अपने रिश्तों की चिता पर एक लकड़ी और आई,
पर सुलगती ये अगन, फिर भी धधक कर जल न पाई।
निम्नता लो, उच्चता लो,
इक कोई स्तर बना लो।
और उस स्तर पे थम के,
फिर मुझे अनुरूप ढालो।
रोज का चढ़ना उतरना, अब थकावट पग में आई,
और मंजिल की तरफ, पग भर नही कोई चढ़ाई।
इक नये व्यक्तित्व के संग,
पूँछते हो "कौन हो तुम ?"
"क्यों भला निश्शब्द हो तुम,
क्यों भला यूँ मौन हूँ तुम"
ये विलक्षण रूप लख कर, अल्पता शब्दों में आई।
और तुम फिर पूँछते हो, बात क्या मुझसे छिपाई।।
क्यों न हम इक काम कर लें,
तनिक रुक आराम कर लें।
थक गई हैं भावनाएं,
कह दें कुछ विश्राम कर लें।
और नये कुछ तंतु ले कर फिर करें इनकी बिनाई।
अब नया एक जन्म ढूँढ़ें, बहुत भटकन आह! पाई।
20 comments:
इक नये व्यक्तित्व के संग,
पूँछते हो "कौन हो तुम ?"
"क्यों भला निश्शब्द हो तुम,
क्यों भला यूँ मौन हूँ तुम"
बहुत उम्दा लिखा है आपने. बधाई.
"क्यों न हम इक काम कर लें,
तनिक रुक आराम कर लें।"
एक नये लोक की स्थापना का संकल्प भी
कर लें !!
-- शास्त्री जे सी फिलिप
-- हिन्दी चिट्ठाकारी अपने शैशवावस्था में है. आईये इसे आगे बढाने के लिये कुछ करें. आज कम से कम दस चिट्ठों पर टिप्पणी देकर उनको प्रोत्साहित करें!!
कंचन ... तुम बहुत अच्छा लिखती हो !!! यूं ही लिखती रहो ....
इक नये व्यक्तित्व के संग,
पूँछते हो "कौन हो तुम ?"
"क्यों भला निश्शब्द हो तुम,
क्यों भला यूँ मौन हूँ तुम"
ये विलक्षण रूप लख कर, अल्पता शब्दों में आई।
और तुम फिर पूँछते हो, बात क्या मुझसे छिपाई।।
बहुत अच्छा लिखती हो !!! लिखती रहो ....
बहुत सुंदर शब्द और भाव से सजी आप की रचना बहुत शानदार है...बधाई
नीरज
कविता बहुत अच्छी है...........
इतनी निराशा क्यों....
निराशा में आशा की आग बहुत तेज है खासकर इन पंक्तियों में......
क्यों न हम इक काम कर लें,
तनिक रुक आराम कर लें।
थक गई हैं भावनाएं,
कह दें कुछ विश्राम कर लें।
और नये कुछ तंतु ले कर फिर करें इनकी बिनाई।
RISHTON MEIN AAI TOOTAN KE KARAN KAVYITREE KEE SAMVEDNAYEIN KAVITA MEIN VIBHINN BHAVBHOOMIYN MEIN VICHRAN KARTEE HAIN.HATASHA KE MADHAY ASHA KEE KIRAN BHEE HAI.
**ashok lav
अच्छा जी, इसे आप अधूरा कह रहीं थी ? ???
बहुत सुंदर और सार्थक है एक एक पंक्ति ----एक एक भाव तुम्हारा --
बहुत सुंदर
इक नये व्यक्तित्व के संग,
पूँछते हो "कौन हो तुम ?"
"क्यों भला निश्शब्द हो तुम,
क्यों भला यूँ मौन हूँ तुम"
बहुत सुंदर,भावुक और प्रवाहमयी रचना है.
सरस्वती का वरदान एक बार कलम में आ जाये तो उसको रुकने नहीं देना चाहिये क्योंकि सरस्वति का वरदान खर्च करने के लिये ही बना है । काफी दिनों के बाद एक सुंदर कविता पढ़ी बधाई ।
इक नये व्यक्तित्व के संग,
पूँछते हो "कौन हो तुम ?"
"क्यों भला निश्शब्द हो तुम,
क्यों भला यूँ मौन हूँ तुम"
ये विलक्षण रूप लख कर, अल्पता शब्दों में आई।
और तुम फिर पूँछते हो, बात क्या मुझसे छिपाई।।
आहा लंबे विश्राम ओर उस बड़े से दफ्तर के बाद ये कविता सामने आई...एक मुस्कराती हुई कविता......एक सुंदर सी कविता....
पढ़ तो कार्यालय में लिया था पर पढ़ते ही लगा कि इसे और तल्लीनता से पढ़ने की जरूरत है। बहुत ही अच्छी तरह अपनी बात कही है इस कविता में आपने। पढ़कर मन प्रसन्न हुआ। ऍसे ही लिखती रहें।
बहुत बढिया ...कविता बहुत पसँद आई ..उत्तम प्रयास है !
यूँ ही लिखती रहो ..
स्नेह,
- लावण्या
bahut achchi rachna!
आम तौर पर इन दिनों जो गीत लिखे जा रहे हैं, उनमें महज दुहराव नजर आता है. लेकिन आपका स्वर अलग है, कम से कम दुहराव तो नहीं ही है. सुंदर रचना.
achcha lagta hai aapko padhna...sundar.
प्रथम कुछ पंक्तियाँ पढ़ने के बाद ही पता चल गया था कि इन पंक्तियों के रचनाकार में एक विशिष्ट प्रतिभा है। रचना नि:संदेह उत्तम है। यह कविता उनके लिये एक उदाहरण है जो आजकल कविता के नाम पर कुछ भी उजुल-फ़ुजुल परोसते रहते हैं।
और नये कुछ तंतु ले कर फिर करें इनकी बिनाई।
अब नया एक जन्म ढूँढ़ें, बहुत भटकन आह! पाई।
Wah..Wah
बहुत सुंदर रचना कंचन जी,
अभिभूत कर दिया आपने,
जोरदार...
कंचन जी !आज आपकी बहुत सारी कवितायें पढ़ी !सब की सब रचनाएँ मार्मिक हैं और सच कहूँ तो बहुत दिनों बाद इतनी सुंदर छंदबद्ध रचनाएँ पढने को मिलीं ! मैं तो यूँ ही उत्सुकतावश आपके ब्लॉग पर चला आया ,मुझे क्या पता था कि कोई खजाना मेरे हाथ लग जाएगा !छंद को यूँ ही सहेजती रहें !आभार !
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