गुरुवर का आदेश है कि इस सप्ताह चूँकि राकेश खण्डेलवाल जी की पुस्तक अंधेरी रात का सूरज का विमोचन हो रहा है अतः सभी शिष्यों को एक पोस्ट उनसे संबंधित लगानी है.... ! गुरुवर का आदेश सिर माथे पर।
तो राकेश जी जिन्हे मैंने ब्लॉग का नीरज नाम दिया है, उनके प्रभाव मे मै तब से आई हूँ जब से मैं इस ब्लॉग जगत में आई हूँ। जून २००७ से ब्लॉगिंग शुरू करने के बाद जब मै कुछ अच्छी कविताओं के लिये ब्लॉग सर्फिंग कर रही थी, तभी मेरि दृष्टि राकेश जी की एक कविता पर पड़ी जो इस प्रकार थी
आह न बोले, वाह न बोले
मन में है कुछ चाह न बोले
जिस पथ पर चलते मेरे पग,
कैसी है वो राह न बोले,
फिर भी ओ आराध्य ह्रदय के पाषाणी !
इतना बतला दो
कितने गीत और लिखने हैं ?
कितने गीत और लिखने हैं,
लिखे सुबह से शाम हो गई
थकी लेखनी लिखते लिखते,
स्याही सभी तमाम हो गई
तुरंत मैने एक हार्ड कॉपी सुरक्षित की और राकेश जी की सारी कविताएं पढ़ डाली। एक समस्या जो तब से अब तक आती है कि आखिर उनकी कविताओं की प्रशंसा के लिये नए शब्द कहाँ से लाए जाएं..? वही क्या बात है....! वही कुछ कहने को नही...!वही निश्शब्द हूँ मैं... !वही मन को भीतर तक छू गई....! खुद को बनावटी लगने लगते हैं अपने शब्द..! कभी कभी पढ़ के बस वापस लौट आती हूँ, बिना कोई कमेंट किये।
तो यूँ गीत कलश पान हेतु मेरा तो जाना अक्सर ही होता था, पर कष्ट इस बात का रहता था कि मैं क्यों नही थोड़ा सा अच्छा लिखती कि कभी वो भी मेरे गवाक्ष तक आएं, और मुझे पता था कि यदि राकेश जी कभी कुछ कहेंगे तो अवश्य वो लेन देन या मन रखने हेतु तो नही ही होगा और कवि की प्रशंसा हो या निंदा मगर उचित मूल्यांकन उसकी सबसे बड़ी निधि होती है शायद। ब्लॉग जगत ने मुझे निराश तो नही किया कभी, जैसा मैं लिखती थी उस हिसाब से ठीक ठाक प्रतिक्रियाएं मिलती रहीं, लेकिन कष्ट इस बात का होता था कि जिनके हम प्रशंसक हैं, वो हम पर निगाह क्यों नही डालते। अपने ब्लॉग गुरु मनीष जी से यह कष्ट बाँटा भी,कि कभी राकेश जी मेरी कविता की प्रशंसा नही करते? तो उन्होने सलाह दी कि "आप उनकी निगाह में नहीं आई होंगी, उनको खुद अपनी कविताएं मेल कर दीजिये।" लेकिन मुझे लगा कि ये तो न्यौता दे कर बड़ाई कराना होगा। कोई भी विनम्र व्यक्ति इतने पर तो प्रोत्साहन देगा ही। खैर ५ फर०, २००८ का वह दिन आया जब राकेश जी की पहल टिप्पणी मेरी किसी पोस्ट पर आई (यद्यपि वो मेरी किसी कविता पर नही नीरज जी की कविता पर थी)। जैसा कि मैने उन्हे मेल मे लिखा कि मेरे लिये "उनका आना शबरी की कुटिया में राम का आना था।" ये बात शब्दशः सत्य थी। खैर उनके जैसे व्यक्तित्व का तुरत विनम्र उत्तर आना तो स्वाभाविक ही था और इस प्रकार उनका आना जाना गवाक्ष की तरफ हुआ लेकिन मेरी पोस्ट पर उनकी हर टिप्पणी से भी अधिक प्रभावकारी उनकी वे दो टिप्पणी हैं मेरे लिये जो मेरी कविता के लिये सीधे मेरी मेल पर आई। मैने महसूस किया कि वो हृदय से मुझ पर स्नेहाशीष रखते हैं। वे टप्पणियाँ मेरी पोस्ट अब तुम मुझको .... और पर सुलगती ये ...... पर आईं जो इस तरह हैं।
कंचनजी
नमस्कार,
आपका यह गीत पढ़ा. सुन्दर भाव और शिल्प भी अच्छा है लेकिन कहीं कहीं प्रवाह अटकता है. कारण या तो टंकण दोष है या शब्दों के प्रवाह पर आपने ध्यान नहीं दिया.
