
वो मुझसे आठ माह पहले आई थी उस मोहल्ले में और इस दुनियाँ में भी।
हम कब मिले ये हम दोनो को नही पता। माताएं मिलती होंगी तो हम भी मिल लेते होंगे।
मेरे घर में उसे बहुत तेज कहा जाता था। वो खूब चालाक थी और मुझे बहुत चीजों मे ब्लैकमेल कर लेती थी।
मेरी समवयस्क बाहरी दुनिया उसी से चलती थी। वो स्कूल के किस्से सुनाती, तो मैं भी कल्पना में स्कूल चली जाती। वो सहेलियों के किस्से सुनाती तो मैं भी कहती "अम्मा आज मेरी बहुत सारी सहेलियाँ आईं थी। बाहर खड़ी थी। स्कूल को बहुत देर हो गई थी आज।" माँ मेरे झूठ पर कभी पिघल जाती कभी मुस्कुरा देती।
अम्मा के सरकारी स्कूल में कक्षा पाँच के पहले अंग्रेजी नही पढ़ाई जाती थी। तो अंग्रेजी की वही किताब मँगाई जाती, जो उसके स्कूल में चलती। इस तरह मैं अन्य विषय में एक क्लास आगे थी, मगर अंग्रेजी में उसके साथ। क्योंकि अन्य विषय में क्लास पार करने का प्रमाणपत्र तो अम्मा को ही देना था ना। जब भी उन्हे लगता कि योग्यता मिल गई, तभी वे बिना सेशन कंप्लीट हुए ही रिज़ल्ट पकड़ा देतीं।
वो मेरे घर खेलने आती, मैं अपने सारे खिलौने उसे समर्पित कर देती। इसके बाद जब उसका मन ऊब जाता वो चल देती। मेरे मन डूबने लगता। मैं लाखों मान मनौव्वल करती उससे थोड़ी देर और रुक जाने के लिये।
उसकी कोई बात ना मानने पर झट वो खुट्टी कर लेती। मैं उसे मनाती रहती। वो गिल्ली डंडा खेलती, छुआ छुऔव्वल और मैं अपने गेट पर बैठ उसे मैदान में देखती। कभी कभी उसका ग्रुप मेरे घर में आ जाता और मेरे साथ बोल मेरी मछली या अपना साथी खोज लो खेलता। मगर उसमें भी वो हमेशा मुन्नी को अपना साथी बनाती।
मेरा एड्मीशन सीधे कक्षा ४ में हुआ। हमारे लड़ाई झगड़े वैसे ही थे। मैं अपनी दीदी को बहुत चाहती थी। वो मेरा पहला प्यार थीं। वो भी उन्हे बहुत चाहती थी। मुझे चिढ़ होती थी। दीदी मेरे समय में से उसको भी समय दे देतीं थीं। मेरा समय तो कम हो जाता था। मैने डिमॉण्ड कर के इतना सुंदर मिडी टॉप बनवाया था दीदी से और दीदी ने मुझसे पहले उसे पहना दिया। मैं तिलमिला गई थी। रो रो कर आँखें सुजा ली थी।
वो कहती अबकी मैं टोपी वाली फ्रॉक लूँगी, अबकी सीढ़ियों जैसी झालर वाली। मुझे वो सब चाहिये था।
हम दोनो अपने अपने बाबू जी की बात करते।
"मेरे बाबू तो मुझे मैना कहते हैं।"
" मेरे बाबू जी मुझे गुड्डन ही कहते हैं।"
"मेरे बाबू आज चाट खिला कर लाये।"
"मेरे बाबूजी ने डोसा खिलाया।"
"बाबू ने डाँट दिया था, तो मुझे पैसे दिये।"
"बाबूजी तो कभी डाँटते ही नही। कल मैं ही गुस्सा हो गई थी तो पैसे दिये मुझे।"
स्कूल छूट गया मैं इण्टर कॉलेज में आ गई और वो भी वहीं आ गई एक साल बाद।
दीदी की शादी हो गई। दीदी हम दोनो में कॉमन फैक्टर थीं। हम दोनो मिल कर चिट्ठी लिखते।
