पिछले दिनों मनीष जी से तीसरी मुलाकात हुई. उस दिन से कई बार खुद को मुड़-मुड़ कर देखने लगती हूँ.
इस मुलाकात के बारे में कुछ लिखने का मन होता है तो दस इधर-उधर की बातें मन को कहाँ से कहाँ ले कर चली जाती हैं.
मनीष जी मेरी जिंदगी में इस तरह अहम् किरदार हो जाते हैं कि उन्होंने जिस खिड़की पर ला कर बिठाया वहाँ से मेरे व्यक्तित्व में बहुत से सुधार का एक छोटा सा दरवाज़ा खुलता था.
याद करती हूँ तो खुद पर हँसी आती है कि उन दिनों मैं चित्रा मुद्गल का उपन्यास आवां पढ़ रही थी जब मनीष जी से नई मुलाकात हुई थी. उन्होंने मुझसे इस उपन्यास के विषय में ब्लॉग पर लिखने को कहा तो मैंने उत्तर दिया था, "काफ़ी बोल्ड नॉवेल है. मैं लिख नहीं पाऊँगी."
अब खुद ही याद कर के मुस्कुरा लेती हूँ. कुछ सामान्य घटनाओं को कैसे मैं उन दिनों बोल्ड टॉपिक मान लेती थी .
मुझे चाँद चाहिए पढ़ते हुए अपनी हैरत कितनी बार मनीष जी के सामने ले आती थी, "ऐसी भी होती हैं क्या लडकियाँ"
अपनी छोटी सी दुनियाँ को सारा संसार मानने वाली मैं अपने पूर्वाग्रहों के चलते शायद हमेशा यही मानती रहती कि लड़की को सुधा की तरह घुट कर मर जाना चाहिए मगर वर्षा की तरह अपने लिए स्वार्थी नहीं होना चाहिए.
अब जब उनसे बात होती है तो अपने ही कितने बयानों से मुकर जाती हूँ मैं, "नहीं आज का सच यह नहीं है."
सिर्फ सात सालों में एक चक्र पूर्ण हुआ हो जैसे. कारण सिर्फ यह कि ब्लॉग के जरिये खुले रास्तों से जो पढ़ा, समझा उसने दूसरी तरह से दुनियाँ समझने की अक्ल दी.
उत्तर प्रदेश सरकार के विशेष अतिथि बने मनीष कुमार जी से मिलने का समय रात 10 बजे के बाद निर्धारित हुआ. लखनऊ के नवीन पाँच सितारा होटल में क्या शान से मेहमान नवाज़ी की जा रही थी हमारे मित्र की. हमने जाते ही उन्हें सुना कर कहा. "जिंदगी में एक काम अच्छा किया है कि मित्र अच्छे बनाये, वरना देखिये ना ! कहाँ हम आ पाते इस भव्य होटल में."
फोन हो या आमने-सामने मनीष जी से बात करते हुए बातों की कमी नहीं रहती और समय का पता नहीं चलता. घड़ी में अचानक शून्य बज गये और तभी उनके कमरे की बेल ने कहा,"टिंग-टंग'
दरवाज़ा खोलने पर भूरे बालों वाली एक अमेरिकन महिला ने पहले मुस्कुरा कर 'हाय" कहा और फिर साथ में, " एक्चुअली आय एम स्लीपिंग इन नेक्स्ट रूम, सो प्लीज़..! " इसके बाद उन्होंने अपने हाथों को दो बार "डाउन-डाउन' वाले इशारे में इस तरह ऊपर नीचे किया जिसका अर्थ था, "शोर मत मचाओ, आधी रात हो गयी. दूसरा व्यक्ति सोना भी चाह सकता है."
संयोग से उस समय मनीष जी अपने विदेश भ्रमण के मजेदार किस्से सुना रहे थे जिसके बाद हमको कहना पड़ता, "इंडियन्स आर इंडियन्स" और यूँ भी रात ग्यारह बजे के बाद मेरे अंदर नायट्रस ऑक्साइड फॉर्म होने लगती है और मुझे हँसी के दौरे पड़ने लगते है, तो उनकी हर बात पर हम दिल खोल कर हँस रहे थे, ठहाके मार कर. अब हमें क्या पता था कि पाँच सितारा होटल के कमरे वाइस प्रूफ नहीं होते.
खैर ! हमने अपना बोरिया बिस्तर सम्भाला उस होटल की 16वीं मंजिल से अपने ही लखनऊ को नई नजर से देखा और इसके बाद खुद को भी देखते रहे अलग-अलग नजरों से.
पी०एस० : सात साल पहले की मुलाकात की चर्चा यहाँ है
इस मुलाकात के बारे में कुछ लिखने का मन होता है तो दस इधर-उधर की बातें मन को कहाँ से कहाँ ले कर चली जाती हैं.
मनीष जी मेरी जिंदगी में इस तरह अहम् किरदार हो जाते हैं कि उन्होंने जिस खिड़की पर ला कर बिठाया वहाँ से मेरे व्यक्तित्व में बहुत से सुधार का एक छोटा सा दरवाज़ा खुलता था.
