
२१ दिसंबर, २००७ को तेजी बच्चन ने दुनिया छोड़ दी..... तेजी बच्चन...वो तेजी बच्चन जो मुझे इसलिये नही पसंद थी क्योंकि वो महानायक अमिताभ की माँ थीं बल्कि इसलिये पसंद थी क्योंकि उन्होने न सिर्फ भारत को बल्कि विश्व को अमिताभ सा सपूत दिया था..!
वो तेजी बच्चन जो मुझे इसलिये नही पसंद थी क्योंकि वो मधुशाला के कवि डॉ० हरिवंशराय बच्चन की पत्नी थी, बल्कि इसलिये पसंद थीं क्योंकि मधुशाला के कवि की क़लम के निराश कवि ने जब उनसे पूँछा कि "क्या करूँ संवेदना ले कर तुम्हारी क्या करूँ मैं?" तो द्रवित होकर उन्होने उसे गले लगा लिया और जीवन साथी बन कर ऐसी प्रेरणा दी कि आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी से डॉक्टरेट की उपाधि पाकर उन्होने दशद्वार से सोपान तक का सफल सफर तय किया।
डॉक्टरेट की उपाधि पाकर लौटे बच्चन जी को जब पता चला कि तेजी ने क्या क्या न बता कर उनका शोध पूर्ण कराया तो वे अभिभूत हो गये ...और माना कि अगर उन्हे ये सब पता चल जाता तो वे शोध अधूरा छोड़ कर लौट आठे होते! यहाँ सरकार की मदद बंद हो गई थी और तेजी ने अपने जेवर बेंच कर उनकी फीस का इंतजाम किया था और कहा था कि
एक जुआँ के दाँव पर हम सब दीन्हि लगाय
दाँव बचे, इज्जत रहे जो राम देय जितवाय।
कितनी बार बच्चन जी ने कहा कि मेरे अंदर की स्त्री तेजी के पुरुषत्व से आकर्षित रहती है। भारत कोकिला से लेकर इंदिरा गाँधी तक को तेजी ने ही मोह रखा था.....!
ऐसी पत्नी...ऐसी माँ...ऐसी स्त्री को मेरी श्रद्धांजली उन्ही के नायक के शब्दों में.....!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!
यह चाँद उदित होकर नभ में कुछ ताप मिटाता जीवन का,
लहरालहरा यह शाखाएँ कुछ शोक भुला देती मन का,
कल मुर्झानेवाली कलियाँ हँसकर कहती हैं मगन रहो,
बुलबुल तरु की फुनगी पर से संदेश सुनाती यौवन का,
तुम देकर मदिरा के प्याले मेरा मन बहला देती हो,
उस पार मुझे बहलाने का उपचार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो,उस पार न जाने क्या होगा!
जग में रस की नदियाँ बहती, रसना दो बूंदें पाती है,
जीवन की झिलमिलसी झाँकी नयनों के आगे आती है,
स्वरतालमयी वीणा बजती, मिलती है बस झंकार मुझे,
मेरे सुमनों की गंध कहीं यह वायु उड़ा ले जाती है;
ऐसा सुनता, उस पार, प्रिये, ये साधन भी छिन जाएँगे;
तब मानव की चेतनता का आधार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!
प्याला है पर पी पाएँगे, है ज्ञात नहीं इतना हमको,
इस पार नियति ने भेजा है, असमर्थबना कितना हमको,
कहने वाले, पर कहते है, हम कर्मों में स्वाधीन सदा,
करने वालों की परवशताहै ज्ञात किसे, जितनी हमको?
कह तो सकते हैं, कहकर ही कुछ दिल हलका कर लेते हैं,
उस पार अभागे मानव का अधिकार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!
कुछ भी न किया था जब उसका, उसने पथ में काँटे बोये,
वे भार दिए धर कंधों पर, जो रो-रोकर हमने ढोए;
महलों के सपनों के भीतर जर्जर खँडहर का सत्य भरा,
उर में ऐसी हलचल भर दी, दो रात न हम सुख से सोए;
अब तो हम अपने जीवन भर उस क्रूर कठिन को कोस चुके;
उस पार नियति का मानव से व्यवहार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!
संसृति के जीवन में, सुभगे ऐसी भी घड़ियाँ आएँगी,
जब दिनकर की तमहर किरणे तम के अन्दर छिप जाएँगी,
जब निज प्रियतम का शव, रजनी तम की चादर से ढक देगी,
तब रवि-शशि-पोषित यह पृथ्वी कितने दिन खैर मनाएगी!
जब इस लंबे-चौड़े जग का अस्तित्व न रहने पाएगा,
तब हम दोनो का नन्हा-सा संसार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!
दृग देख जहाँ तक पाते हैं, तम का सागर लहराता है,
फिर भी उस पार खड़ा कोई हम सब को खींच बुलाता है;
मैं आज चला तुम आओगी कल, परसों सब संगीसाथी,
दुनिया रोती-धोती रहती, जिसको जाना है, जाता है;
मेरा तो होता मन डगडग, तट पर ही के हलकोरों से!
जब मैं एकाकी पहुँचूँगा मँझधार, न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!