अचानक बाबूजी चले गये। सब आये वो नही आई। १३ दिन बीत गये...! मैं सोचती कि अब हम दोनो किसकी बात करेंगे। वो अपने बाबू के किस्से सुनायेगी तो मैं कैसे उससे बढ़ कर बताऊँगी। १४वें दिन वो जब आई तो मैने कहा " तुम आई नही" उसने कहा "मेरी हिम्मत नही हुई।"
हम दोनो शायद बड़े हो गये थे। उसने फिर कभी बाबू के किस्से नही सुनाये। वो बस मेरे किस्से सुनती थी। मेरे रोने में साथी बनती। मेरा हाई स्कूल था। दुनिया बदल रही थी। हम दोनो की दुनिया बदल रही थी।
संघर्षों का भी दौर शुरू हो चुका था। अपने अपने पारिवारिक और सामाजिक तनाव थे।
मेरी व्हीलचेयर और उसकी कुर्सी के पावे सटे होते। हम दोनो के सिर बहुत नजदीक होते और सारी सारी बातें खुसर फुसर में हो जातीं।
लोग मिसाल देते दोस्ती की। चाची झट से लोटे भर पानी उबार देतीं हम दोनो के सिर से।
हमारी अपनी अलग अलग सहेलियाँ थीं। मगर बेस्ट फ्रैन्ड हम दोनो थे।
फलाने की शादी के लिये गाने तैयार करना। सूट डिसाइड करना। मैचिंग्स इकट्ठा करना...! और फिर कोई देख के कुछ बोल दे तो आफत ना बोले तो आफत।
बुलौवे में हमारी जोड़ी विख्यात थी। उसकी ढोलक पर मेरा मंजीरा और मेरा गाना। हम दोनो एक दूसरे के बिना गाना नही शुरू करते।
हमारे सारे राज एक दूसरे तक पहुँच कर वहीं खतम हो गये।
वो घर से निकलती तो चप्पल की आवाज़ सुन कर पूछ लिया जाता "कहाँ चल दी, दोपहरी में।"
इस लिये वो चप्पल हाथ में लेती और दौड़ती हुई आ जाती। हाँफते हुए कहती " बहुत तेज तलब लगी थी तुम्हारी। तुम जान लोगी मेरी।"
इण्टर में मेरा आपरेशन होने के कारण मैने एक्ज़ाम ड्रॉप कर दिया। हम दोनो एक क्लास में आ गये।
हम दोनो का स्वाभाव बदल चुका था। मेरी बहुत सहेलियाँ बनती थीं। वो मुझसे खुश थी....! उसे दुनिया की बहुत परवाह थी। मुझे अपने परिवार से जस्टिफाईड होना था बस। वो कम बोलती थी, मीठा बोलती थी। मैं बहुत बोलती थी और ठेठ बोलती थी। तैयार हो कर निलने पर लड़कियों को फैशनी माना जाता था, वो अच्छी लड़की बन कर सिम्पल रहती। मुझे तैयार होना अच्छा लगता था।
मुझे लड़कियाँ बहुत सुंदर लगती थीं। मैं फ्री पीरियड में लगातार उन्हे देखती रहती। बहुत सुंदर लगने पर काम्प्लीमेंट भी देने से नही हिचकती। चाट खाते हुए मैने एक लड़की से कहा "आप बहुत सुंदर लगती हैं।"
उसने मुस्कुरा के धन्यवाद देते हुए कहा " आपकी सहेली भी तो बहुत सुंदर है।"
दोनो का पोस्ट ग्रेजुएशन कंप्लीट हुआ।
मेरी कविता उसके पल्ले नही पड़ती। कहानियाँ अच्छी लगती थीं उसे। दैनिक जागरण की कहानियों पर डिसकशन होता। गीत मैं डूब के सुनती। उसका कोई ऐसा मैटर नही था। उसे सलामत रहे दोस्ताना हमारा अच्छा लगता। हम आज भी बचपन की मोहब्बत को दिल से ना जुदा करना सुन कर एक दूसरे को फोन कर लेते हैं। मुझे हवाओं से प्रेम हो जाता था। उसे मुझसे था।
