुनायी देते। लंच में चावल चढ़ा कर विविध भारती आन। शुक्र है तब हिंदी गाने सुनायी देते
और फिर एक बार रात को सोते समय। जब मन माँ, भईया, भाभी सहेलियों के साथ अपने घर में
होता तो कानों मे मिठास घोल रहा होता विविध भारती।
२००३ जनवरी में जब मैं वापस उत्तर प्रदेश लौटी, घर तो नही, घर के पास, लखनऊ में। तब विपुल के पास जो रेडियो था, उसमें विविध भारती नही था। एफएम....! मेरा रेडियो छूट गया। अब सुनने का कोई चाव नही था। लोगो के पास रिक्शे में, कार में, मोबाइल में हर जगह एफ०एम० था। बस विविध भारती नही था। मुझे अब कोई चार्म नही था रेडियो का। मोबाइल पे गाने सुने गये। रेडियो नही।
२००३ जनवरी में जब मैं वापस उत्तर प्रदेश लौटी, घर तो नही, घर के पास, लखनऊ में। तब विपुल के पास जो रेडियो था, उसमें विविध भारती नही था। एफएम....! मेरा रेडियो छूट गया। अब सुनने का कोई चाव नही था। लोगो के पास रिक्शे में, कार में, मोबाइल में हर जगह एफ०एम० था। बस विविध भारती नही था। मुझे अब कोई चार्म नही था रेडियो का। मोबाइल पे गाने सुने गये। रेडियो नही।
अभी
सिर्फ २ महीने पहले अचानक फिर मिल गया सर्च करते हुए विविध भारती। मेरे ही मोबाइल पर।
अब फिर से लंच मनचाहे गीत के साथ होता है। हाँ मगर शिकायत है उससे, वैसे ही जैसे हर
बिछड़े साथी से बहुत दिन बाद मिलने पर होती है। वक्त ने उसका भोलापन छीन लिया....!!
जन्मदिन
मुबारक़ दोस्त.....!!
9 comments:
बहुत प्यारी यादें कंचन। मज़ा आ गया।
चलो इस बहाने तुमने ब्लॉग पर फिर से रौनक ला दी।
ये बचपन की प्यारी यादें जो उजागर की तो कंचन तुमने तो बताती चलूँ उस समय की हर लड़की का यही दायरा होता था। तुम्हारी रोल मॉडल की तरह मैं कुछ भी करती हूँ , ट्रांजिस्टर साथ में रहता था। घर में बड़ी थी सो चलती थी अपनी घर में। पढाई भी उसके बिना नहीं होती थी और एक राज की बात बताऊँ , गानों के साथ शर्त भी चलती थी कि अगर इस प्रोग्राम में मेरी देखी हुई फ़िल्म का गाना सुनने को मिला गया तो मेरा ये काम हो जाएगा। यादों को इतने सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया कि इतना सारा बता दिया।
सुन्दर प्रस्तुति -
शुभकामनायें आदरणीया-
सूने में फूल खिले , खिलते रहें ...
बढ़िया याद दिलाया आपने..
वे जमाने और थे जब विविध भारती और बिनाका गीतमाला जीवन हुआ करता था। आपकी प्रस्तुति वे दिन खींच लाई।
मौन कभी कभी कितना निस्संग और निर्मम होता है हो सकता है काल चिंतन करता हो। कश्यप किशोर मिश्रा जी एक कहानी और है गुड़िया में गुड़िया की ज़ुबानी।
बहुत उम्दा!!
Wahhhhh....
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