जेठ और बैसाख की ये दोपहर,
तुमको अपने साथ अब भी खींच लाती है।
सामने अंबर तले धरती जले,
और हम तुम शांत थे महुआ तले।
प्रेम की शीतल छवि वह याद कर
ये धरा अब भी स्वयं का जी जलाती है।
लू हुई थी साँझ की मलयज पवन,
ताप यूँ पावन कि ज्यों दहका हवन,
पांव जलते, ले प्रतीक्षा की घड़ी,
घास की नर्मी का मन में सुख जगाती है।
झील के काई लगे उस कूल पे,
झाड़ का वो इक अजूबा फूल ले,
मेरी चोटी में सजाने की ललक,
आज भी मुझमें अजब सिहरन जगाती है।
तेरा आ पाना नही होता था जब,
दोपहर होती थी वो कितनी गजब,
तब जला करती थी खस की टांटियां,
अब भी वे यादें पसीना आ बहाती है।
श्रद्धेय श्री राकेश खंडेलवाल जी के संशोधन एवं आशीष के साथ।
तुमको अपने साथ अब भी खींच लाती है।
सामने अंबर तले धरती जले,
और हम तुम शांत थे महुआ तले।
प्रेम की शीतल छवि वह याद कर
ये धरा अब भी स्वयं का जी जलाती है।
लू हुई थी साँझ की मलयज पवन,
ताप यूँ पावन कि ज्यों दहका हवन,
पांव जलते, ले प्रतीक्षा की घड़ी,
घास की नर्मी का मन में सुख जगाती है।
झील के काई लगे उस कूल पे,
झाड़ का वो इक अजूबा फूल ले,
मेरी चोटी में सजाने की ललक,
आज भी मुझमें अजब सिहरन जगाती है।
तेरा आ पाना नही होता था जब,
दोपहर होती थी वो कितनी गजब,
तब जला करती थी खस की टांटियां,
अब भी वे यादें पसीना आ बहाती है।
श्रद्धेय श्री राकेश खंडेलवाल जी के संशोधन एवं आशीष के साथ।
36 comments:
"झील के काई लगे उस कूल पे,
झाड़ का वो इक अजूबा फूल ले,
मेरी चोटी में सजाने की ललक,
आज भी मुझमें अजब सिहरन जगाती है"
कितनी सुन्दर पँक्तियाँ..........।
दोपहर होती थी वो कितनी गजब,
तब जला करती थी खस की टांटियां,
अब भी वे यादें पसीना आ बहाती है।
कविता की ये पंक्तिया मुझे बड़ी अच्छी लगी .सादी सी...पुराने दिनों को रूमानियत से याद करती हुई....
बचपन में वैसे कई कारो पे ऐसे पर्दों को टंगे देखा है .....
बहुत सुन्दर रचना ......!
सच में खो गया पढ़ते-पढ़ते...
शुभकामनाये स्वीकार करें,
कुंवर जी,
सुन्दर कविता नयनाभिराम दृश्य
लू हुई थी साँझ की मलयज पवन,
ताप यूँ पावन कि ज्यों दहका हवन,
bahut sundar hai ye ..
मुझे नानी का घर और बागीच याद आरहा है सोचता हूँ जल्दी से वहीँ पहुंचू...और आम और महुवे के लिए नानी से खूब लडूं....
kisi ek pankti ki nahi poori ki poori rachna lajawaab hai.........phir kise chodun aur kise bayan karoon........na jaane kin khwabon mein le gayi aapki rachna...........bahu thi sundar .......seedhe dil se nikli aur dil tak pahunch gayi.
झील की काई की तरफ कुछ ही लोगो की नज़रे जाती है.. आप वहां तक भी पहुँच गयी.. कुछ शब्द अप्रत्याशित रूप से किसी रचना में शामिल होंकर उस रचना को उंचाइयो तक उड़ा ले जाते है..
ठन्डे पानी के बौछारों से पोस्ट है.. भिगोये रखिये..!
कुछ शीतल सी ताजगी का अहसास करा गई आपकी रचना।
लू हुई थी साँझ की मलयज पवन,
ताप यूँ पावन कि ज्यों दहका हवन,
पांव जलते, ले प्रतीक्षा की घड़ी,
घास की नर्मी का मन में सुख जगाती है।
ये ज्यादा ही अच्छी लगी।
इस गर्मी में मंद मंद बहते शीतल पवन सा अहसास दे गई ये कविता..
अद्भुत है आपका सौन्दर्यबोध ।
वाह...वाह...वाह....
लाजवाब ...बेहतरीन....
और क्या कहूँ ,कुछ सूझ नहीं raha...
वाह...वाह...वाह....
लाजवाब ...बेहतरीन....
और क्या कहूँ ,कुछ सूझ नहीं raha...
कुछ शीतल सी ताजगी का अहसास करा गई आपकी रचना।
राकेश जी के सधे हुए हाथों का स्पर्श पाकर जो गीत सज जाय उसमें सौन्दर्य की कमी की गुंजाइश कहाँ !
मुझे सबसे अधिक लुभाया इन्होंने -
"लू हुई थी साँझ की मलयज पवन,
ताप यूँ पावन कि ज्यों दहका हवन,
पांव जलते, ले प्रतीक्षा की घड़ी,
घास की नर्मी का मन में सुख जगाती है।"
'झील के काई' को ’झील की काई' क्यों न कर लिया जाय !
