हाल चाल लेने की जनरल कॉल करती हूँ, तो उसकी आवाज़ थोड़ी डल लगती है।
"क्या हाल है?"
"ठीक है।"
" क्या हुआ बड़ा शोर है?"
"हम्म्म.. वो यहाँ आया था ना ! नीरा दी के घर"
"ओके ओके...नीरा ठीक है ?"
" अरे वो मौसी..... वो... नीरा दीदी के ससुर एक्सपायर कर गये।"
"क्या ऽऽऽ ?? हे भगवाऽऽन !"
मैने फोन काट दिया। ३ दिन पहले नीरा की ननद की शादी हुई है। परसो रिसेप्शन के बाद कल ही वो ननद सिंगापुर गई है हस्बैंड के साथ, चूँकि वो एनआरआई है। उसके ससुर अपनी बेटी को एयरपोर्ट छोड़ने गये तो कितने खुश और कितने दुखी थे, जैसा कि नीरा ने कल बताया... और अचानक आज...??
फोन कैसे करूँ नीरा को समझ नही आया। उसके हस्बैण्ड अभी ३२ साल के होंगे इस उम्र में पिता का साया उठना। दुख का रंग कहीं अपना सा लगा।
हिम्मत कर के शाम को फोन किया।
"हेलो"
"हाँ भईया।"
"प्रणाम मौसी"
"......." मुझे उनकी आवाज़ सुनते ही पता नही कैसा लगने लगा। सिसकी शायद वहाँ तक गई।
" अरे मौसी आप प्लीज़ परेशान ना होइये। जो होना था हो गया। अब आप अपने आप को संभालिये।"
अरे ! ये क्या ? मैं संभालूँ ? खुद पर बड़ी शर्म आई। लगा जैसे अजीब ड्रामेबाज हूँ मैं भी। जबर्दस्ती रो रही हूँ। फोन नीरा ने पकड़ लिया।
" मौसी आप रोयेंगी तो तबियत खराब हो जायेगी। देखिये पापा जी तो चले गये। अब रोने से उनकी आत्मा को कष्ट ही होगा।"
मुझे लग रहा था कि कही कोई जगह मिले, कि मैं जल्दी से उसमें समा जाऊँ और अपने ही क्रिएट किये हुए इस ड्रामे का पटाक्षेप करूँ।
दो दिन बाद फिर हाल लिया, तो माहौल खुशनुमा था। नीरा ने कहा " मैं खुद इनके साथ चुहल करती रहती हूँ मासी। जिससे ये अब चीजों से निकलें।" मैने हाँ में हाँ मिलाई "हाँ ये तो होना ही चाहिये।" उसने मुझे फिर से आगाह किया " और मौसी आप भी अपना खयाल रखियेगा। परेशान ना होइयेगा। अब जो हो गया, उसे बदला तो नही जा सकता ना।" मै फिर उसी ड्रामे का अंग महसूस करने लगी खुद को और फोन झट से रख दिया।
नीरा (नाम बदला हुआ) मेरी कोई रिश्तेदार नही। दीदी की पड़ोसी की बहन की पड़ोसी है। इस रिश्ते से मुझे मौसी कहती है, उम्र में मुझसे कुछ बड़ी ही होगी और उसके ससुर को मैने देखा भी नही था।
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अभी एक महीना ही हुआ था उस घर में आये हुए। सुबह दीदी के घर गई तो अंकल डॉ० के पास जा रहे थे।
लंच लेने के बाद विजू और पिंकू ये कह के घर चले गये कि आज छत पर रहेंगे थोड़ी देर। मुझे शाम की चाय दीदी के साथ पीने के बाद आना था।
दीदी के चाय बनाने को उठने के ठीक पहले फोन आता है।
"फोन मौसी को दीजिये ज़रा।" मैने फोन दीदी को दे दिया।
दीदी कुछ बोल नही रही थीं। मुझे लगा कुछ गड़बड़ है।
"क्या हुआ ?"
" कुछ नही, रुको, चाय बना लाऊँ।"
"नही पहले बताओ तो ? कुछ बात है, क्या हुआ ? "
" अरे वो विजू कह रहा था कि मौसी को आज अपने ही पास रोक लीजिये"
"क्यों ?"
