Sunday, August 5, 2012

वो चबूतरा....






  शाम का इंतज़ार करते हम और हमारा इंतज़ार करता चबूतरा। हमारी दिन भर की कारगुजारियों का कच्चा चिट्ठा वहीं तो खुलता था। खिलखिलाता, गुनगुनाता, एक दूसरे का मजाक उड़ाता, एक दूसरे के टेंशन से रात ना सोये जाने के किस्से भी सुनता।
त्यौहारों की ड्रेस, शादियों की तैयारी, मैचिंग्स की टेंशन, मेंहदी की डिज़ाइन सेलेक्ट किये जाने का साक्षी रहा है वो।

शाम बीत जाने पर, फिर शायद लाइट जाये और फिर से चहक उठे वो पत्थर इसका इंतज़ार हमें तो रहता ही था, उसे भी रहता ही होगा।



सबके चले जाने पर एक टीनएजर और एक बस टीन एज को छोड़ ,  उसी लाइन पर खड़ी दो नाहमउम्र सखियों की गुपचुप बातें सुनता वो... बरसात में कभी कभी जब बूँदे दिन भर नही टूटतीं, तो तलब ऐसा बुरा हाल करती कि भीग भीग कर बतियाया जाता। जाड़े की वो शाम, जो अब लिहाफ में भी कँपकँपाती है, उन दिनो सामने से आती खुले मैदान की सरसराती हवा में भी डरा नही पाती।

एक दूसरे के इमोशनल टेंशन आज बढ़ती मँहगाई के टेंशन से ज्यादा बड़े थे। बिना आगे पीछे सोचे एक दूसरे के लिये हाज़िर

भूल नही सकती जब फरवरी की ठीक दोपहर मैने श्वेता का गेट खटखटा कर कहा था "मंदिर चलोगी ?" और उसने बिना किसी प्रतिप्रश्न के कहा " चप्पल पहन लूँ।"


मेरी व्हीलचेयर को चलाती वो बिना किसी प्रश्न के मुझे मंदिर तकल ले आई। दोपहर में जब भगवान जी सोते हैं, तो सीढ़ियाँ खाली होती हैं। उन्हें उसी नींद में प्रणाम कर मैं, मंदिर की सीढ़ियों पर बैठ गई। वो बगल में बैठ गई। मैं रोती रही, रोती रही और उसने एक बार भी रोने का करण नही पूछा। जब जी भर गया तो मैने व्हीलचेयर की तरफ नज़र उठाई, बिना कहे व्हील चेयर मेरे पास ले आई वो और हम फिर से उसी चबूतरे पर। शाम की बैठक में हँसते, खिलखिलाते। बिना किसी को किसी खबर के, कि अभी एक सैलाब को बिना बाँध के बह जाने दिया गया है।

४ मई ,२००१ की एक शाम का साक्षी वो चबूतरा, जब हर शुक्रवार की तरह मंदिर से लौट कर इस चबूतरे की बैठक की तलब को कुछ उदासीनता के साथ मिटाया जा रहा था।


सब को मंजिल दूर लग रही थी। मेरा दार्शनिक स्वर  " अँधेरा बढ़ जाये, तो समझो सुबह आने वाली है।"
"और कितना अँधेरा दी ?" उस छोटी दोस्त ने चिढ़ कर कहा।
और उस सुबह के रोजगार समाचार ने हम सब को सुबह की पहली किरण दे दी। मेरा सेलेक्शन हो गया। कुछ ही दिनो में श्वेता को लखनऊ में इंजीनियरिंग कॉलेज मिल गया। पिंकी की शादी तय हो गई। हम से थोड़े छोटे पंछी भी अपने घोंसलो के लिये तिनके बटोरने निकल पड़े। सोनू होटल मैनेजमेंट में, आशीष और एकता बिज़नेस मैनेजमेंट में। अब तो सब को प्लेसमेंट भी मिल चुका है।

अगले छः महीनो में हम अपने सवेरे सँवारने निकल चुके थे।

आज जो कुछ हो रहा है, तब सब सपना लगता था। अब वो सब सपना लगता है जो तब हुआ करता था। सब के सब उन दिनो को कम से कम एक दिन तो उसी तरह जी लेना चाहते हैं। मगर......!!!


हम सब उड़ गये। हमे उड़ना सिखाने वाले बहुत खुश हुए और बहुत रोये। हम सब ने अपनी अलग अल॓ग दुनिया बना ली है। हम में से किसी को नही मालूम कि हमारा आज का सबसे अच्छा दोस्त कौन है। फेसबुक पर एकदूसरे के अपडेट्स लाइक कर के हम दोस्ती निभा ले रहे हैं।

मगर हमें उड़ने सिखाने वाले, फिर कोई दुनिया नही बसा सकते थे। वे सब बहुत अकेले हो गये। अब वो चबूतरा उनकी बातें सुनता है। हम सब की माँएं शाम होते होते वहीं इकट्ठी हो जाती हैं अब.... उसी चबूतरे पर....!!! वो सब एक दूसरे की बहुत अच्छी दोस्त हैं।


 

10 comments:

अनूप शुक्ल said...

बहुत प्यारा संस्मरण! दोस्ती मुबारक!

बस्तर की अभिव्यक्ति जैसे कोई झरना said...

चूजे बड़े होते हैं, उड़ना सीखते हैं और फिर उड़ जाते हैं ...सिखाने वालों को पीछे छोड़ते हुये.....नई...और नई उड़ान तय करने के लिये ...प्रकृति की यही परम्परा है।

अजित गुप्ता का कोना said...

हमारे पास भी था ऐसा ही एक चबूतरा। मित्रता दिवस पर शुभकामनाए।

neera said...

कुछः सपनों की कीमतें! नियति का नियम को बहुत खूबसूरती से शब्दों से बाँधा है कंचन!

डॉ .अनुराग said...

नीरा जी के शब्द लूँ .....कुछः सपनों की कीमतें!
कितने पंख आज कतरने का मन करता है

.सच कहूँ टाइम मशीन की बड़ी डिमांड है जब भी आएगी सालो साल वोटिंग में लोग खड़े होगे अपना नंबर आने तक

Abhishek Ojha said...

आपके किसी पोस्ट पर टिपण्णी करने जैसा कुछ नहीं होता :)
शायद ये बात फिर से कह रहा हूँ.

Manish Kumar said...

ये चबूतरे किसी ना किसी शक्ल में हम सभी की ज़िंदगी का हिस्सा रहे हैं। ये पोस्ट बहुत सारी पुरानी यादें एक झटके में खींच लायीं।

meemaansha said...

Di, u r writing what will become historical smday.. Flow is always knitted beautifully in ur creations.

हिंदी चिट्ठा संकलक said...

सादर आमंत्रण,
आपका ब्लॉग 'हिंदी चिट्ठा संकलक' पर नहीं है,
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