आशा है आप मेरी स्पष्ट वादिता को अन्यथा नहीं लेंगी. गीत की गेयता के लिये प्रवाह एक आवश्यकता है. एक और त्रुटि की ओर ध्यान दिला रहा हूँ. कॄपया गीत में सम्बोधन एक ही रखें. अगर तुम का प्रयोग है तो तुम ही और तू का तो तू ही.
कुछ शब्द संगीत के माध्यम से तो लघु और दीर्घ स्वर होते हुए भी चल जाते हैं लेकिन पढ़ने में अटकते हैं. अगर आप को मेरे शब्द उचित न लगें तो क्षमाप्रार्थी हूँ. मुझे व्यर्थ हां में हां मिला कर टिप्पणी अपने पसन्द के ब्लागों पर लिखना नहीं आता. अगर औपचारिकतावश करनी होती तो शायद मैं भी तारीफ़ ही करता, दोष नहीं निकालता.
सादर,
राकेश खंडेलवाल
खत्म हुआ एक सफर मेरा, अब मंजिल पाई तुमको पा कर !
तेरी सोच में दिन कट जाये, तेरी सोच में कटती रातें !
और
कंचन जी,
नमस्कार,
जैसा मैने अपनी टिप्पणी में लिखा था आपके सुन्दर गीत में एक शाब्दिक त्रुटि की ओर आपका ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ
निम्नता लो, उच्चता लो,
इक कोई स्तर बना लो।
और उस स्तर पे थम के,फिर मुझे अनुरूप ढालो।
अकसर ऐसा होता है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश और बिहार के अंचल में स्तर को इस्तर की तर्ह बोला जाता है. यही नहीं स्नेह, स्कूल आदि शब्द आंचलिकता के कारण उच्चारण दोष से ग्रसित होते हैं गाते हुए तो आपका गीत ठीक लगेगा क्योंकि सुर को दीर्घ कर बोल दिया जायेगा लेकिन सही नहीं होगा.
उदाहरण के लिये
वर दे वीणा वादिनी वर दे
काट अंध उर के बंधन स्तर
बहा जननि ज्योर्तिमय निर्झर
कलुष भेद तम हर प्रकाश भर
जगमग जग कर दे
यहाँ स्तर को लघु सम्मिश्रित ही गाया और बोला जायेगा. यदि इस्तर बोला जाये तो मात्रा दोष दिखेगा और वह गलत भी होगा.
आशा है आप मेरी बात को अन्यथा नहीं लेंगी.
आपके लेखन में निरन्तर प्रगति हो, यही कामना है,
शुभकामनाओं सहित
राकेश
चलते चलते राकेश खण्डेलवाल जी पुस्तक अँधेरी रात का सूरज के विमोचन के अवसर पर शुभकामनओं के साथ गुनगुनाइये उनका लिखा एक गीत (राकेश जी के ब्लॉग विन्यास की विशेषता अथवा मेरी अनभिज्ञता किन्ही कारणों से exact लिंक नही दे पा रही हूँ जून, २००७ के आर्काइव का लिंक क्लिक करें यहाँ दूसरे नं० पर २२ जून, २००७ को पोस्ट है यह कविता) जो मुझे बहुत प्रिय है।
एक तुम्हारा प्रश्न अधूरा, दूजे उत्तर जटिल बहुत था
तीजे रुंधी कंठ की वाणी, इसीलिये मैं मौन रह गया
बचपन की पहली सीढ़ी से यौवन की अंतिम पादानें
मंदिर की आरति से लेकर मस्जिद से उठती आजानें
गिरजे की घंटी के सुर में घुलती हुई शंख की गूँजें
थीं हमको आवाज़ लगातीं हम आकर उनको पहचानें
लेकिन पिया घुटी में जो था, उसका कुछ प्रभाव ऐसा था
परछाईं में रहे उलझते, और सत्य हो गौण रह गया
लालायित हम रहे हमेशा, आशीषों के चन्द्रहार के
और अपेक्षित रहे बाग के दिन सारे ही हों बहार के
