नित्य समय की आग में जलना, नित्य सिद्ध सच्चा होना है। माँ ने दिया नाम जब कंचन, मुझको और खरा होना है...!
Friday, January 9, 2009
जब कंचन में जड़ा पुखराज
पारुल जिसे मैने सखी का नाम इसलिये दिया है क्यों कि वो जो भी लिखती हैं, वो जैसे मेरे मन से निकला हुआ होता है। सारी कविताएं, सारे गीत और सारी पसंद याद नही कि कब मेरे पसंद में ना आया हो। मनीष जी की मित्र सूची में वो बहुत दिन से दिखाई देती थीं। धीरे धीरे जब उनकी कविताओं द्वारा उनको पहचान लिया, तो फिर उनसे बत करने का मन हुआ। आर्कुट पर स्क्रैप्स के माध्यम से हुई बातचीत से पता चला कि उन्होने पढ़ाई हमारे कानपुर से की है और जिस संगीत की कक्षा की मैं पिछड़ी छात्रा हूँ उसकी वो ब्रिलियेंट स्कॉलर हैं। कविता का भी कुछ वही हाल हैं। उनकी गुलज़ारिन स्टाईल भी मेरे लिये अप्राप्य ही है।
तो ऐसे शख्स को सखी का नाम दे कर खुद को गर्व महसूस होता है, वैसे पारुल की तरफ से कभी ऐसी कोई सहमति नही जतायी गई है :) !
पारुल से मैं पिछली गर्मियों में मिलते मिलते रह गई थी। इस बार भी कुछ ऐसा ही लग रहा था। कि शायद मिलना नही हो पायेगा। चूँकि सर्दी मेरे लिये बहुत कष्टकर होती है। इसके आफ्टर एफेक्ट्स भी अब तक परेशान करने लगते हैं...! जिस कोहरे की सुबह को पारुल जैसे पठारी लोग रूमानी महसूस करते हैं, वो हमारे जैसे लोगो के लिये लोगो के लिये डरावनी होती है। मेरे पैरों में ब्लड सर्क्यूलेशन कम होने के कारण शायद मेरे पैर हमेशा ही सर्द बने रहते हैं। उस पर सुबह सुबह आफिस जाना ही मेरे लिये बड़ा समस्या प्रद होता है, तो कानपुर जाना तो बहुत ही मुश्किल हो रहा था।
खैर ना ना होते होते अचानक उस सुबह पारुल का फोन आ ही गया, जब मैं बिस्तर से बिलकुल उठी ही थी (शनिवारीय अवकाश होने के कारण ११ बजे) और पारूल ने बताया कि वे लखनऊ आ चुकी हैं और शायद तीन बजे तक मुझसे मिलने का कार्यक्रम हो।
मैं और मेरी छोटी दीदी २ कि०मी० की दूरी पर रहते हैं (पिछले डेढ़ सालों से मै इधर रहती हूँ, अन्यथा मैं लखनऊ आने के बाद साढ़े ४ साल तक उन्ही के साथ रहती थी) और बाइकों के चलते ये दूरी कुछ नही रह जाती, दिन में कई बार आना जाना होता रहता है। पारुल के फोन के समय बिटिया सौम्या अपने कोचिंग से लौटते समय अटेंडेंस लगाने आई थी। पारुल मौसी के आने की खबर सुनते ही उन्होने " हम भी मिलेंगे मौसी ! पारुल मौसी से।" का डायलॉग दिया, चूँकि पारुल का ब्लॉग उनके लिये परिचित था और उनकी काविता के साथ साथ आवाज़ की वो भी मुरीद थीं। मैने कहा "जब आयेंगी तब आ जाना" और सौम्या जी ने घर पहुँचते ही न्यूज़ रिले कर दी कि पारुल मौसी आ रही हैं। घर से बड़ी बिटिया नेहा (बड़ी दीदी की बेटी) का फोन आ गया आप तो कह रही थी कि हमसे मिलवाएंगी। हमने उनसे भी पहले वाला डायलॉग दोहरा दिया। अब पारुल से मिलने के लिये सब तैयार और पारुल थीं कि अपना फोन अलग कमरे में रख कर खुद अलग कमरे में बैठी थीं।
