२७ अक्टूबर २००१ को लिखी गई ये कविता आप के साथ बाँट कर के फिर से याद कर रही हूँ ......!
दोस्त तुम्हारे दम पर मैने ये सारा जग छोड़ दिया है,
अब तुम मुझको छोड़ न जाना...!
न जीने की चाह थी कोई, न मरने का कोई डर था,
मंजिल कहाँ, मेरी कोई थी , सूना लंबा एक सफर था !
पर तुमसे मिल कर जाने क्यों, अब जीने का जी करता है,
मौत जुदा कर देगी तुमसे, अब मरने से डर लगता है..!
दोस्त तुम्हारे पथ पर मैने, इन कदमों को मोड़ लिया है,
अब तुम ही मुख मोड़ ना जाना...!
जाने कितने अंजाने, दरवाजों पर दस्तक दी हमने,
तब जा कर तुम में पाया है, मन चाहा अपनापन हमने !
ठहर गई मेरी तलाश, अब साथी तेरे दर तक आ कर,
खत्म हुआ एक सफर मेरा, अब मंजिल पाई तुमको पा कर !
दोस्त तुम्हारी खातिर दुनिया से नज़रों को मोड़ लिया है,
अब तुम नज़रे मोड़ ना जाना
तुम हो तो हैं कितने सपने, तुम हो तो हैं कितनी बातें,
तेरी सोच में दिन कट जाये, तेरी सोच में कटती रातें !
तुम मेरे अपने हो जानूँ, फिक्र नही अब कौन है अपना,
दिन में मेरी हक़ीकत हो तुम, रातों में तुम मेरा सपना।
जीवन का लमहा लमहा तेरी यादों से जोड़ लिया है,
तुम इनमे गम जोड़ न जाना
सूचनाः कल महावीर शर्मा जी के ब्लॉग पर एक कवि सम्मेलन/मुशायरा का आयोजन, हम भी पहुँचेंगे, आप भी पहुँचियेगा
20 comments:
तुम हो तो हैं कितने सपने, तुम हो तो हैं कितनी बातें,
तेरी सोच में दिन कट जाये, तेरी सोच में कटती रातें !
तुम मेरे अपने हो जानूँ, फिक्र नही अब कौन है अपना,
सुंदर लगी आपकी कविता
seedhey saral sachey bhaav...
sundar Bhav !!
Bahut umda rachna. Achcha laga padh kar. Kal mulakaat hogi Mahavirji ke blog par. :)
वाह कंचन....उस वक़्त के अहसास अब भी दिखते है.....आज का दिन तो व्यस्त गुजरा कल आप के मुशायरे में हाजिरी देने की कोशिश करेंगे....
बहुत सुन्दर !
घुघूती बासूती
गहरी सँवेदना से लिखी कविता ...
पढवाने का शुक्रिया --
स्नेह,
- लावण्या
सुन्दर एवं हृदयस्पर्शी कविता है, बधाई।
sundar aur bhaavpoorn lagi aapki ye kavita...
जाने कितने अंजाने, दरवाजों पर दस्तक दी हमने,
तब जा कर तुम में पाया है, मन चाहा अपनापन हमने !
ठहर गई मेरी तलाश, अब साथी तेरे दर तक आ कर,
खत्म हुआ एक सफर मेरा, अब मंजिल पाई तुमको पा कर !
दोस्त तुम्हारी खातिर दुनिया से नज़रों को मोड़ लिया है,
अब तुम नज़रे मोड़ ना जाना
bahut sundar kanchan ji....dil ke taaron ko chhooti huyi bahut hi jazbaati nazm....bahut khoob
hum mushayre me bhi ho aye....Bahut sundar, jab kahi sangoshti hoti hai to weightage bhi dekha jata hai sath wale logo se, apki kavita abbal darje ki hai....bahut sundar di.aap itne aala darje ke logo ke beech, sach man khush ho gaya... aur bahuton ko to peechhe chhod diya apne....ultimate !!! I m so happy.
भाव भीनी रचना..
bahut dinon baad aapki koyi kavita dikhi..nirantara banaye rakhein..
बहुत अच्छी रचना है. अगर आपकी इजाजत हो तो क्या मैं इसे अपने दोस्तों को भेज सकता हूं?
bhej deejiye bahi ravindra ji, mai to acchi rachnaaye bhejne ke liye ijajat bhee nahi leta, lekhak ya kavi ko jo karna ho kar le.