याद करती हूँ तो खुद पर हँसी आती है कि उन दिनों मैं चित्रा मुद्गल का उपन्यास आवां पढ़ रही थी जब मनीष जी से नई मुलाकात हुई थी. उन्होंने मुझसे इस उपन्यास के विषय में ब्लॉग पर लिखने को कहा तो मैंने उत्तर दिया था, "काफ़ी बोल्ड नॉवेल है. मैं लिख नहीं पाऊँगी."
अब खुद ही याद कर के मुस्कुरा लेती हूँ. कुछ सामान्य घटनाओं को कैसे मैं उन दिनों बोल्ड टॉपिक मान लेती थी .
मुझे चाँद चाहिए पढ़ते हुए अपनी हैरत कितनी बार मनीष जी के सामने ले आती थी, "ऐसी भी होती हैं क्या लडकियाँ"
अपनी छोटी सी दुनियाँ को सारा संसार मानने वाली मैं अपने पूर्वाग्रहों के चलते शायद हमेशा यही मानती रहती कि लड़की को सुधा की तरह घुट कर मर जाना चाहिए मगर वर्षा की तरह अपने लिए स्वार्थी नहीं होना चाहिए.
अब जब उनसे बात होती है तो अपने ही कितने बयानों से मुकर जाती हूँ मैं, "नहीं आज का सच यह नहीं है."
सिर्फ सात सालों में एक चक्र पूर्ण हुआ हो जैसे. कारण सिर्फ यह कि ब्लॉग के जरिये खुले रास्तों से जो पढ़ा, समझा उसने दूसरी तरह से दुनियाँ समझने की अक्ल दी.
उत्तर प्रदेश सरकार के विशेष अतिथि बने मनीष कुमार जी से मिलने का समय रात 10 बजे के बाद निर्धारित हुआ. लखनऊ के नवीन पाँच सितारा होटल में क्या शान से मेहमान नवाज़ी की जा रही थी हमारे मित्र की. हमने जाते ही उन्हें सुना कर कहा. "जिंदगी में एक काम अच्छा किया है कि मित्र अच्छे बनाये, वरना देखिये ना ! कहाँ हम आ पाते इस भव्य होटल में."
फोन हो या आमने-सामने मनीष जी से बात करते हुए बातों की कमी नहीं रहती और समय का पता नहीं चलता. घड़ी में अचानक शून्य बज गये और तभी उनके कमरे की बेल ने कहा,"टिंग-टंग'
दरवाज़ा खोलने पर भूरे बालों वाली एक अमेरिकन महिला ने पहले मुस्कुरा कर 'हाय" कहा और फिर साथ में, " एक्चुअली आय एम स्लीपिंग इन नेक्स्ट रूम, सो प्लीज़..! " इसके बाद उन्होंने अपने हाथों को दो बार "डाउन-डाउन' वाले इशारे में इस तरह ऊपर नीचे किया जिसका अर्थ था, "शोर मत मचाओ, आधी रात हो गयी. दूसरा व्यक्ति सोना भी चाह सकता है."
संयोग से उस समय मनीष जी अपने विदेश भ्रमण के मजेदार किस्से सुना रहे थे जिसके बाद हमको कहना पड़ता, "इंडियन्स आर इंडियन्स" और यूँ भी रात ग्यारह बजे के बाद मेरे अंदर नायट्रस ऑक्साइड फॉर्म होने लगती है और मुझे हँसी के दौरे पड़ने लगते है, तो उनकी हर बात पर हम दिल खोल कर हँस रहे थे, ठहाके मार कर. अब हमें क्या पता था कि पाँच सितारा होटल के कमरे वाइस प्रूफ नहीं होते.
खैर ! हमने अपना बोरिया बिस्तर सम्भाला उस होटल की 16वीं मंजिल से अपने ही लखनऊ को नई नजर से देखा और इसके बाद खुद को भी देखते रहे अलग-अलग नजरों से.
पी०एस० : सात साल पहले की मुलाकात की चर्चा यहाँ है
6 comments:
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, मैं और एयरटेल 4G वाली लड़की - ब्लॉग बुलेटिन , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
सचमुच...ब्लॉग की दुनिया न सोच को विस्तृत किया है, दोस्ती को विस्तृत किया है और विस्तार दिया है हमारे अपने ही पता नही कितने रिश्तों को। सुन्दर पोस्ट है कंचन।
ब्लॉग लिखते हुए जाने कितनी अछूती बातें जान ली मैंने ,वरना कभी कमरे और घर से बाहर ही नही आ पाती मैं भी ..... मनीष जी से सिर्फ बात हुई ,मुलाक़ात का इंतजार है .... वैसे उनके ब्लॉग पर उनका नियमित लेखन प्रेरणादायक है ... शुभकामनाएँ ....आप और दोस्तों को ....
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आदरणीय कंचन अभिनदंन
Ration Card
आपने बहुत अच्छा लेखा लिखा है, जिसके लिए बहुत बहुत धन्यवाद।
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