Monday, April 23, 2012

क्यों ना बैसाखी हवाओं पर चले आते हो तुम भी






पिछले वर्ष  लगभग इन्ही दिनों गुरू जी के ब्लॉग पर ग्रीष्म का तरही मुशायरा  हुआ था। वैशाख आया भी और जाने को भी है, तो सोचा लाइये ये मौसमी बयार यहाँ भी चले.....



दोस्त सी आवाज़ देती, गर्मियों की वो दुपहरी,
और रक़ीबों सी सताती, गर्मियों की वो दुपहरी।

ओढ़ बैजंती के पत्ते, छूने थे जिसको शिखर उस,
ज़िद से करती होड़ सी थी, गर्मियों की वो दुपहरी।

गुड़ छिपे आले में मटके में मलाई की दही है,
राज़ नानी के जताती, गर्मियों की वो दुपहरी।

धप की आवाज़ों पे चौंके कान ले कर दौड़ती फिर,
फ्रॉक में अमिया छिपाती, गर्मियों की वो दुपहरी।

शादियाँ गुड़िया की, गुट्टे और कड़क्को खेलने पर,
त्यौरियाँ माँ की चढ़ाती, गर्मियों की वो दुपहरी।

सर्दियों की रात भर माँगी थी हमने जो दुआएं,
उनको तासीरें दिलाती, गर्मियों की वो दुपहरी

आह में भी लू थी, मन में भी बवंडर धूल जैसे,
इश्क़ में दुगुनी तपी थी, गर्मियों की वो दुपहरी।





शाम को मिलने का वादा, करवटों में जोहती थी,

रात से ज्यादा सताती, गर्मियों की वो दुपहरी।

क्यों ना बैसाखी हवाओं पर चले आते हो तुम भी,
कयों ना तुमको भी सताती, गर्मियों की वो दुपहरी

शोर करती हर तरफ फिरती तुम्हारी याद जानाँ
और सन्नाटे में डूबी गर्मियों की वो दोपहरी





नोटः एक बात जो तब भी लिखी थी, पहला शेर समझने के लिये (मतले के बाद वाला)


गर्मियों को याद करो तो जो बात सबसे पहले याद आती है, वो है ४ साल की उम्र में कम से कम कपड़ो में बैजंती के पत्तों से ढके शरीर का जेठ की चटक दोपहरी में लिटा दिये जाना। उसे काटने का तरीका था, वो सपना जीना जो दीदी बताती रहतीं, बस थोड़ी देर और बस... फिर तुम भी ना माधुरी की तरह, मुन्नी की तरह दौड़ने लगोगी... जैसे बहुत सा कुछ.....मतले के बाद वाला शेर उसी पर लिखा है।


चित्रः साभार गुरू जी श्री पंकज सुबीर  

10 comments:

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

वाह ॥बहुत सुंदर गजल

Unknown said...

Waah Dd Har Lafz. mein Dil Kholkar Rakhnewali Kashish.

Manish Kumar said...

आह में भी लू थी, मन में भी बवंडर धूल जैसे,
इश्क़ में दुगुनी तपी थी, गर्मियों की वो दुपहरी।

शाम को मिलने का वादा, करवटों में जोहती थी,
रात से ज्यादा सताती, गर्मियों की वो दुपहरी।

बेहतरीन अशआर...

दिगम्बर नासवा said...

ये लाजवाब गज़ल पहले भी पढ़ चूका हूँ आज फिर पढ़ के मज़ा आ गया ...

nayee dunia said...

बहुत सुन्दर ....

Pawan Kumar said...

कंचन जी
अच्छी ग़ज़ल .....ये दो शेर गर्मी और सर्दी के तज़ाद के एहसास को किस खूबसूरती से बयाँ कर गए.... !

सर्दियों की रात भर माँगी थी हमने जो दुआएं,
उनको तासीरें दिलाती, गर्मियों की वो दुपहरी

आह में भी लू थी, मन में भी बवंडर धूल जैसे,
इश्क़ में दुगुनी तपी थी, गर्मियों की वो दुपहरी।

प्रतिभा सक्सेना said...

बहुत सुन्दर !

अनूप शुक्ल said...

चकाचक है!

कविता रावत said...

bahut sundar gajal..

Ankit said...

पिछली तरही में जलवा बिखेरने वाली इस ग़ज़ल के बारे में ज्यादा क्या कहें.

मतला बहुत सुन्दर है, उला और सानी का कंट्रास्ट अद्भुत बना है.
"ओढ़ बैजंती के पत्ते..........", बहुत ही भावनात्मक शेर है, इसे पढने पे आह निकल पड़ती है.
"धप की आवाज़ों पे चौंके कान ले कर दौड़ती फिर,...........", लाजवाब, बेमिसाल, मज़ा आ गया. शेर शेर पढ़ते आँखों के सामने यादों की कोई पुरानी फिल्माई हुई रील दौड़ पड़ी है.
"शादियाँ गुड़िया की, गुट्टे और कड़क्को खेलने पर,.................: वाह
"सर्दियों की रात भर माँगी थी हमने जो दुआएं...............", ज़बरदस्त शेर और धांसू कहन.
"आह में भी लू थी, मन में भी बवंडर धूल जैसे............" वाह वा

हर शेर मारक शेर है.