Monday, January 28, 2008

साँझ के कंधे पर धर शीश,




दैनिक जागरण में देवेन्द्र शर्मा "इंद्र" की ये कविता तब की है जब मैं वो सब अपनी डायरी में लिखती जो आज ब्लॉग में लिखती हूँ..मुझे पसंद आई तो आप से बाँट रही हूँ..!

साँझ के कंधे पर धर शीश,
उदासी बहुत बहुत रोई।।

अकेलेपन की गूँगी नियति, झेलती रही उजाड़ पहाड़,
किसी आने वाले के लिये, रहे पलकों के खुले किवाँड़।
धुँए ने घिर कर चारों ओर,
दृष्टि में कड़वाहट बोई।।

काल की वंशी की सुन टेर, दिवस उड़ गया खोल कर पंख,
थिर हुए नीराजन के मंत्र, गूजते रहे मौन के शंख
अधूरेपन की निष्ठुर शिला,
रात भर साँसों ने ढोई।।

समय का घूमा ऐसा चक्र, प्रीति बन गई असह परिताप,
तिमिर की धुँधलाई पहचान, फला किस दुर्वाषा का शाप।
मुद्रिका परिणय की अंजान,
कहाँ,कब, कैसे क्यों खोई।।


कहाँ बिछड़े वो आश्रम सखा, पिता का छूटा पीछे गेह,
सत्य की परिणिति कैसी क्रूर, स्वप्न हो गया स्वजन का नेह।
रंगमय और हुई तसवीर,
आँसुओं ने जितनी धोई।।

साँझ के कंधे पर धर शीश,
उदासी बहुत बहुत रोई।।

10 comments:

Unknown said...

बहुत कठिन भाषा है। साथ में कविता का अर्थ भी होता तो अच्छा था। समझने में मुश्किल हो रही है।

Manish Kumar said...

शुक्रिया इस कविता को पढ़वाने के लिए। साथ में देवेंद्र जी के बारे में भी कुछ बतातीं तो बेहतर होता।

पारुल "पुखराज" said...

wah..bahut sundar kavita....thx kanchan ...bahut acchey lagey bhaav

Anonymous said...

साँझ के कंधे पर धर शीश,
उदासी बहुत बहुत रोई।।
-- बहुत भाव भीनी रचना... पता नहीं क्यों साँझ होने पर ही उदासी घेर लेती है !!

अमिताभ मीत said...

कहाँ बिछड़े वो आश्रम सखा, पिता का छूटा पीछे गेह,
सत्य की परिणिति कैसी क्रूर, स्वप्न हो गया स्वजन का नेह।
रंगमय और हुई तसवीर,
आँसुओं ने जितनी धोई।।

मन को छू गई कविता.
बहुत ही अच्छी रचना. बहुत धन्यवाद इतनी अच्छी कविता के लिए.

डॉ .अनुराग said...

aapki ikathha chezo ko dekh to nahi lagta ki sadharan si ladki hai.
ishvar aapki is samvedna ko barkarar rakhe.

कंचन सिंह चौहान said...

रवीन्द्र जी मैने कविता दोबारा पढ़ी...कठिन शब्द शायद एक ही है वो है नीराजन..वि भी असल में कठिन नही है हमलोग पूजा पाठ कम करते हैं इललिये लुप्त होरहा शब्द है...नीराजन असल में वो संस्कृत की आरती है जो हवन इत्यादि के पश्चात होती है। अगर इसके अतोरिक्त भी कोई शब्द न समझ में आ रहा हो तो कृपया बताएं...!

मनीष जी जैसा कि मैने अपनी कविता के आरंभ मे ही लिखा कि ये मैने दैनिक जागरण में पढ़ी थी..उस समाय रविवारीय परिशिष्ट में एक कविता और एक कहानी निकलती थी, लेकिन लेखक परिचय नही निकलता था..अतः इससे अधिक जानकारी मुझे स्वयं ही नही है...बस कविता अच्छी लगी तो आप लोगों को भी सुना दी।

मीनाक्षी जी, पारुल जी एवं मीत जी आप सबका धन्यवाद!

अनुराग जी ये तो आपकी देखने का नज़रिया अच्छा है कि आपको साधारण वस्तु साधारण नही लग रही..शुक्रिया।

Unknown said...

कंचन जी आपका कहना सही है, कविता इतनी कठिन भी नहीं है। मैंने भी इसे दोबारा पढ़ा मुझे अच्छी लगी। दरअसल मैं....थिर हुए नीराजन के मंत्र...का मतलब नहीं समझ पाया था, शायद इसीलिये कविता मुझे क्लिष्ट लगी। कृपया बतायें उस पंक्ति का क्या अर्थ है।

singh said...

समय का.........
मन को छूते हुये बहुत कुछ कह गयी यह कविता
विक्रम

Wyrm O Lantern said...

Great read thanks