Wednesday, March 23, 2011

कि मैने इतना नाटकीय जीवन कभी नही जिया था.....!!!


पिछले १० वर्षों से साथ रहने के बावज़ूद.... वो ये नही समझा कि ये परिवर्तन जो उसे सुखद लग रहे हैं, वो किसी की जीवंतता की समाप्ति का लक्षण है। उसे नही पता चल रहा कि उसके साथी ने इतना नाटकीय जीवन कभी नही जिया....!

कितना अजीब है ? कि वो समझ भी नही पा रहा कि ऐसा होना तितलियों के रंगीन परों को, जबर्दस्ती सफेद रंग में रंग देने जैसा है। चिड़ियों की चहचहाहट को आँख बंद कर उनींदा बना देने जैसा। चमेली की तेज खुशबू में, कमल की भीनी महक ढूँढ़ने जैसा.....!!

उसने ये तो देखा कि पिछले १ माह से वो उस पर झल्लाई नही, मगर उसने ये नही देखा कि पिछले एक माह से वो चलते फिरते उसके गालों को भी हिला के नही गई। उसने नही देखा कि अचानक आकर टी०वी० बंद करते हुए, वो साड़ी का पल्ला फैला के खड़ी भी नही हुई ये कहती हुई कि " इस साड़ी का आँचल एकदम डिफरेंट है ना ? " उसने नही देखा कि देर रात उसने अपनी फेवरिट आइसक्रीम खाने की ज़िद भी नही की पिछले एक महीने से। उसने नही देखा कि बिंदी अब हफ्तों तक नही बदली जाती माथे पर, लिप्स्टिक आजकल लगाई ही नही जाती और काजल को छुआ भी नही गया पिछले एक माह से। आफिस से आने के बाद पानी का गिलास दे कर उदास आँखों वाली मुस्कान ने पिछले एक महीने से देर से आने का कारण भी नही पूछा और न ही नाराज़ हो कर घर सिर पर उठाया। ध्यान ही नही दिया उसने कि काँधे पर आये हाथ के दो सेकंड बाद ही उसे कोई काम याद आ जाता है और वो उठ के चल देती है, बहुत देर तक वापस ना आने के लिये। न्यूज़ पेपर छीन कर फेंका नही गया, ज्यादा आयली खाने पर आँखें नही तरेरी गईं। प्राणायाम में बंद हुई आँखों को कोई चूम के नही गया.....

और उधर शांत बैठी वो सोच रही थी कि अब करना भी क्या है ? चिल्लाना, रूठना, चीजों को इन्वेस्टीगेट करना ... वो सब तो तब तक था, जब पता था कि तुम मेरे हो। अब.... जब तुम मेरे हो ही नही, अब जब मैने जान ही लिया कि तुम बँट चुके हो, तो तुम पर अधिकार क्या जताना। ये शांति नही, बेबसी थी। किसी अपने की मृत्यु की सूचना के बाद हाहाकार मचाते हुए बिलख बिलख रो लेने के बाद, हिचकियों को भी घोट देने जैसा। अपने ही कटे पैरों को देख कर, चिल्लाते हुए बार बार नज़र हटा लेने के बाद एक टक घूरते रहने जैसा। हड्डियों तक धँसे हुए दर्द का चीख चीख के प्रदर्शन करने के बाद होंठों पर दाँत रख के भींच लेने जैसा। बलात्कार में घोर विरोध से हाथ पैर चला कर नुचे हुए अंग प्रत्यंगो को देख, शिथिल पड़ जाने जैसा............!!!!

कि मैने इतना नाटकीय जीवन कभी नही जिया था.....!!!

28 comments:

डिम्पल मल्होत्रा said...

समझ में नहीं आ रहा क्या लिखूं..पढ़ के ढ़ेरों उदासी छा गयी...

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

ओह बहुत संवेदनशील ...अधिकार भावना ही जीवंत रखती है ...अच्छी कहानी ...यदि सच है तो बहुत मार्मिक

इस्मत ज़ैदी said...

कंचन ,तुम्हारी पोस्ट पढ़ूं और आँखें नम न हों ये असंभव सा हो गया है ,,,,कैसे लिखती हो इतना प्रभावशाली
पढ़ने के बाद बहुत देर तक ये पंक्तियां मन मस्तिष्क में आवा गमन करती रहती हैं
बहुत बढ़िया

बस्तर की अभिव्यक्ति जैसे कोई झरना said...

इश्वर न करे किसी की ज़िंदगी में इतनी धधक हो .......उदासी और गहन अवसाद से भर गया हूँ. आँखें नम हैं और अन्दर से प्रार्थना के सुर फूट रहे हैं कि अब किसी की ज़िंदगी में ऐसा न हो. मैं अनुमान कर सकता हूँ .....यह ज्वालामुखी के फूट कर अपने आसपास को तबाह कर देने वाली स्थिति से भी ज्यादा बुरी स्थिति है .......धधकती हुयी धरती ........जो फूट भी नहीं पा रही है ......बस गुमसुम धधके जा रही है .......
आपने जो शब्दचित्र खींचा है कंचन जी ......उसे पढ़कर बस महसूस किया जा सकता है और खामोश रहा जा सकता है.