आदरणीया
बहुत सुन्दर प्रस्तुति........चित्र ने तो पोस्ट को बिलकुल जीवंत कर दिया
लू के थपेड़ों के बीच आपकी यह प्रस्तुति निश्चित ही सब्ज़ मंज़र दिखाने वाली रही
पूरी कविता लाजवाब थी मगर यह टुकड़ा तो खास लगा
झील के काई लगे उस कूल पे,
झाड़ का वो इक अजूबा फूल ले,
मेरी चोटी में सजाने की ललक,
आज भी मुझमें अजब सिहरन जगाती है।
सामने अंबर तले धरती जले,
और हम तुम शांत थे महुआ तले।
प्रेम की शीतल छवि वह याद कर
ये धरा अब भी स्वयं का जी जलाती है
इन पंक्तियों का जवाब नहीं. हकीकत तो यह है कि समूचा गीत ही प्रशंसा के योग्य है लेकिन इन पंक्तियों को जिस दृष्टि से देखा, रचा, बुना गया, उसकी सराहना न की जाए तो यह हर को नज़रंदाज़ करना कहा जाएगा.
मुझे विश्वास है, आने वाले समय में आप अपनी दृष्टि को व्यापक करेंगी, थोड़ी मेहनत करेंगी और फिर हम जैसे 'बुज़ुर्ग' ईर्ष्या करेंगे कि चार दिन छोकरी और इतनी शोहरत!
झील के काई लगे उस कूल पे,
झाड़ का वो इक अजूबा फूल ले,
मेरी चोटी में सजाने की ललक,
आज भी मुझमें अजब सिहरन जगाती है।
वाह! बहुत ही सुन्दर कविता, एक नाज़ुक स्पर्श सी, एक टुकड़ा छाँव सी !
और धरा का जी का जलाना ...उफ्फ्फ !
जीते रहिये बच्चे!
शार्दुला दी
इम्तहां हो गयी इंतजार की....???
अब और कितना इंतजार करता मैं...रहा नहीं गया तो सोचा की अब अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर ही दूँ इस गीत पर। :-)
तुमको और रवि के गीतों को पढ़ने के बाद अपनी भी इच्छा जाग उठती है कई बार कि मैं भी गीत लिखूँ, लेकिन अपनी इतनी औकात कहाँ....
लू को सांझ के मलयज पवन के साथ पढ़ना भाया मन को तो यादों का पसीना बहाते आ जाने वाल बिंब रोचक लगा...अपना-सा। वहीं चोटी में झाड़ के फूल को सजाने की ललक वाली बात तो उफ़्फ़्फ़्फ़ वाली है। गीत पढ़ कर मन कर रह है कि किसी जेठ की ऐसी ही दोपहरी ढूंढू और ढूंढू कोई घनी छाँव...लेकिन इस वादिये-कश्मीर में???
@ Veer JI:) der ki uska dukh nahi mujhe. khushi is baat ki hai ki jo socha tha vo hi hua ha ha ha
WOW...simply awesome...gazab likha hai...itne khoobsoorat bimb, jaise sapna dekha ho koi pyaara.
Kya baat hai...!!
लू हुई थी साँझ की मलयज पवन,
ताप यूँ पावन कि ज्यों दहका हवन,
अद्भुत है, बहुत ही सुंदर.
दोपहर होती थी वो कितनी गजब....
--प्रेम की शीतल छवि वह याद कर
ये धरा अब भी स्वयं का जी जलाती है।
bahut hi khubsurat kavita likhi hai.
[Aap ke audio podcast ka intzaar hai]
विगत कुछ दिनों से हिंदी कविता के दर्शन नहीं हुए थे यह रख कर कहीं भूल गया था वो भी रूमानियत भरी ...
इन दो पंग्तियों पर सागर हहराया
लू हुई थी साँझ की मलयज पवन,
ताप यूँ पावन कि ज्यों दहका हवन,
बड़ी उम्मीद जगती है यह लाइन ... पर अंत कुछ ऐसा ना हुआ :)
हृदय-गवाक्ष पर ज्यादा नहीं आ सका हूँ....मगर जब भी आया....मेरे गवाक्षों को बड़ी शीतलता मिली है सच.....
कुछ देरी से ...........नहीं, बहुत देर से आया हूँ...........मगर देर आये दुरुस्त आये कि कहावत के साथ सब कुछ माफ़
इस अंतरे की खूबसूरती पागल कर दे रही है,
लू हुई थी साँझ की मलयज पवन,
ताप यूँ पावन कि ज्यों दहका हवन,
पांव जलते, ले प्रतीक्षा की घड़ी,
घास की नर्मी का मन में सुख जगाती है।
अगला अंतरा तो और भी अच्छा है..........
झाड़ का वो इक अजूबा फूल ले,
मेरी चोटी में सजाने की ललक,
वाह वाह...............
अब तो आपके अगले गीत या ग़ज़ल का वक़्त आ गया है............
प्रेम की शीतल छवि वह याद कर
ये धरा अब भी स्वयं का जी जलाती है।-- मन मोह गई यह पंक्तियाँ...
--- लम्बे वक्त के बाद फिर से पुरानी गलियों में आना एक अजब सा एहसास कराता है..
प्रेम की शीतल छवि वह याद कर
ये धरा अब भी स्वयं का जी जलाती है।
निश्चित रूप से ही
मन की अथाह गहराईयों का
सुमधुर शब्दों में
अनुपम रूपांतरण ....
ऐसी प्रभावशाली लेखनी
ऐसी प्रभावशाली सोच
ऐसी प्रभावशाली बानगी
सभी को सलाम ... !!
@पनिहारन:- सिर्फ़ एक सवाल है आपसे :- कितने फौजियों को आपने अपनी सीट दी है ट्रेन या बस में ??
बहुत सुन्दर रचना..पसंद आई.
वाह!
गर्मी सिर्फ दुःख ही नहीं देती.
SUNDAR GEET!!
kya kavita he
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