Sunday, September 22, 2013

लंचबॉक्स, विवाह संस्था और जाने क्या क्या

 
यूँ कहने को तो हर आदमी अकेला ही है। किसी से भी पूछ लीजिये वो भरे पूरे परिवार और समाज के साथ भी खुद को अकेला ही बता देगा। हर कोई खुद को उस शेर से जुड़ा हुआ पाता है कि
 
हर तरफ, हर जगह बेशुमार आदमी
फिर भी तनहाइयों का शिकार आदमी।
 
और उस शेर से भी कि
 
सबके दिल में रहता हूँ पर दिल का दामन खाली है,
खुशियाँ बाँट रहा हूँ मै और अपना ही दिल खाली है।
 
मगर सच तो ये है कि हमारे आपके इर्द गिर्द बेशुमार आदमी हैं, बहुतों के दिल में हम रह भी रहे हैं किसी ना किसी तरह।
 
पर सोचिये ज़रा उस औरत के बारे में जो सुबह से शाम तक एक घर के कुछ कमरों और कुछ दरवाजों के बीच है। दुनियाँ की नज़र में बिलकुल अकेली नही। खुश रहने को क्या नही है उसके पास। एक खाता, कमाता, स्मार्ट पति एक नन्ही मुन्नी, प्यारी सी बच्ची और क्या चाहिये खुश रहने को भला और अगर इस पर भी उसे कुछ चाहिये तो फिर उसकी डिमांड ग़लत है। उसे नही पता कि जिंदगी में बस उन्ही चीजों में खुशी ढूँढ़ लेनी चाहिये, जो हमें मिली हैं।
 
इला, हर दूसरे घर में पायी जाने वाली एक सामान्य महिला है। कहने को सुंदर। फिट। हनीमून पर पहनी गई ड्रेस आज भी थोड़ी ढीली ही है। फिगर, जैसे का तैसा। सुबह पति को भेजने के बाद शाम को पति के इंतज़ार तक़ काम ये कि कि पति को खुश कैसे किया जा सकता है। इसलिये क्योंकि खुद इला के खुश रहने की चाभी उस पति के ही पास है। सुबह से शाम तक की गई इन कोशिशों में नाक़ामयाब इला ना ही पाति को खुश कर पाती है और ना ही खुद की खुशी पाती है।
 
देखती हूँ, तो अपने इर्द गिर्द जाने कितनी इला दिखाई देती हैं। सुबह पाँच, साढ़े पाँच बजे उठ कर पति और बच्चों के लिये लंच बनाना, उनके सामान सही जगह पर रख कर उनके तैयार होने तक उनकी असिस्टेंट बनी रहना। उन्हे प्यार से विदा करना और उनका मशीन की तरह विदा ले लेना। उसके बाद शाम पाँच बजे तक जिंदगी में कोई गतिविधि नही। साहेब आफिस में है और उन्हे सबसे ज्यादा डिस्टर्ब पत्नी का फोन करता है। पत्नी जानती है ये ग़लत बात है। वो डिस्टर्ब करती भी नही। उसकी आगे की गतिविधि बस ये है कि वो घड़ी की सुई देखती रहे बस और इंतज़ार करे छः बजने का। छः बजने के कुछ देर पहले वो खुद को सही कर लेती है (वैसे अधिकांश पत्नियाँ ये भी नही करतीं, क्योंकि उन्हे पता होता है कि शादी के २ साल होते होते पति की रुचि उसकी खूबसूरती में रह ही नही गयी) दरवाज़ा खोलने के बाद उसे पता है कि अभी उसे कुछ नही बोलना है, क्योंकि साहेब पूरे दिन जिस तरह थक कर आये हैं, उसके बाद उन्हे ना ही कुछ बोलने का मन है ना ही सुनने का। चाय,नाश्ता, टी०वी के बीच घड़ी साढ़े नौ बजा देती है और डिनर का टाइम हो जाता है। साहेब का मूड थोड़ा हलका हो चुका होता है। लेकिन इतना भी नही कि वो पत्नी की समस्याए सुनें। उन्हे खुश रखने की मुहिम में लगी बीवी़ चुन चुन कर इर्द गिर्द की वो खबरे लाती है, जो सुखद हों। साहेब उखड़े उखड़े रिएक्शन के साथ सुनते हैं और सोने चल देते हैं। सुबह फिर वही दिनचर्या।
 
इस पर अगर इला जैसी महिला हो, जिसका शहर  मुंबई है, तो अकेलेपन में कुछ अधिक ही वृद्धि होना स्वाभाविक हैं।
 
