Wednesday, November 21, 2007

ये उम्मीद नही मरती जाने क्या खा कर आई है?



खुशी मरी उत्साह मर गया जीने की हर चाह मरी,
ये उम्मीद नही मरती जाने क्या खा कर आई है?

कितना नीर भरा मेघों में किन्तु स्वाति की प्रतीक्षा,
पागलपन ये नही अगर तो क्या है चातक की इच्छा
मरुभूमि को नीर समझना और भ्रमों के पीछे दौड़,
ये दुर्भाग्य नही हिरनी की सोची समझी ढिठाई है।

मना मना कर हारे मन को मना किया है कितनी बार,
चाँद पकड़ने की ज़िद मत कर इस प्रयास में मिलेगी हार।
वो जो है ही नही जगत में उसको ही पाने का वर,
भला भरे कैसे ईश्वर जो खाली झोली आई है।

वो क्षण जो कुछ क्षणों मात्र को आये, और फिर ना आये,
जो बादल सुख भ्रांति बन कर छाये और फिर न छाये,
रात कहा करती है मुझसे अब वो सब ना लौटेगा,
पर ये बैरन भोर हमारी आस जगाने आई है।

ये उम्मीद नही मरती जाने क्या खा कर आई है?

6 comments:

पारुल "पुखराज" said...

aisey vichaar shayaad sabhi ke mun me aatey hain,jo inhey vyakt kar paatey hain..bhaagyashaali hain...sundar bhaav....

पुनीत ओमर said...

"भला भरे कैसे ईश्वर जो खाली झोली आई है।"
का बड़ा अच्छा पूरक दिया है आपने..
"रात कहा करती है मुझसे अब वो सब ना लौटेगा,
पर ये बैरन भोर हमारी आस जगाने आई है।"

कुछ लोग कहते थे मुझसे बचपन में, कि अपनी इच्छाएं सीमित कर लो (दूसरे शब्दों में, उन्हें मारना सीख लो) फ़िर दिल नहीं दुखेगा. भले ही कर्म प्रेरणा न हो इसमे, पर कमसे कम जिजीविषा कि परिभाषा ऐसे लोगों को इस कविता से सीखनी चाहिए.

Manish Kumar said...

वो क्षण जो कुछ क्षणों मात्र को आये, और फिर ना आये,
जो बादल सुख भ्रांति बन कर छाये और फिर न छाये,
रात कहा करती है मुझसे अब वो सब ना लौटेगा,
पर ये बैरन भोर हमारी आस जगाने आई है।

ये उम्मीद नही मरती जाने क्या खा कर आई है?


बहुत खूब ! आपकी भावनाएं अच्छी तरह उभर कर आई हैं इस कविता में।
पर जो लय या प्रवाह आपकी कविताओं का अभिन्न अंग रहा है उसमें थोड़ी कमी जरूर नज़र आती है यहाँ।

Vikash said...

"ये उम्मीद नही मरती जाने क्या खा कर आई है?"

उम्मीद मर जायेगी तो हम इंसान कैसे रह पायेंगें. बहुत ही सुंदर रचना.

और हाँ! इस टिप्पणी को मेरे ब्लोग की टिप्पणी का बदला ना समझा जाये. :)

मीनाक्षी said...

ये उम्मीद नही मरती जाने क्या खा कर आई है? ----- बहुत सुन्दर और सत्य भी....

हुआ ऐसा कि ह्रदय गवाक्ष को हमने अगस्त में पहली बार पढा और अपने favorites में डाल दिया. उसके बाद नज़रों से ओझल हुआ तो आज अचानक सामने आ खड़ा हुआ.

कंचन सिंह चौहान said...

पारुल जी, पुनीत जी एवं मीनाक्षी जी धन्यवाद!
मनीष जी कभी कभी भावनाओं का प्रवाह बाकी प्रवाहौं पर भारी पड़ जाता है, लेकिन ये सत्य है कि २००३ मे लिखी गई मेरी ये कविता मेरी सबसे प्रिय कविताओं में एक है।
विकास जी आप कहते हैं तो मान लेती हूँ कि ये टिप्पणी व्यवहार में नही मिली बल्कि अपनी कमाई है।