"ऐसे ही, कह रहा है कि कल संडे है, क्या करेंगी आ कर।"
" अरे तुम सही बताओ ?" मैने हड़बड़ाते हुए पूछा।
" ये लोग घर पहुँचे तो देखा तुम्हारे घर पर भीड़ लगी है और तु्म्हारे लैण्डलॉर्ड की बॉडी बॉउण्ड्री में रखी है।"
" हम जा रहे हैं दीदी।"
" रुको हम भी चलते हैं तुम्हारे साथ। ऐसे अकेले गाड़ी नही चलाने देंगे।"
आंटी बैठी थी शरीर के पास। उनके आँसू धार-ओ-धार निकल रहे थे। पास में बैठी महिलाएं शांत बैठी थीं। क्षेत्रीय रिश्तेदार भी। एचआईजी मकानों वाले इस मोहल्ले में मैने आज तक किसी को चिल्ला के, गला फाड़ के, विह्वल हो के, बिलख के रोते नही देखा।
मैं आंटी के पास जा कर बैठ गई। उन्होने मेरा हाथ पकड़ लिया औड़ आँसू की धार और तेज हो गई। दोनो बच्चे दिल्ली में थे। फ्लाईट से चल चुके थे। आंटी को पानी पिलाया जा रहा था, चाय पिलाने की कोशिश के लिये़ दूसरे टेनेंट के घर उनकी मेड को भेजा, तो उन्होने जाली के अंदर से बड़ी सभ्यता से जवाब दिया "रुनझुन बस अभी सोई है। शोर होने से डिस्टर्ब हो जायेगी।"
चूँकि मेरे घर के में दोनो लड़के थे, इसलिये वो जाने में संकोच कर रही थी। मैने उसको परमीशन दी। और फिर रात में थोड़ी थोड़ी देर में चाय बनवाती रही। बेटे के आने के बाद जब आंटी के बगल में वो बैठ गया, तब घर में आई। मुझे सामने पड़ा शरीर अपने पिता के शरीर की याद दिला रहा था, आंटी अम्मा की और वो दोनो लड़के दोनो भाईयों की
सुबह आंटी मेरे ही कमरे में आ गई और महिलाओं की भीड़ यहीं इकट्ठा हुई। मोहल्ले की महिलाएं आँखों आँखौं में एक दूसरे से बात कर लेतीं, फिर बातों बातों में। अचानक कान में आवाज़ आई।
"कलर अभी लगाया क्या?"
"हम्म्म"
"कौन सा लगाती हो?"
"बसमोल"
" गार्नियर लगाया करो यार। मँहगा है लेकिन एक महीने की छुट्टी हो जाती है।"
आंटी चिल्ला रहीं थीं।" मुझे भी साथ ले चलो जी। कभी कुछ करने नही दिया। अब कैसे करूँगी अकेले इस उम्र में।"
शरीर जाने के बाद सफाई करती हुई मेड के गुनगुनाने की आवाज़ सुनकर मैने कहा " इस घर से अभी मिट्टी उठी है। एक हफ्ते बाद गाना गा लेना।" समझ नही आ रहा था कि गुस्सा कहाँ निकालूँ।
शाम को आंटी के घर से खूब हँसी की आवाजे आ रहीं थी। मुँह अजीब सा बना मेरा। बड़े लोग...! आंटी बेचारी कैसे बर्दाश्त कर रही होंगी।
वो सीढ़ियाँ चढ़ना बहुत बड़ी कवायद था मेरे लिये। मगर आंटी से मिलना चाह रही थी। किसी तरह गई। सामने कुर्सी डाल दी गई और आंटी भी वहीं आ गई। आई हुई रिश्तेदार ने फिर से एक जोक मारा। पब्लिक फिर से ठहाका मार उठी। मुझे हँसना अपराध लगा। आंटी ने मुस्कुराते हुए कहा। "बेटा, वो वाला किस्सा सुनाओ, नाना जी वाला । उसने हँस हँस के पूरी मिमिक्री के साथ नानाजी का किस्सा सुनाया, अबकी बार आंटी के साथ मैं भी हँसी।
आंटी ने कहा कि यही सब सुना रही है ये। उसने भी मनोविज्ञान की छात्रा की तरह कहा " अब रोने से क्या, जतनी जल्दी हो सके, निकलो इन सब से।"
मैने भी कहा " हाँ सही है। रो के कहाँ जिंदगी बीतनी है।"
सुबह आफिस को तैयार होते समय आंटी की बहन आई। "बेटा मुझे ज़रा अपने घर की चाभी दे जाना। २ बजे मायका आयेगा ना। अब वहाँ तो टी०वी० चला नही सकते। अच्छा नही लगता ना....!! "
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किस्से ऐसे बहुत सारे हैं। सोच रहीं हूँ कि इस बात को इतना सोच क्यों रही हूँ....गलत क्या है ऐसा करने में ???