स्वर्ण-पत्र पर भाग्य लिखेगा सदा, हमारा भाग्य नियंता
और कामनायें ढूंढ़ेंगी, रह रह कर हमको पुकार के
जब ललाट पर लगीं उंगलियां, हमने सोचा राजतिलक है
देखा दर्पण में तो पाया, केवल लगा डिठौन रह गया
सदा शीर्ष के इर्द गिर्द ही रहीं भटकतीं अभिलाषायें
और खोजतीं केवल वे स्वर, जो श्रवनामॄत मंत्र सुनायें
पक्षधार हो द्रोण, कर सके, एकलव्य हर एक नियंत्रित
और दिशायें विजयश्री की धवल पताकायें फ़हरायें
जीवन के इस बीजगणित के लेकिन समीकरण सब उलझे
जो चाहा था पूरा हो ले, वो ही आधा-पौन रह गया
जहां लिया विश्राम काल की गति ने एक निमिष को रुककर
थमे हुए हैं जीवन के पल, अब तक उसी एक बिन्दु पर
राजसभा में ज्यों लंका की, पांव अड़ाया हो अंगद ने
या इक राजकुंवर अटका हो, चन्दा को पाने के हठ पर
बारह बरस बदल देते हैं, मिट्टी की भी जर्जर काया
ढूंढ़ रहा हूँ कोई बताये, ये सब बातें कौन कह गया ?
19 comments:
कंचन जी आपने बहुत अच्छा आलेख लिखा है राकेश जी के विमोचन का सार्थक कर दिया है आपके लेख ने ।
वाकई उनकी कविताएं अपने आप में पूर्ण है.....वैसे भी जिनके नीरज जी ओर आप जैसे लोग फैन हो ...वे विलक्षण ही होंगे
कंचन जी,
गुरूजी (राकेश जी)के बारे में इतनी प्यारा और सरलता पूर्ण लेख लिखने के लिये आपको बधाई! गुरू जी के लिये बस इतना कहूँगी कि वो पारस सम हैं , भावना और व्यक्तित्वों दोनों को सोना बनाने में माहिर !
सादर
शार्दुला
कंचन जी, मैं मंत्रमुग्ध हूँ. एक विराट व्यक्तित्व को समर्पित मनभावन आलेख!
"एक तुम्हारा प्रश्न अधूरा, दूजे उत्तर जटिल बहुत था
तीजे रुंधी कंठ की वाणी, इसीलिये मैं मौन रह गया"
राकेश जी से जुड़े संस्मरणों के लिए धन्यवाद ! इस विनम्र महा कवि की उपरोक्त कविता का लिंक अगर दे देतीं तो बहुत अच्छा रहता ! धन्यवाद !
बहुत सुन्दर आलेख. निश्चित ही राकेश जी की रचनाओं पर टिप्पणी करना एक बहुत कठिन कार्य होता है.
सतीश जी लिंक देने में कछ समस्या आने के कारण नही दे रखा था, परंतु आसपास पहुँचाने का प्रयास
कर के पोस्ट संशोधित कर दी है।
राकेश जी जैसे विलक्षण कवि के लिए जितना भी लिखा कहा जाए कम है...ऐसी विभूतियाँ सदियों में अवतरित होती हैं...नमन है उन्हें...
नीरज
बहुत अच्छा लिखा है आपने ..राकेश जी कि कविताएं बहुत सार्थक होती हैं ..
rakesh jii ke blog per aksar hi bina comment kiye chaley aaney ki majbuuri meri bhi hai...padhna/seekhna per suraj ko diya kya dikhaana...
वाकई
अद्भुत काव्य क्षमता से परिपूर्ण राकेश जी पर आपकी पोस्ट ने सोने पर सुहागे का काम किया है
बधाई
कल वाशिंगटन डी.सी. में होने वाले कवि सम्मेलन और राकेश जी की पुस्तक के विमोचन समारोह में सम्मिलत होने की उत्सुकता के साथ ...
कविवर राकेश जी को अनेकों बधाई और आपको भी इस अनूठे विमोचन समारोह पर ..