हम दो अलग मुहिम पे थे। मुझे नौकरी चाहिये थी। उसे घर बसाना था।
लोग कहते "बेचारी कंचन बहुत तेज है पढ़ने में।" वो कहती जब तेज है पढ़ने में तो बेचारी क्यों है। वो कहती मुझे तुम्हारे नाम के आगे से बेचारी शब्द हटाना है।
कारगिल युद्ध हुआ। हम दोनो ने अपने पैसे बचाये और चुपके से भेजे। इसी युद्ध के आखिरी दिन दो अच्छी खबरे मिलीं। एक राष्ट्र की विजय और दूसरा किसी के हृदय पर उसकी विजय। लड़के को वो बहुत पसंद आई थी।
मैं अपना जन्मदिन मना कर आपरेशन कराने चली गई। मेरा दूसरा आपरेशन हुआ। बहुत कष्टकारी था। वो फोन करती चिट्ठी देती। हौसला देती। मंदिर में जाती। हर शुक्रवार। वो एक पैर पर एक घंटे खड़े हो कर मेरे लिये प्रार्थना करती। लोग कहते हैं उतनी देर उसके आँसू नही रुकते।
इधर अरेंज्ड मैरिज में लव पनपने लगा था। वुड बी का रोज फोन आता। मेरी कविताएं चिट्ठियों से मँगाई जातीं। गीत के अर्थ समझ में आने लगे थे। ऐसे समय में मैं दूर थी उससे। चिट्ठियाँ हाल ए दिल बयाँ करतीं।
वो मजाक करती " देखो बहुत जल्दी व्यवहार बनाती हो। मेरे मियाँ जी से ना बनाना। राखी पर मिलवाऊँगी तुमसे।" मै कहती "तुम्हे जितनी मेहनत करनी है कर लो बाकि हम दोनो के बीच का फाइनल तो जयमाल वाले दिन होगा।"
मैने अपनी संपत्ति एहसान के साथ ओमी जीजाजी को दे दी। उन्होने कृतज्ञ हो कर ले ली। वो माधुरी अग्निहोत्री से माधुरी त्रिपाठी हो गयी ।
अप्स एन डॉउन अब भी आते हैं। हम दोनो उसी तरह साथ होते हैं। किसी शादी में हम अभी २ साल पहले मिले मैने किसी से कहा " आप खुद जितनी सुंदर हैं, आपकी बेटी और बहू भी उतनी ही सुंदर हैं।" उसने पलट कर मुस्कुराते हुए कहा " आपकी सहेली भी तो बहुत सुंदर हैं।"
रात के ग्यारह बजे अब भी कभी कभी फोन आ जाता है " बहुत तेज तलब लगी थी तुम्हारी। तुम जान लोगी किसी दिन मेरी।"
चाहती थी वो कविता और डायरी का वो पन्ना भी शेयर करूँ जो उसकी शादी तय होने के बदलते मौसम में मैने लिखा था। मगर पोस्ट पढ़ने वालों की मेहनत बढ़ जायेगी।
उसकी कुछ लाईने यूँ थी
सर्दियों की धूप मेरी गर्मियों की शाम है,
वो मेरा सब कुछ है लेकिन आपके अब नाम है।
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क्या कहूँ बस लत है उसकी,
हाँ मुझे आदत है उसकी
जाते जाते वो कह गई थी "किसी और को शायद कम होगी मुझे तेरी बहुत ज़रूरत है।"
आज सुबह फोन पर मैने उससे कहा ३४ साल तो हो गये हमारी मित्रता के। उसने हँसे के कहा " अपने जीजाजी को ना बाताना। मेरी उम्र ३० के बाद बढ़नी बंद हो गई है.....! "
नोटः सोच रही थी कि शीर्षक "बहुत तेज तलब लगी थी तुम्हारी। तुम जान लोगी किसी दिन मेरी।" मगर अनुराग जी की उस नई पोस्ट के कारण बख्श दिया, जिसने पूरी रात जगाया।