23 comments:
हैरान क्यों हो जो दो दुश्मन गले मिल रहे हैं,
लगता है तुम कभी किसी इनामी महफ़िल से नहीं गुज़रे.
kalam par pakad kahin nahin chutti
badhaii
किसी के जाने का दुःख सब को नहीं होता जिन्हें होता है उन्हें आप बहला नहीं सकते...दुःख बहुत व्यक्तिगत बात है...अधिकतर लोग सिर्फ दिखावे को दुखी होते हैं...कहानी के जरिये बहुत कुछ कह दिया है आपने...
नीरज
हमने भी थोडा बहुत ऐसा देख-फील किया है कई बार. पहली बार जब कुछ १४-१५ की उम्र थी, वो नहीं भुला अभी तक. पड़ोस में हुई घटना और मेरे घर में बैठकर चर्चा करते मृतक के दोस्त पूरी रात सुना था.
बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया मेरे आगे.
होता है शब्-ओ-रोज़ तमाशा मेरे आगे.
तो....
किस किस को याद कीजिये किस किस को रोइए?
कई बार हम ओवर रिएक्ट कर जाते हैं....
और फ़िर वही कोंसीक्वेंसेज़ . :)
बहुत ही बढ़िया रचना है.दुःख सिर्फ फील करने वालों को होता है.आपने बहुत ही अच्छे तरीके से बात को पकड़ा है.शुभ कामनाएं
अच्छा आलेख
समझ नहीं आ रहा की क्या कहूँ
अक्सर ऐसे समय कुछ सूझता ही नहीं कहने को, बस ये शेर याद आ रहा है
कौन कितना रो रहा है जायज़ा लेते रहे सब
क्या किसे कैसे है करना मशविरा लेते रहे सब...
इसके आगे कुछ नहीं लिख पाया
कंचन व्यथित करती है तुम्हारी ये पोस्ट
लेकिन हक़ीक़त से बहुत क़रीब है ,नीरज जी की बात से सहमत हूं कि दुख जिस का है बस वही समझ सकता है, समय और moral support सामयिक तौर पर सहारा दे सकते हैं
दुनिया आज कल फीलिंग्स से छुट्टी पर चल रही है.
हकीकत कुरेदती है, कचोटती है, व्यथित करती है और सोचने पर मजबूर कर देती है.
अच्छा लगा !
भावुक और संवेदनशील होना आउट आफ फैशन होता जा रहा है जो नया फैशन करना सीख नहीं सकते .. अपराध बोध से ही घिरे रहना ही उनकी नियति है ...
एक चित्र यह ,जो तुमने दिखाया है और दूसरा चित्र वह जो गाँव देहातों में देखा है,जहाँ रोते समय ले ताल में मरने वाले के बारे में बखान करते हुए लोग सप्तम सुर में रोते हैं...पर दोनों ही में ,शरीर मिट्टी में मिली नहीं की लोग इससे उबरने के इन्ही उक्तियों में लग जाते हैं...
बड़ा बड़ा अजीब लगता है...बहुत कुछ वैसी ही अनुभूति होती है,जैसी श्मशान में शवदाह देखते समय होती है...
अपार विरक्ति...
संवेदनशीलता का ग्राफ कैसी तेजी से गिरता ही चला जा रहा है...नहीं???
Di! kuchh bhi na kahkar bahut kuchh kah diya aapne....aapko padhte time toh usme doob jati hoon mai....sach Di ....
& take care Di... :)
आज के दौर मे संवेदनाये खत्म हो चुकी हैं यहाँ तक कि जिसका खास होता है उसकी भी……………वो तभी कहा गया है ------मरने वाले के साथ मरा नही जाता शायद इसीलिये लोग अब जीने लगे हैं।
पोस्ट पढ़ता गया और मन अजीब-सा होता गया। दो शेर याद आ रहे हैं। एक को दर्पण पहले ही सुना चुका है...
किस-किस को सोचिये किस-किस को रोईये
आराम बड़ी चीज है मुँह ढ़ांप के सोइये
और फिर कुछ और याद आया यूं कि
कौन रोता है किसी और की खातिर ऐ दोस्त
सबअको अपनी ही किसे बात पे रोना आया
keep smiling sis!
रंजना जी की टिप्पणी सामाजिक व्यवस्था के "शिफ्ट ' को ब्यान करती है.....मोबाइल ने दुःख के टाइम पीरियड को ओर भी कम कर दिया है .....जिंदगी इतनी अजीब है .के डर लगता है अपने जाने बाद कित्ते लोग कित्ते मिनट याद रख सकेगे ........
बहुत अजीब है ये दुनिया भी ...
संवेदनाये??? WTF is that?
@Kush: :-D
कंचन जी , आपका ' observation ' कमाल का है ! इस औघड़ दौर और प्रदर्शन के कालखंड में सब कुछ संभव है ! आपका लेखन सोचने को मजबूर करता है !
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