मैने उनका लोकेशन लेने के लिये फोन करना शुरू किया तो कोई रिस्पॉंस नही। मुझे लगा कि शायद किसी समस्या में पड़ जाने के कारण मिल नही पायेंगी और अब ये बात कहते संकोच हो रहा है। घर से फोन पर फोन...! मेरे पास कोई जवाब नही..! और अचानक ५ बजे पारुल का फोन आता है कि हम इंदिरानगर के लिये मूव कर चुके हैं। हाथ मे पकड़ा चाय का प्याला जहाँ का तहाँ छोड़ कर बच्चो को फोन किया। पारुल मासी आ रही हैं १० मिनट में पहुँच जाओ। बच्चे हड़बड़ाये " अरे मौसी अब हम सब तो समझे कि प्रोग्राम कैंसिल, अब चेंज कर के आना है तो १० मिनट में कैसे...! " "मत मिलो, अगली बार मिलना" का मेरा हड़बड़ी का जवाब। लेकिन मेरी कूल कूल दीदी के पास वैसे भी हर समस्या का समाधान रहता हैं। उन्होने कहा कि ऐसा है, तुम खुद यहीं आ जाओ और पारुल को भी ले आओ " हम्म्म्म्...! क्या आइडिया है...!!!!! सब फिर खुश...!"
पारुल को निश्चित जगह पर आने को कह कर मैने पिंकू को भेजा, जो मनीष जी को भी लाने मे भेजे गये थे। और मनीष जी के चिट्ठे में लगी फोटो के सौजन्य से पारुल को उन्हे पहचानने में कोई समस्या नही हुई।
और पारुल पधारी हमारे घर, अपने पति और बेटों के साथ। जैसा कि होता ही है, बड़ा छोटे की अपेक्षा गंभीर और छोटा संभलते संभलते भी चंचल। १० मिनट के लिये आई पारुल शायद आधे घंटे रुकी होंगी। लेकिन वो २ ही मिनट जैसा लगा। अभी तो पारुल से गीत सुनने थे, बच्चों से बाते करनी थीं। (अब डायरेक्टली जीजाजी का नाम कैसे लें जिनसे हम को पारुल ने बात ही नही करने दी :)..! और वो जाना है, जाना है कहते हुए जाने लगीं।हमारी आत्मा कह रही थी
अभी आये, अभी बैठे, अभी दामन संभाला है,
तुम्हारी जाऊँ जाऊँ ने मेरा तो दम निकाला है। :( :(
लेकिन कोहरा सच में बहुत ज्यादा था, हम रोकने की ज़िद करने में भी असमर्थ थे।
बहरहाल दीदी और बच्चे सभी खुश थे पारुल से मिल कर...और मैं.....??? भला अपनी चीज़ की तारीफ सुन कर कौन नही खुश होता, जिसे आप ने चुना है, इतने बड़े संसार से उसकी संसार प्रशंसा करे इससे बड़ी खुशी की क्या बात है...!
फिर भी मैं शुक्रगुज़ार हूँ उन लम्हों की, जिनमें मै उनसे मिली। कुछ पल को ही सही, लेकिन जिंदगी के यादगार पलों में एक....!
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34 comments:
लेडीज ब्लॉगर्स मीट या कहें ब्लागर्स फैमिली मीट के बारे में जानकर अच्छा लगा।
मैंने विविध विधाओं में आपका लेखन देखा पढ़ा है किंतु आज ये संस्मरण पढ़ कर जितना अभिभूत हुआ वैसा अनुभव पहले कभी नही हुआ था लिखने की ये अदा ही आप पर फब रही है।
कितनी प्यारी बात है ना! मैं भी उन्हे सखी ही कहता हू..
उनका व्यक्तित्व वाकई जबरदस्त है.. हम तो पहले ही उन्हे 'लेडी गुलज़ार' कहते है.. रही बात उनके बच्चो क़ी तो दोनो एक दम कूल है..
halanki unhone aapko jijaji se milne nahi diya.. par main mila hu unse.. bahut hi zindadil insaan hai..