अनूप शुक्ल said...

मार्मिक!का कहें और! :(

Archana Chaoji said...

जीवंतता की समाप्ति..........या ........नाटकीय़ जीवन की शुरूआत.....

रविकांत पाण्डेय said...

पोस्ट पर तो टिप्पणी करना बहुत मुश्किल है...पर हां दूसरा पक्ष भी अतिरिक्त ध्यान मांग रहा है क्योंकि सत्य जो दिखता है उससे परे भी हो सकता है। संभव है कि कोई अपने ही भीतर किसी अंश को मारकर हठात मुस्कुराते हुये धीरे-धीरे आपको तैयार कर रहा हो उस परिदृश्य के लिये जो उसे भविष्य के गर्भ से प्रकट होता हुआ दिख रहा हो-

मुझ में जलन है प्यास है,
रस का नहीं आभास है,
यह देख हँसती वल्लरी
हँसता निखिल आकाश है।
जग तो समझता है यही,
पाषाण में कुछ रस नहीं,
पर, गिरि-हृदय में क्या न
व्याकुल निर्झरों का वास है ?

कुश said...

एक और नया एंगल.. इतनी नेचुरल बात इस ब्लॉग पर कभी पहले नहीं मिली थी.. ज़िन्दगी की एक सच्चाई पर लिखावट जिसे देखने के लिए बहुत ही सूक्ष्म दृष्टि की जरुरत होती है.. आपकी दृष्टि उतनी बारीक चीजों को पकड़ने में सक्षम है.. इस बार नयापन तो था ही साथ में बाँध के रख देने वाले भाव भी थे.. एक सिहरा देने वाली घटनाये थी.. खासकर बलात्कार में विरोध करते हुए हाथ पैर चलाना..

एक और बात जो पसंद आयी वो ये कि कंधो पर हाथ ही कोई काम याद जाना..


Great Job..!!

कंचन सिंह चौहान said...

हकीकत तो ये है नही और कहानी के लिये कोई आदि अंत होना चाहिये

फिलहाल मैं साड़ी नही पहनती, चलते फिरते किसी को छेड़ना भी संभव नही, आफिस से आने के बाद, मेरे थके से चेहरे के लिये खुद कोई पानी देता है। और भी सब...

क्यों लिखा पता नही। दर्पण का किसी दिन का स्टेटस "सच बताओ, तुम अब मुझे प्यार नही करती ना।" और कुश की बात " आप बस वही लिखती हो जो होता है।" को कहीं श्रेय दिया का सकता है, जो नही था, वो लिखने को :)

सागर said...

तितलियों के रंगीन परों को, जबर्दस्ती सफेद रंग में रंग देने जैसा
चिड़ियों की चहचहाहट को आँख बंद कर उनींदा बना देने जैसा
चमेली की तेज खुशबू में, कमल की भीनी महक ढूँढ़ने जैसा
किसी अपने की मृत्यु की सूचना के बाद हाहाकार मचाते हुए बिलख बिलख रो लेने के बाद, हिचकियों को भी घोट देने जैसा
टी०वी० बंद करते हुए, वो साड़ी का पल्ला फैला के खड़ी भी नही हुई ये कहती हुई कि " इस साड़ी का आँचल एकदम डिफरेंट है ना
काँधे पर आये हाथ के दो सेकंड बाद ही उसे कोई काम याद आ जाता है


अपने ही कटे पैरों को देख कर, चिल्लाते हुए बार बार नज़र हटा लेने के बाद एक टक घूरते रहने जैसा
हड्डियों तक धँसे हुए दर्द का चीख चीख के प्रदर्शन करने के बाद होंठों पर दाँत रख के भींच लेने जैसा

और अंततः
बलात्कार में घोर विरोध से हाथ पैर चला कर नुचे हुए अंग प्रत्यंगो को देख, शिथिल पड़ जाने जैसा..


"मैंने आपको बहुत ज्यादा नहीं पढ़ा है, यदा कदा किसी के ब्लॉग से होकर आया हूँ, लेकिन मेरी नज़र में यह आपकी आज तक का सबसे बेहतरीन लेखन है, हाँ कुछ हिंदी कवितायेँ/शब्द भी थे... यह जितने भी बिम्ब आपने दिये हैं इसने प्रभावित तो किया ही स्त्री मन के पीडाओं/घुटन से भी अवगत करता है.

यंत्रणा/यातना जब तक खुद पर ना गुज़रे पढने में अच्छा आउटपुट देती है....

क्योंकि दुर्लभ लोग ही फ्योदोर दास्तोएवेस्की होते हैं.

vandana gupta said...