२४ घंटे के इस अबोलेपन की कल्पना करना ही तक़लीफदेह है। उसमें कहीं से भी अगर कोई ऐसा मिल जाता है़ जिसके साथ थोड़ा भी कुछ बाँटा जा सकता है, तो वो जीवन का सबसे बड़ा सुख होता ही होगा। कैसा अजीब सा दुःख होता है जब हम नायक से सुनते है कि "कोई बात सुनने वाला नही होता, तो हम बहुत कुछ भूल जाते हैं।"
इर्द गिर्द कितने ही रिश्ते जो मैसेज के अपडेट्स पर टिके हुए हैं, मुझे याद आ जाते हैं। मुझे याद आता है कि वे भी बहुत दूर हैं एक दूसरे से। मगर हर थोड़ी देर की अपडेटेशन उन्हे सुख देती है, इस बात का कि कोई है जो उनके पल पल की खबर रखना चाहता है।
 
और देखिये ना कि वो जिससे हम अपने अकेलेपन को भरने की माँग कर रहे हैं, वो जो हमारा सो कॉल्ड पार्टनर है, अकेला वो भी है। कहीं दूसरी जगह की मैसेज अपडेट उसके भी खालीपन को भर रही है। अजीब बात है ना ये।
समझ ही नही पाती कि क्यों है ऐसा। विवाह जैसी संस्था में ऐसा क्या होना चाहिये कि ये अपने आदर्श रूप में स्थापित हो ? क्या ये संस्था बेकार हो गई है या फिर कुछ सुधार की माँग है इसमें ? पति या पत्नी संतुष्ट क्यों नही ? ये मनचाहा बंधन, अनचाहा कैसे हो गया है ?
 
या फिर इंसानी फितरत ही है भागते रहने की ? ढूँढ़ते रहने की ? वो जो सहज उपलब्ध है, उससे संतुष्ट ना होना ये स्वभाव है क्या उसका ? ऐसा तो नही कि उपलब्धता चीजों का मूल्य घटा देती है। वो प्रेमिका जिसके कितने कितने चक्कर काट कर, कितनी कितनी मनौनी, चिरौरी कर के अपना बनाने को राजी किया गया था। पत्नी बनते ही उसके बाद किसी और की दरकार क्यों हो जाती है ? वो पति जो लोगों के लिये प्राप्य है वो खुद को संतुष्ट क्यो नही कर पाता ?
 
क्या कहा ? ये सब बातें लंच बॉक्स से संबंधित तो नही। अरे नहीं, नही सब बाते कहाँ है लंचबॉक्स से संबंधित। ये तो वो बातें है, जो मेरे मन में आईं लंचबॉक्स देखने के बाद।
 
खैर प्रश्न तो और भी आये ये भी कि ये असहज से रिश्ते कितने दिन तक सुकून दे पायेंगे। ये रिश्ते जिनकी नींव कुछ मैसेज होते हैं, उन पर खड़ी दीवारों की उम्र क्या होती होगी ? और फिर क्या ये भी एक जगह जा कर उसी एकरसता का शिकार नही हो जाते होंगे ? ना होते तो वक्त की माँग पर यही रिश्ते लीगल हो जाते।
 
कुछ लोंगों को फिल्म के अंत को ले कर शिकायते हैं। असल में लोग प्ले और मूवी में अलग अलग उम्मीदों के साथ जाते हैं। यहाँ कुछ प्ले जैसा माहौल था। सबका अपना अपना नज़रिया, मगर मुझे लगा कि इन असहज रिश्तों का सहज अंत संभव भी नही था।
 
मूवी और भी कई जगह संवेदनाओं को हिलाती है। वो आंटी, जो मूवी में सिर्फ अपनी आवाज़ के साथ है, वो माँ जो कितने दिनो से पड़े पिता की एक ही तरह से सेवा कर रही है। इस महीने का इंतजाम कर के अगला महीना भगवान भरोसे छोड़। ये सारे लोग भले ही अलग से लगते हों, लेकिन हैं हमारे आपके बीच।
 
आंटी का ओरिएंट पंखा जमाने से नही बंद हुआ। वो चलते पंखे की सफाई कर देती हैं, क्योंकि अगर वो पंखा बंद हुआ तो कोमा में पड़े अंकल की साँसे बंद हो जायेंगी। सोचिये, किसी को बिस्तर पर ही सही, देखते रहने के लिये हम क्या क्या जतन करते हैं। ये हम मनुष्यों का कितना अजीब स्वभाव है।
 
लंग कैंसर से जूझ रहे पति की सेवा करती एक और औरत उसकी मृत्यु के बाद कितने सहज अंदाज में कहती है "बहुत भूख लगी है, मन हो रहा है कि पराँठे खाऊँ।" दिल दहल जाता है, उस औरत के वक्तव्य पर। वो बिलख कर रोती तो उतनी संवेदनाएं ना उपजतीं, जितनी उसके ऐसा कहने पर उपजती है।
 

शेख का कहना " हाँ सर अनाथ तो हैं हम। लेकिन मेरी माँ ऐसा कहती थी के साथ बातें कहना बात का वज़्न बढ़ाता है।" बड़ी सीधी सच्ची सी बातें। बिना किसी लाग लपेट। दिमाग को बहुत सारे विचार दे गई ये मूवी, मेरे लिये बस इसलिये भी विशेष हो जाती है, क्योंकि बहुत दिनो बाद लगातार सवा घंटे किसी चीज पर लिख पाई।

8 comments:

नीलिमा शर्मा Neelima Sharma said...

