दौड़ती,भागती,
हाथ से छूटती उम्र के व्यस्ततम पलों में,
अचानक आता है तुम्हारा ज़िक्र...!
और मैं हो जाती हूँ 20 साल की युवती।
मन में उठती है इच्छा,
"काश ! तुम फिर से आ जाते ज़िन्दगी में,
अपनी सारी दीवानगी के साथ "
और इस तपते कमरे के चारों ओर
लग जाती है यकबयक खस की टाट।
और उससे हो कर आने लगते हैं,
सुगन्धित ठंढे छीटे।
तमाम सफेद षडयन्त्रों के बीच,
तुम्हारी याद का काला साया...
आह !
कितनी स्वच्छ है ये मलिनता।
हाथ से छूटती उम्र के व्यस्ततम पलों में,
अचानक आता है तुम्हारा ज़िक्र...!
और मैं हो जाती हूँ 20 साल की युवती।
मन में उठती है इच्छा,
"काश ! तुम फिर से आ जाते ज़िन्दगी में,
अपनी सारी दीवानगी के साथ "
और इस तपते कमरे के चारों ओर
लग जाती है यकबयक खस की टाट।
और उससे हो कर आने लगते हैं,
सुगन्धित ठंढे छीटे।
तमाम सफेद षडयन्त्रों के बीच,
तुम्हारी याद का काला साया...
आह !
कितनी स्वच्छ है ये मलिनता।
8 comments:
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, रावण का ज्ञान - ब्लॉग बुलेटिन , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
बहुत सुन्दर रचना
सही है बहुत स्वच्छ लगी ये मलिनता
हृदय की गहराई से लिखी ह्रदय की गहराई को छूती पंक्तियाँ। अति सुन्दर
अहा।
धक से लगने वाली अकविता है।
ये सिलसिला यूँ ही चलता रहे।
हमेशा की तरह अर्थपूर्ण
ब्लॉग बुलेटिन ! आभार आपका.
शिवराज शर्मा जी! डीजे जी ! रवीन्द्र जी ! शुक्रिया...:)
अंकित आमीन !
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