खामोश हो गयी पढकर और शब्द भी साथ नही दे रहे इतना मार्मिक यथार्थ का चित्रण है।

neera said...

स्तब्ध! कुछः कहते नहीं बन रहा... तुम्हें लगातार पढ़ा है और उन सब मोतियों में आज डायमंड!

रचना said...

jo sab thaa wo nahin haen

kyun nahin haen kyuki

jo sab thaa wo bhrm thaa


keep writing

मीनाक्षी said...

एक एक शब्द की उदास सूरत मन को बेचैन करने लगी थी...भागना चाहा लेकिन हर तरफ से उनकी उदास बाँहों ने घेर लिया...

Pankaj Upadhyay (पंकज उपाध्याय) said...

क्या कहूँ?? ऎसे वक्त शब्दों की कमजोरी समझ आती है...

मनोज पटेल said...

मार्मिक...

वीनस केसरी said...

सच तो ये है कसूर अपना है,,,

चांद को छूने की तमन्ना की
आसमाँ को जमीन पर माँगा
चाहा कि पत्थरों पे फूल खिले
काँटों में की तलाश खुशबू की
आरजू की आग ठंडक दे
बर्फ में ढूँढते रहे गर्मी
ख्वाब जो देखा चाहा कि सच हों जाए
इसकी हमको सजा तो मिलनी ही थी,,,

सच तो ये है कि कसूर अपना है......

- javed akhtar

meemaansha said...

nihsabd....bas ek shabd...touching hai Di aur effective bhi.

अजित गुप्ता का कोना said...

क्‍यों हैं इतना दर्द?

pallavi trivedi said...

oh kanchan... sachmuch kisi apne par se adhikar hat jane ke baad bilkul aisa hi hota hai. bahut bahut achcha likha hai tumne.

आकाश सिंह said...

BAHUT HI ACHCHI POST PANAYEN HAIN APNE..=- THANKS
-----------------------
यहाँ भी आयें|
कृपया अपनी टिपण्णी जरुर दें|
यदि हमारा प्रयास आपको पसंद आये तो फालोवर अवश्य बने .साथ ही अपने सुझावों से हमें अवगत भी कराएँ . हमारा पता है ... www.akashsingh307.blogspot.com

www.navincchaturvedi.blogspot.com said...

कंचन जी ये कहानी नहीं है, संस्मरण भी नहीं, पर कुछ तो है जो लेखनी को चलने पे मजबूर कर गया| वो जो भी हो, है बहुत ही भयावह, मर्मान्‍तक और किसी भी पाषाण हृदय को विचलित करने में सक्षम|

सच बोलें तो हम लोग इस के कुछ अंश अपने इर्द गिर्द पाते भी हैं, भले अंश रूप में ही| बड़ी ही जीवंत कल्पना और बड़ा ही सशक्त शब्दांकन| यहाँ लेखन के लिए नहीं, बल्कि चिंतन और उस के बाद उस चिंतन के प्रस्तुतिकरण के लिए बधाई स्वीकार करें|

यदि आप की पोस्ट्स की नॉटीफिकेशन मिलती रहे तो ऐसी रचनाओं को पढ़ते रहने का मौका सहज मिल पाएगा| एक शेर बरबस ही याद आ गया है अपना, शेयर करने से खुद को रोक नहीं पा रहा:-

आख़िरी मर्तबा हम कब मिले-बैठे-बोले|
याद के दायरों से दूर वो मंज़र क्यूँ है||

Pooja Singh said...

maine apka ye post abhi padha hai....itna samvedansheel hai bas shabd nahi bayan karne ko.

sandeep sharma said...

आपकी पोस्ट आज पढ़ी..
वर्ल्ड चैम्पियन बनने का जोश जो एक महीने बाद ग़ुम हो गया था...
आज फिर जाने क्यों जाग गया...
शायद आपकी

ऐदे पैदे (दे घुमा के)
आरे पारे (दे दे घुमा के)
गुत्थीगुत्थम (दे घुमा के)
अड़चन खड़चन (दे दे घुमा के)

का असर था...

Poonam Nigam said...
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Poonam Nigam said...

आज पहली बार आई आपके ब्लॉग पर ...और पहली पोस्ट ये पढ़ी..इसके शीर्षक ने आकर्षित किया .और पढने के बाद निः शब्द रह गयी.वास्तविकता से भरपूर...और मन को छू लेने वाला चित्रण भावनाओ का...स्त्री बहुत सशक्त होती है अपने आप में परन्तु बहुत कोमल भी...बस ये शक्ति और कोमलता अलग अलग परिस्थितियों और भावनाओ के लिये सुनिश्चित कर रक्खी हैं बनाने वाले ने ऐसा मुझे लगता है.

सागर said...

याद रह गयी थी इसकी... आज तिहरा लिया.

सागर said...

याद रह गयी थी इसकी... आज तिहरा लिया.