बहुत आभार इस मुलाकात से रुबरु करवाने के लिये.
बहुत ही आत्मियता लगी आपके द्वारा इस मुलाकात का ब्योरा लिखने मे.
रामराम.
achcha laga aap logon ki mulaqat ke bare mein padhkar. Aadhe ghante mein bate kya huyin us par aapne twojjah nahin dee na hi koyi photu votu. ab iske liye pukhraaj ka aangan khagalna hoga.:)
sneh ka bandhan , sunder varnan. swapn
वाह कितना अच्छा लगता है यूँ मिलना ..
बस थोडी छोटी रही, वरना इस सर्दी में मूंगफली और चाय के साथ घंटो गप-शप होती तो आनंद ही आ जाता ! हमें तो जलन हो रही है.
बाते ज़्यादा, समय कम…
छोटी सी मुलाकात को कितने सलीके से सजा दिया तुमने……
सब इतने प्यार से मिले कि संकोच जाता रहा…बार बार पढ़ रही हूँ
मुस्कुरा रही हूँ
वो शाम दोहरा रही हूँ :)))))
सचमुच जीवंत कर दिया आपने सखी मिलन प्रसंग
बना रहे यह रंग!
मनीश
कंचन को अपनी पोस्ट पढ़वानी थी सबको,फ़ोटो लगाकर डराना नही न था :))
क्या बात है -
कितना मधुर मिलन रहा
आप दोनोँ सखियोँ का
परिवार ऐसे ही बडे होते हैँ जी :)
आपकी आत्मीय छवि झलक रही है यहाँ :)
खुश रहो, सदा प्रसन्न रहो
दोनोँ को मेरे स्नेह आशिष
परिवार के सभी को स्नेह,
- लावण्या
क्या कहूं इस सखी मिलन पर...मुग्ध हो फिर से पढ़ लेता हूं
१० मिनट के लिये आई पारुल शायद आधे घंटे रुकी होंगी। लेकिन वो २ ही मिनट जैसा लगा।
--अपना भूल गई जब हमसे मिली थी...अच्छा बदला निकाला पारुल ने..उनका बहुत आभार...
वैसे तो सब सही ही कहा है. :)
सुंदर मिलन कथा। सखी का जीवन अपने पति-बच्चों के साथ यूँ ही सजा रहे।
सही है जी। हमसे तो पारुलजी की मुलाकात हो नहीं पाई। यहीं मिल लिये।
बहुत बढ़िया कंचन. शुक्रिया इस पोस्ट का, बहुत अच्छा लगा इस मुलाक़ात के बारे में पढ़ना. तुम्हारी सखी से मुलाक़ात का मौक़ा मुझे भी मिल चुका है.
मैं भी वही कहूँगा जो कुश ने कहा है ,,,,,,,," उनका व्यक्तित्व वाकई जबरदस्त है.......
दोस्ती इतना विस्तृत और सुन्दर लिखना सराहनीय है
---मेरा पृष्ठ
चाँद, बादल और शाम
कहते हैं- "अमृतं शिशिरे वह्निः अमृतं प्रियदर्शनम" आपकी पोस्ट इस सत्य का प्रमाण जान पड़ती है। उस पल को जीने का सुखद एहसास जिस तरह से आपने शब्दों में पिरोया है वह मन को छू जानेवाला है।
तेरे आने की जब ख़बर महके
तेरी खुशबू से सारा घर महके
वो घड़ी - दो - घड़ी जहाँ बैठे
वो जमीं महके वो शहर महके !!
दो सखियों का भावनात्मक मिलन
दिल को छू गया !
किसी की नजर न लगे और आप
दोनों की मित्रता यूँ ही कायम रहे
.......... आमीन !!!
mitr se milna sukhad haota hi hai. aapne achchhe se apna manobhav prakat kiya
बचपन में दो दोस्तों के मिलने की एक कहानी पढ़ी थी..दसवीं या ग्यारहवीं के कोर्स में थी...आपकी पोस्ट पढ़कर एक बार फिर वह कहानी याद आ गई।
दो ब्लागरों के मिलने का मौका सचमुच सुहावना ही होता है...हम हिन्दुस्तानी तो वैसे भी रिश्तेदारियां बनाने में देर नहीं करते...