सस्नेह
Lavanya
बहुत अच्छा लिखा आपने...राकेश जी की कविताओं और उनके बारे में जानकारी मिली!निस्संदेह वह बहुत ही उम्दा कवि हैं!
सुंदर,अति सुंदर...क्या बात है मैम....प्रशंसा तो कर रहा हूँ आपके आलेख की और साथ में जलन भी हो रही है कि राकेश जी ने इतने मनोरम टिप्पणियों से नवाजा आपको.
मजाक कर रहा हूँ----ढेरों शुभकामनायें
राकेश जी की टिप्पणियॉं आपके ब्लॉग पर अद्भुत तरीके से आपका मार्गदर्शन करेगी और आपकी कविताओं को और प्रभावशाली बनायेगी ऐसी आशा है, शुभकामनाओं सहित . . . .
सुनील आर.करमेले,
इन्दौर
राकेश जी विमोचन की बधाई और आपको भी उनपर केन्द्रित इतनी सुन्दर पोस्ट के लिए।
एक तुम्हारा प्रश्न अधूरा, दूजे उत्तर जटिल बहुत था
तीजे रुंधी कंठ की वाणी, इसीलिये मैं मौन रह गया
wah kya baat hai.
Asha hai Rakesh ji ki ye pustak safalta ke naye aayaam prapta karegi.
इतनी सारी शुभकामनायें, इतना अपनापन और बिखरते हुए शब्द हाथ में पकड़े
व्यस्तताओं से जूझता मैं. यद्यपि मेरा प्रयास होता है कि सभी को व्यक्तिगत
तौर पर संदेशों के उत्तर लिखूँ. इस बार ऐसा होना संभव प्रतीत नहीं हो रहा है
इसलिये सभी को सादर प्रणाम सहित आभार व्यक्त कर रहा हूँ. भाई समीरजी,
पंकज सुबीरजी, सतीश सक्सेनाजी. नीरज गोस्वामी जी, कंचन चौहान जी,
गौतमजी, रविकान्तजी, मीतजी, राजीव रंजन प्रसादजी, पारुलजी संजय पटेलजी.
पुष्पाजी, मोनिकाजी, रमेशजी, रंजनाजी, रंजूजी, सीमाजी,अविनाशजी,फ़ुरसतियाजी,
लवलीजी,अजितजी,योगेन्द्रजी,पल्लवीजी,लावण्यजी,शारजी,संगीताजी,अनुरागजी,मोहनजी,
तथा अन्य सभी मेरे मित्रों और अग्रजों को अपने किंचित शब्द भेंट कर रहा हूँ
मन को विह्वल किया आज अनुराग ने
सनसनी सी शिरा में विचरने लगी
डबडबाई हुई हर्ष अतिरेक से
दॄष्टि में बिजलियाँ सी चमकने लगीं
रोमकूपों में संचार कुछ यूँ हुआ
थरथराने लगा मेरा सारा बदन
शुक्रिया लिख सकूँ, ये न संभव हुआ
लेखनी हाथ में से फ़िसलने लगी
आपने जो लिखा उसको पढ़, सोचता
रह गया भाग्यशाली भला कौन है
आपके मन के आकर निकट है खड़ा
बात करता हुआ, ओढ़ कर मौन है
नाम देखा जो अपना सा मुझको लगा
जो पढ़ा , टूट सारा भरम तब गया
शब्द साधक कोई और है, मैं नहीं
पूर्ण वह, मेरा अस्तित्व तो गौण है
जानता मैं नहीं कौन हूँ मैं, स्वयं
घाटियों में घुली एक आवाज़ हूँ
उंगलिया थक गईं छेड़ते छेड़ते
पर न झंकॄत हुआ, मैं वही साज हूँ
अधखुले होंठ पर जो तड़प, रह गई
अनकही, एक मैं हूँ अधूरी गज़ल
डूब कर भाव में, पार पा न सका
रह गया अनखुला, एक वह राज हूँ
आप हैं ज्योत्सना, वर्त्तिका आप हैं,
मैं तले दीप के एक परछाईं हूँ
घिर रहे थाप के अनवरत शोर में
रह गई मौन जो एक शहनाई हूँ
आप पारस हैं, बस आपके स्पर्श ने
एक पत्थर छुआ और प्रतिमा बनी
आपके स्नेह की गंध की छाँह में
जो सुवासित हुई, मैं वो अरुणाई हूँ.
सादर
राकेश खंडेलवाल
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