इन सब टिप्पणियों के अलावा एक और महत्वपूर्ण टिप्पणी मुझे मिली जो कि राकेश खण्डेलवाल जी की है। कहीं मुझे कष्ट न हो इसलिये उन्होने मुझे मेरे मेल पर ये टिप्पणी दी। परंतु मुझे हृदय से ये बात प्रसन्न कर गई कि वो मुझ पर सच्चा स्नेह रखते हैं, वो मुझमें त्रुटियाँ नही देखना चाहते हैं। उनके प्रति आभार प्रकट करते हुए मैं उनकी टिप्पणी यहाँ दे रही हूँ, जिससे मूल्यांकन करने वाले भीन त्रुटियों से अवगत हो जाएं एवं अपनी त्रुटियों में भी सुधार कर सकें।
टिप्पणी कुछ यूँ है
कंचनजी
नमस्कार,
आपका यह गीत पढ़ा.सुन्दर भाव और शिल्प भी अच्छा है लेकिन कहीं कहीं प्रवाह अटकता है. कारण या तो टंकण दिष है या श्ब्दों के प्रवाह पर आपने ध्यान नहीं दिया.आशा है आप मेरी स्पष्ट वादिता को अन्यथा नहीं लेंगी.गीत की गेयता के लिये प्रवाह एक आवश्यकता है.एक और त्रुटि की ओर ध्यान दिला रहा हूँ. कॄपया गीत में सम्बोधन एक ही रखें. अगर तुम का प्रयोग है तो तुम ही और तू का हैओ तो तू ही. कुछ शब्द संगीत के माध्यम से तो लघु और दीर्घ स्वर होते हुए भी चल जाते हैं लेकिन पढ़ने में अटकते हैं.अगर आप को मेरे शब्द उचित न लगें तो क्षमाप्रार्थी हूँ.मुझे व्यर्थ हां में हां मिला कर टिप्पणी अपने पसन्द के ब्लागों पर लिखना नहीं आता. अगर औपचारिकतावश करनी होती तो शायद मैं भी तारीफ़ ही करता,दोष नहीं निकालता.
सादर,
राकेश खंडेलवाल
न जीने की चाह थी कोई, न मरने का कोई डर था,
मंजिल कहाँ, मेरी कोई थी , सूना लंबा एक सफर था !
पर तुमसे मिल कर जाने क्यों, अब जीने का जी करता है,
मौत जुदा कर देगी तुमसे, अब मरने से डर लगता है..!
दोस्त तुम्हारे पथ पर मैने, इन कदमों को मोड़ लिया है,
अब तुम ही मुख मोड़ ना जाना...!
जाने कितने अंजाने, दरवाजों पर दस्तक दी हमने,
तब जा कर तुम में पाया है, मन चाहा अपनापन हमने !
ठहर गई मेरी तलाश, अब साथी तेरे दर तक आ कर,
खत्म हुआ एक सफर मेरा, अब मंजिल पाई तुमको पा कर !
दोस्त तुम्हारी खातिर दुनिया से नज़रों को मोड़ लिया है,
अब तुम नज़रे मोड़ ना जाना
तुम हो तो हैं कितने सपने, तुम हो तो हैं कितनी बातें,
तेरी सोच में दिन कट जाये, तेरी सोच में कटती रातें !
तुम मेरे अपने हो जानूँ, फिक्र नही अब कौन है अपना,
दिन में मेरी हक़ीकत हो तुम, रातों में तुम मेरा सपना।
जीवन का लमहा लमहा तेरी यादों से जोड़ लिया है,
तुम इनमे गम जोड़ न जाना
जाने कितने अंजाने, दरवाजों पर दस्तक दी हमने,
तब जा कर तुम में पाया है, मन चाहा अपनापन हमने !
बहुत ही उम्दा नज़्म है आपकी ....काबिले-तारीफ़.
भाव पूर्ण
संवेदना-समृद्ध रचना.
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डा.चन्द्रकुमार जैन
पहली बार आपके ब्लॉग पर आया. बहुत अच्छी लगी. आता रहूँगा और कवितायें पढने. शुक्रिया!
wah wah
kintu-parantu
लेकिन खण्डेलवाल जी की सूचनार्थ एक बात ये भी है कि कुछ कविताएं मात्र स्वान्तः सुखाय ही होती हैं कविता के अधिकतर ब्लाग्स पर यही स्थिति है और यह तब ठीक होगी जब ब्लागर कवि स्वयं चाहेगा
राकेश जी ने हिम्मत कर जो सन्मति दी है मुझे यक़ीन हैं कि कंचन ही नहीं अन्य ब्लागर कवि भी उसका अनुसरण करेंगें
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