अच्छी पोस्ट...
राजनीश जी, ताऊ जी,स्वप्न जी, रंजू जी, अभिषेक जी, सिद्धेश्वर जी, लावण्या दी, गौतम जी, मानोशी जी, अनूप जी, विनय जी, रविकांत जी, प्रकाश जी, शेली जी, रवीन्द्र जी, शुक्रिया !
किशोर जी आपकी बातों पर ध्यान दूँगी।
कुश जी एवं मीत जी पारुल है ही ऐसी कि सभी का दिल आ जाये और उन्हे सखी मान लें।
मनीष जी बाते तो खैर इतनी ही हुईं कि ये मेरा बेटा, ये मेरी बेटी, ये मेरे पति, ये मेरी दीदी,अब चलूँ...ज़रा पानी तो पी लो, नहीं नहीं, अरे अरे..! तो ये सब कैसे लिखती..! हाँ बात रही फोटो की ..तो पारुल को ले कर मैं इतनी possesive हूँ कि नही चाहती कि जो छवि मैने देखी वो कोई और बाँटे..!
समीर जी हम तो फिर भी बहुत समय ले कर आये थे, पारुल ने बदला ब्याज़ सहित निकाला है :)
अजीत जी सच कहा आपने हम हिंदुस्तानी रिश्ते बनाने में देर नही करते
kanchan ji aapka mere blog par swagat, comment ke liye dhanyawad, krapya "ye khidkiyan bhati hain mujhe " mein yogendra ji ke sthan par yogesh ji karen. aabhari. yogesh verma "swapn"
अभी आये, अभी बैठे, अभी दामन संभाला है,
तुम्हारी जाऊँ जाऊँ ने मेरा तो दम निकाला है। :( :(
बस इतना ही कि बेहतरीन
कंचन जी मैं आप की खुशी को समझ सकता है..खूबसूरत शब्दों और स्वर की मलिका वास्तव में एक विलक्षण व्यक्तित्व की मालिक ही होगी...चलिए आप आधा घंटा तो मिल लीं...हम पता नहीं कब मिल पाएंगे...क्या पता उनका कभी मुंबई या शिर्डी का कार्यक्रम हो तभी...बहुत सुंदर प्रस्तुति है आप की इस सखी मिलन की...
नीरज
आपको लोहडी और मकर संक्रान्ति की शुभकामनाएँ....
बहुत ख़ूब
---
आप भारत का गौरव तिरंगा गणतंत्र दिवस के अवसर पर अपने ब्लॉग पर लगाना अवश्य पसंद करेगे, जाने कैसे?
तकनीक दृष्टा/Tech Prevue
कुछ लोग अपने में पूरा संसार समेटे रहते है....भावुक सवेदनशील ओर रिश्तो को भरपूर जीने वाले .आप उनमे से एक है..साफ़ दिल की.....खुले हर्दय से सबका स्वागत करने वाली...
kisi ke kitne kareeb ham kab aur kaise ho jate hai hame pata hi nahi chalta, fir jab uske darshan hote hai to jaise lagta hai ki isse badi khushi koi hai hi nahi.
aapi unse aise mulakat bar-bar hoti rahe yahi duaa karunga.
-------------------------"VISHAL"
कंचन जी आप अपना ई मेल पता मुझे भेज दें तो आप को आलोक श्रीवास्तव जी की रचना बाबूजी या अम्मा भेज देता हूँ...अगर ये सम्भव नहीं तो आप ऐसा करें..की www.anubhti-hindi.org पर क्लीक करें वहां ऊपर की और जो optionsदिए हैं उनमें से "कवि" पर क्लिक करें और फ़िर सूची देख कर अलोक श्रीवास्तव पर क्लिक करें...आप को उनकी बहुत सी रचनाएँ वहां मिल जाएँगी...
नीरज
बेहतरीन मुलाकाती अनुभव....
अच्छा लगा...
मैं देर आया लेकिन अच्छी खबर मिली. :)
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