२४ घंटे के इस अबोलेपन की कल्पना करना ही तक़लीफदेह है। उसमें कहीं से भी अगर कोई ऐसा मिल जाता है़ जिसके साथ थोड़ा भी कुछ बाँटा जा सकता है, तो वो जीवन का सबसे बड़ा सुख होता ही होगा।



उम्दा पोस्ट अकेलेपन की पीड़ा झेलती नारी पर लंच बॉक्स पर :)) मूवी देखने की उत्कंठा और तीव्र हो उठी

Sadhana Vaid said...

हृदय को विचलित विगलित करता चिंतनीय आलेख ! कदाचित इस तरह की एकरसता, नीरसता एवँ चुप्पी एक समय के बाद हर आम दंपत्ति की नियति का अनिवार्य हिस्सा बन जाते हैं ! सीमित साधन, सीमित महत्वाकांक्षाएं, सीमित समय एवँ असीमित असंतोष व जिम्मेदारियों के चलते रिश्तों में उपजे इस बासीपन से बच पाना मुश्किल हो जाता है ! बहुत बढ़िया पोस्ट ! स्

दीपिका रानी said...

बेहतरीन फिल्म, जिसमें कोई झोल नहीं, कोई अवरोध नहीं। हां फर्नांडीस के पत्र अगर अंग्रेजी में न होकर अंग्रेजीनुमा हिंदी में होते, तो शायद और अच्छा होता। पहली बात, फिल्म देखने गए हर इंसान को अंग्रेजी नहीं आती, दूसरी बात, हर गृहिणी भी अंग्रेजी जाने, यह जरूरी नहीं।

Shekhar Suman said...

पहले ही दिन देखी ये फिल्म, हालांकि इस फिल्म से काफी उम्मीदें थीं.... थोड़ी सी धीमी लगी, लेकिन मज़ा आया... लेकिन ज्यादा धीमी फिल्में देखने से वक़्त धीमा चले ये ज़रूरी भी तो नहीं, आज इतना वक़्त ही कहाँ है किसी के पास....
और वो इला के ऊपर वाली आंटी भारती अचरेकर हैं, मैं तो पहली आवाज़ में ही पहचान गया था.... लेकिन शक्ल नहीं दिखी, इंतज़ार करता रहा....

ज़्यादातर कहीं कमेन्ट नहीं ही करता हूँ मैं.... बेहतरीन प्रस्तुति टाईप.... लेकिन फिल्म तो बेहतरीन थी.... :P

Shekhar Suman said...

फिल्म ईमानदारी से बनी है... Saajan Fernandez अंग्रेज़ी में संवाद करते हैं... निर्देशक ने उसे dilute करके दर्शकों की सुविधा के लिए हिंदी घुसेड़ने की कोशिश नहीं की है ... प्रेम किसी भाषा का मोहताज नहीं ..

Ankit said...

लिखते रहिये यूँ ही ............ पढ़कर अच्छा लगा।

वैसे अगर देखें तो जिंदगी में उन्ही चीजों में खुशी ढूँढी जाती है जो हमें मिली होती हैं, उनसे बाहर खुशियाँ नहीं सुकून मिलता है। ये व्यक्ति पर निर्भर है कि उसके लिए खुशियाँ ज्यादा बड़ी हैं या सुकून। वैसे दोनों एक दुसरे से अछूते नहीं है। एक घरेलू कामकाजी स्त्री का कभी प्रमोशन नहीं होता, हस्बैंड कैरियर की सीढियां चढ़ता हुआ नयी ऊंचाई छूता जाता है तो वो उससे ज्यादा खुश होती है, बच्चे बचपन से निकल कर स्कूल, फिर कॉलेज और फिर शादी कर लेते हैं और अपनी जिम्मेदारियों और ज़िन्दगी में उलझ जाते हैं, वो उनकी खुशियों में अपनी खुशियाँ तलाशना शुरू कर देती है। लेकिन इस सम्भावना का होना ज्यादा है कि वो स्त्री आज भी वहीं पर होगी जहाँ कल थी। उन्ही बर्तनों की आवाज़ में अपनी आवाज़ ढूंढ रही होगी, या कहें की ज़िन्दगी गुज़ार रही होगी।

Abhishek Ojha said...

हम्म ... देखनी पड़ेगी ये फ़िल्म.

Asha Joglekar said...

फिल्म देखी तो नही और ३ महीने और देख पाने का चांस भी नही। पर आप की पोस्ट ने उत्सुकता तो जगा ही दी।